बोटी-बेटी...दीन और जमीन...बांग्लादेशी घुसपैठ, झारखंड का वो सच जो aajtak.in ने दिखाया और अब बना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा

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झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ चर्चा में है. स्थानीय आदिवासियों के बाद अब सेंटर में बैठे लीडर भी आरोप लगा रहे हैं कि पोरस बॉर्डर का सहारा लेते हुए घुसपैठिए न सिर्फ आ रहे हैं, बल्कि उनका टारगेट राज्यके आदिवासी इलाके हैं. ऐसा क्यों है, इसे समझने के लिए हम ग्राउंड पर पहुंचे और मामले की परत-दर-परत पड़ताल की. किन रास्तों से घुसपैठिए भीतर आ रहे हैं. कौन उनके फेक ID बना रहा है. और किसलिए खास ये स्टेटउनके निशाने पर है?

इस दौरान एक टर्म भी छनकर आई- पॉलिटिकल जेहाद! खुद लोकल आदिवासी नेता ये शब्द कहते हैं. उनके देवस्थान और गोचर भूमि को कब्रिस्तान में बदला जा रहा है, इसके दस्तावेज भी वो दिखाते हैं.

क्या कह रही हैं पार्टियां

चुनावी रैलियों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे स्टार प्रचारकों के भाषण झारखंड के आदिवासियों के इर्दगिर्द ही घूम रहे हैं. इस दौरान इन नेताओं ने रोटी-बेटी-माटी का नारा देते हुए कहा कि उनकी सरकार आई तो घुसपैठिए खत्म हो जाएंगे और आदिवासियों से उनका हक कोई नहीं छीन सकेगा.

हाल में गृह मंत्रीशाह ने भी पार्टी का मेनिफेस्टो जारी करते हुए वादा किया कि उनकी पार्टी घुसपैठियों से जमीनें वापस लेने के कानून लाएगी. उन्होंने असम का भी हवाला दिया कि कैसे वहां बीजेपी के आने पर बाहरियों का आना बंद हो गया.

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तीखे हमलों की सादी-सी काट राज्य के सीएम हेमंत सोरेन के पास है.

वे घुसपैठियों की बसाहट से सीधा इनकार करते हुए सत्ता पर ही पूर्व बांग्लादेशी पीएम शेख हसीना को शरण देने का आरोप लगा देते हैं. बदलती डेमोग्राफी पर हालांकि वे बात करते से कतराते हैं.

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इन रास्तों को पार करते हुए हम सीमा के आखिरी हिस्से तक पहुंचे.

चारों ओर मचे घमासान के बीच कई सवाल भी उठते हैं...

-झारखंड तो सीधे बांग्लादेश से सटा हुआ नहीं, फिर क्यों यहां बांग्लादेशियों की बसाहट हो रही है?

-क्या घुसपैठ केवल सर्वाइवल के लिए हो रही है, या कोई और वजह है?

-दूसरे देश से तंगहाल आए बाहरियों का सपोर्ट सिस्टम कहां है, कैसे करता है काम?

-क्या वाकई आदिवासी लड़कियां किसी ट्रैप का शिकार हो रही हैं?

-क्या कोई डेटा है जो डेमोग्राफी में फर्क को दिखा सकता है?

-क्या बेटी और जमीन लेने के बाद बाहरी लोग स्थानीय राजनीति में भी पैठ जमा रहे हैं?

-क्या घुसपैठ ‘आदिवासी बनाम बांग्लादेशी’ की जंग है, या बात इससे भी संगीन है?

-अब तक इस मामले पर होम मिनिस्ट्री या झारखंड के किसी भी विभाग ने क्या कार्रवाई की?

-अगर सबूत हैं तो क्या केंद्र सरकार अपने-आप एक्शन नहीं ले सकती, या उसके हाथ बंधे हुए हैं?


इन तमाम सवालों के जवाबों के लिएसंथाल-परगना का सफर करते हुए हमने कई मामले देखे कि कैसे आदिवासी लड़की और तथाकथित घुसपैठिए के बीच संबंध होता है और फिर इसी रिश्ते के जरिए जड़ें जमीन के नीचे फैलती चली जाती हैं.

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जो संथाल-परगना टेनेंसी एक्ट आदिवासियों के हक को बचाने के लिए बना था, वही परजीवी की तरह उन्हें खोखला कर रहा है.

लड़की से शादी के बाद बात जमीन लेने तक नहीं खत्म होती, बल्कि इसके बाद महिलाओं के लिए रिजर्व्स सीट पर आदिवासी लड़की से बाकायदा चुनाव लड़वाया जाता है. पत्नी इसके बाद घर बैठेगी और ताकत मुखिया पति के हिस्से चली आएगी. कई ऐसे केस मिले, जहां अपने खुलेपन के लिए जानी जाती आदिवासी महिलाएं पर्दा करने लगी हैं.

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आदिवासी महिलाओं से अलग कथित घुसपैठियों से जुड़ चुकी महिलाएं सिर पर आंचल करती हैं.

दुमका में सिद्धो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय के छात्रनेता ठेठ जबान में कहते हैं- हमारी बच्चियां उनके लिए इनवेस्टमेंट हैं. एक लाख लगाएंगे, तो बदले में एक करोड़ कमाएंगे.

बची-खुची कसर पूरी कर रहा है- दानपत्र का कंसेप्ट.

यहां करोड़ों की कीमत वाली जमीनों को आदिवासी कुछ पैसों के लिए दान कर देते हैं, जिसकी कोई लिखापढ़ी नहीं. दुमका का अंकिता हत्याकांड सबको याद होगा. जिस शाहरुख ने नाबालिग को पेट्रोल डालकर जिंदा जलाया था, उसका घर भी दानपत्र पर ही बना हुआ था.

क्या है ये दानपत्र और कैसे घुसपैठियों के रास्ते आसान कर रहा है, इसे समझने के लिए पढ़ें :- आदिवासी दुल्हन, दान की जमीन और हावी होता दीन...झारखंड के इस इलाके में खतरनाक खेल!

बीते दो दशक में संथाल-परगना की डेमोग्राफी बहुत तेजी से बदली. कोर्ट में इसपर याचिका भी दायर हुई ताकि घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजा जाए. हालांकि इसपर कुछ हुआ नहीं. आने के बाद अवैध लोग सबसे पहले पहचान पत्र बनाते हैं. दूसरा काम वे यह करते हैं कि यहां की मूल आबादी से जुड़ जाएं. नब्बे की शुरुआत में 17 हजार से ज्यादा अवैध बांग्लादेशियों की पहचान यहीं हुई थी. उनके वोटिंग राइट तो निरस्त हो गए. लेकिन उन्हें वापस नहीं भेजा गया. अब वे कहां हैं, ये किसी को नहीं पता.

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वक्त के साथ खतरा बढ़ा.लेकिन झारखंड ही क्यों? देश में कई राज्य हैं, जिनके पास ज्यादा पैसे हैं. घुसपैठिए यहां क्यों बसना चाहेंगे? जवाब में तीन कारण गिनाए जाते हैं.

1. राज्य का बॉर्डर बांग्लादेश के पास है. ये सीधे तो नहीं सटता, लेकिन बीच में पश्चिम बंगाल है, जो ब्रिज का काम करता है. कई बाहरी ताकतें यहां एक्टिव हैं, जो लोकल चरमपंथियों जैसे पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) के साथ मिलकर काम करती हैं. इन्हीं के जिम्मे फेक पहचान बनाने का काम है. यहां बता दें कि PFI को झारखंड सरकार ने 6 साल पहले ही बैन कर दिया दिया था. आरोप यही था- एंटी-नेशनल एक्टिविटी. इसके बाद भी जमीन के भीतर-भीतर सुगबुगाहट सुनाई दे ही जाती है.

2. झारखंड में झारखंड में शरण लेने का एक अन्य कारण और खतरनाक है. ये चिकन्स नेक के करीब है, मतलब सिलीगुड़ी के पास लगभग 22 किलोमीटर का दायरा, जो पूर्वोत्तर को बाकी देश से जोड़ता है. अगर ऐसे इलाके में अपनी पैठ बना ली जाए तो कई देशविरोधी काम अंजाम दिए जा सकेंगे.

3. एक वजह ये है कि झारखंड दूसरे राज्यों की तुलना में भले कमजोर लगे लेकिन वहां मिनरल्स की खान है. आदिवासी समाज का जमाई बनकर घुसपैठिए सीधे खदानों तक पहुंच बना रहे हैं.

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एक बार आदिवासियों के हाथ से निकली जमीन गिफ्ट लैंड बनकर कई हाथों से गुजरती रहती है.

अब सवाल ये कि जब सबकुछ इतना साफ है तो फिर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही!इसका जवाब भी साफ है. घुसपैठिए आकर दूध में पानी की तरह घुलमिल रहे हैं. सबूत होते भी हैं तो बाद में घालमेल हो जाता है.

केंद्रीय स्तर के भाजपा लीडर, जो साहिबगंज में सक्रिय हैं, उन्होंने यही कारण दिया. एक और पैटर्न यहां दिखेगा, गैर धर्म में बढ़ते रिश्तों और उनके खतरनाक अंजाम का. फिर चाहे इलेक्ट्रिक आरी से पचास टुकड़े की गई आदिवासी रूबिका हो, या जुल्म से जैसे-तैसे बाहर निकली शूटर तारा सहदेव.

आदिवासी लीडर अब अपने गांवों को जमाईटोला कहने लगे हैं, जहां और सबकुछ है, सिवाय आदिवासियों के. विस्तार से पढ़ें :- ‘जमाईटोला’ बनते जा रहे झारखंड के ये इलाके, बढ़ी आबादी, बदली डेमोग्राफी...और डरे आदिवासी!

झारखंड के दुमका, पाकुड़ और साहिबगंज को खंगालते हुए हम आगे बढ़े और पहुंचे उन सारी जगहों पर, जहां से कथित तौर पर घुसपैठ हो रही है. पानी और जमीन- दोनों ही जगहों पर बॉर्डर इतना पोरस है कि लांघना कतई मुश्किल नहीं.

बदलते डेमोग्राफी की झलक साहिबगंज सेही दिखने लगती है.

कभी आदिवासी बहुल रहे इलाकों में जोहार की बजाए सलाम का संबोधन. सारी बातचीत बांग्ला में हो रही है. कोलकाता की भाषा से ये जबान कुछ अलग सुनाई पड़ेगी. जैसे नहाने जाते हुए एक बच्चा गोशोल (गुस्ल) शब्द इस्तेमाल करता है, जो कि अरबी शब्द है.

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यहीं एक एजेंट मिलता है, जो बिना वीजा के ढाका पहुंचाने और व्यापारमें मदद का वादा करता है. वो खुद मानता है कि बांग्लादेशी लोग यहां इंडियन आईडी के साथ रह रहे हैं. यहीं क्यों, दिल्ली तक सब भीड़-भाड़ है,वोगर्व से बताताहै.

कैसे आते हैं वहां से यहां लोग?

इतना लंबा-चौड़ा तो बॉर्डर है. हर जगह सिक्योरिटी नहीं न है... नदी कीफांक से आ जाते हैं. आदमी आता है, गोरू आता है, झाड़ू आता-जाता है.

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नदी की इस 'फांक' को समझना हो तो मुर्शिदाबाद के धुलियान पहुंच जाइए.

करीब 80 फीसदी मुस्लिम आबादी वाला शहर गंगा किनारे बसा है, जो बांग्लादेश जाकर पद्मा नदी में बदल जाती है. हम खुद नदी के रास्ते कलियाचक होते हुए सोवापुर पहुंचे. बांग्लादेश यहां से कुछ ही कदम दूर है. यहां बसेलोग खुलकर कहते हैं कि फेंसिंग पार करके जाना कोई मुश्किल नहीं. कागजों के चक्कर में कौन पड़े. उर्दू मिली बांग्ला बोलते लोगों का ये क्षेत्र मुस्लिम-बहुल है. इक्का-दुक्का हिंदू आबादी, जो बात करने से बचती है.

आने के बाद घुसपैठिए लोकल मदरसों को बेस कैंप की तरह इस्तेमाल करते हैं और वहीं परदस्तावेज बनाकर ये तय किया जाता है कि आगे किसे, कहां जाना है. ये बात पिछले साल खुद झारखंड स्पेशल ब्रांच ने एक लेटर जारी करते हुए कही थी. कई विभागों तक भेजा गया ये पत्र 'swarnimbharatnews.com' के हाथ भी लगा.

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विस्तार से पढ़ें :- इन रास्तों से सीमा लांघ रहे बांग्लादेशी घुसपैठिए, बॉर्डर पर बसा शख्स बोला- बेटी-बोटी सबका लेनदेन; फेक IDs पर होम मिनिस्ट्री ने निकाला लेटर

इसके अलावा,पिछले साल ही मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स ने एक चिट्ठी जारी की थी, जिसमें 120 से ज्यादा फेक पोर्टल्स और वेबसाइट्स के नाम थे, जो नकली बर्थ सर्टिफिकेट बना रही हैं.

इन वेबसाइट्स का URL सरकारी साइटोंसे मिलता-जुलता है ताकि किसी को शक न हो.

यहगोरखधंधा पकड़ में तब आया, जब खुद पाकुड़ जिला सदर अस्पताल के डॉक्टरों ने इसे लेकर केस दर्ज कराया कि उनके नाम पर फेक दस्तावेज जारी हो रहे हैं. अस्पताल के डॉक्टर अब भी परेशान हैं, लेकिन हार मानकर रिपोर्ट करना बंद कर चुके. अस्पताल में भी हमें कई फेक आईडी वाले कागज दिए गए.

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आखिर में घुसपैठ के मुद्दे पर हमारी पक्ष और विपक्ष दोनों के नेताओं से भी बातचीत हुई.

राजमहल विधायक अनंत ओझा घुसपैठ पर सबसे ज्यादा बात करने वाले नेताओं में रहे. वे कहते हैं- आज से नहीं, 90 के दशक से घुसपैठ जारी है. साल 1992 में तत्कालीन डीसी सुभाष शर्मा ने राज्य में 17 हजार से ज्यादा फेक वोटर आईडी की पहचान की थी. उन्हें निरस्त तो कर दिया गया, लेकिन उन नामों के पीछे छिपे चेहरे कहां गए, ये किसी को नहीं पता.

अब भी ये चल रहा है. पश्चिम बंगाल का कलियाचक इनका गढ़ है. साहिबगंज से मोबाइल चोरी होगा और 48 घंटों के भीतर उसकी लोकेशन बांग्लादेश बताने लगेगी. देशभर में सोना चोरी के लिंक कलियाचक से जुड़े हुए हैं. एक पूरा रैकेट ये काम कर रहा है. वो घुसपैठियों को राशन कार्ड, वोटर कार्ड दिलवाता है. जल्द ही वे स्थानीय चुनावों में किसी आदिवासी की ओट में लड़नेहैं और फिर लोकल बॉडी पर भीकब्जा जमा लेतेहैं.

सीएम हेमंत सोरेन तब जेल में थे. उनका पक्ष रखते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा के लीडर बसंत सोरेन कहते हैं- किसी बात में कोई सच्चाई नहीं! अब सीएम रिहा हो चुके.सत्ता में लौटकर वे ठीक यही बात दोहरा रहे हैं. रिपोर्ट के दौरान पाकुड़ से कांग्रेसी लीडर आलमगीर आलम से भी हमने संपर्क करना चाहा, लेकिन बातचीत का समय तय करने के बाद उनका मोबाइल बंद हो गया. इसके दो महीनों के भीतर हीवे मनी लॉन्ड्रिंग केस में गिरफ्तार हो गए.

(साथ में- दुमका से मृत्युंजय कुमार पांडे)

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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