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जब मैं मुश्किल से 15 साल का था, तब विवेकानंद मेरी जिंदगी में आए। उसके बाद, मेरे अंदर क्रांति हुई और सब कुछ उलट-पुलट हो गया। हालांकि यह स्वाभाविक था कि इसमें काफी वक्त लगा कि मैं उनके उपदेशों की अहमियत या उनके व्यक्तित्व की महानता की सराहना कर पाऊं। लेकिन शुरुआत में ही उनकी तस्वीरों और उपदेशों दोनों से, मेरे मन पर गहरा असर हो चुका था। विवेकानंद मेरे सामने एक पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के रूप में प्रकट हुए। जो अनसुलझे से सवाल मेरे मन में गाहे-बगाहे उठ रहे थे और जिनके वारे में मुझे वाद में साफ समझ पैदा हुई, उनका संतोषजनक समाधान मुझे विवेकानंद में मिला ।
अब तक मेरे प्रधानाध्यापक का व्यक्तित्व मेरा आदर्श था। पहले मैंने सोचा था कि मैं फिलॉसफी पढ़ेगा, जैसे उन्होंने पढ़ी थी और उनके कदमों पर चलूंगा। लेकिन अब मैंने उस मार्ग के बारे में सोचना शुरू कर दिया, जो विवेकानंद ने दिखाया था ।
विवेकानंद से मेरा ध्यान धीरे-धीरे उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की ओर गया। विवेकानंद ने भाषण दिए, चिट्ठियां लिखीं और ऐसी किताबें प्रकाशित कीं, जो आम आदमी को आसानी से मिल रहीथीं। लेकिन रामकृष्ण (जो लगभग अनपढ़ थे) ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने अपना जीवन जिया और यह दूसरों पर छोड़ दिया कि वे उसे कैसे समझें । फिर भी, उनके अनुयायियों ने जो किताबें या डायरी छपवाईं, वे मौजूद थीं । उन किताबों में उनसे बातचीत के माध्यम से उनके उपदेशों का सार दिया गया था।
इन किताबों का सबसे अहम तत्व उनका व्यावहारिक मार्गदर्शन था जो खासतौर पर चरित्र निर्माण और आध्यात्मिक उत्थान के बारे में था। वह लगातार यही बात दोहराते थे कि सिर्फ त्याग से ही आत्म-साक्षात्कार संभव है। पूर्ण आत्म-त्याग के बिना आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। उनके उपदेशों में कुछ भी नया नहीं था, वे भारतीय सभ्यता जितने ही पुराने थे क्योंकि उपनिषदों ने हजारों साल पहले यह सिखाया था कि सांसारिक इच्छाओं को त्याग कर ही जीवन में अमरता हासिल की जा सकती है।
लेकिन रामकृष्ण के कहने का असर ही अलग था। उसकी प्रभावशीलता इस तथ्य में दिखती थी कि उन्होंने जो उपदेश दिए, खुद उसे व्यावहारिक रूप से जिया। अनुयायियों के मुताबिक, उन्होंने आध्यात्मिक प्रगति की ऊंचाइयां हासिल की। रामकृष्ण के उपदेशों का सार यह था कि 'काम' और 'धन' का त्याग करो। यह दोहरा त्याग उनके लिए किसी भी शख्स के आध्यात्मिक जीवन की योग्यता की कसौटी थी। 'काम' पर पूर्ण विजय का मतलब यौन प्रवृत्ति को स्वीकार्य गतिविधियों में बदलना था, जिससे पुरुष हर स्त्री को मां के रूप में देख सके।
जल्द ही मैंने कुछ ऐसे दोस्तों का ग्रुप तैयार कर लिया जो रामकृष्ण और विवेकानंद को पसंद करने लगे थे। स्कूल या उससे बाहर, जब भी मौका मिलता तो हम किसी दूसरे मुद्दे पर चर्चा नहीं करते थे। धीरे-धीरे, हम पैदल भ्रमण करने लगे और लंबी यात्राओं पर जाने लगे। इससे हमें मिलने और चर्चा करने के ज्यादा मौके मिले। हमारा ग्रुप बड़ा होने लगा। हमें एक ऐसे युवा छात्र के रूप में एक स्वागत योग्य सदस्य मिला, जिसका मन आध्यात्मिकता की ओर झुका हुआ था और जो गहरे हमने धीरे-धीरे घर और बाहर के लोगों का ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया। यह होना ही था क्योंकि हमारा रवैया अजीब था।
स्टूडेंट्स ने हमारा मजाक उड़ाने की हिम्मत नहीं की क्योंकि हमारे कुछ साथी स्कूल में टॉप पर थे और हमारी इज्जत भी खूब थी। लेकिन घर पर ऐसा नहीं था। मेरे माता-पिता ने जल्द ही नोटिस कर लिया कि मैं अक्सर दूसरे लड़कों के साथ बाहर जाता हूं। मुझसे सवाल पूछे गए, दोस्ताना तरीके से चेतावनी दी गई और आखिर में डांट-फटकार भी की गई। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ । मैं तेजी से बदल रहा था और अब मैं पहले जैसा आज्ञाकारी लड़का नहीं रहा जो अपने पैरंट्स को नाराज़ करने से डरता हो ।
अब मेरे सामने एक नया आदर्श था, जिसने मेरी आत्मा को प्रेरित कर दिया था- अपनी मुक्ति को पाना, सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करना और बेकार के बंधनों से मुक्त होकर मानवता की सेवा करना । मैंने संस्कृत के वे श्लोक बोलने बंद कर दिए जो सिखाते थे कि माता- पिता के आज्ञाकारी बनो। इसके बजाय, मैंने ऐसे श्लोक चुने जो विद्रोह की प्रेरणा देते थे ।
मुझे नहीं लगता कि मेरी जिंदगी में इससे ज्यादा मुश्किल दौर कोई दूसरा रहा हो । रामकृष्ण का त्याग और पवित्रता का आदर्श मेरे भीतर की कमजोरियों के साथ एक बड़ी लड़ाई को आमंत्रित करता था । विवेकानंद का आदर्श मुझे पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के खिलाफ लड़ाई में झोंक रहा था। मैं कमजोर था और यह लड़ाई मुश्किल व लंबी थी । इसमें कामयाबी पाना आसान नहीं था। इस वजह से तनाव और असंतोष के साथ-साथ डिप्रेशन के पल भी आते थे।
यह कहना मुश्किल है कि इस लड़ाई के किस पक्ष से ज्यादा दुख होता था - बाहरी या अंदरूनी । मुझसे ज्यादा मजबूत या कम संवेदनशील मन वाला शख्स इस लड़ाई से जल्दी निकल सकता था या शायद कम दुख झेलता। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था । मुझे वह सब झेलना था, जो मेरे भाग्य में लिखा था। जितना मेरे पैरंट्स मुझे रोकने की कोशिश करते, उतना ही मैं ज्यादा विद्रोही हो जाता। जब सारी कोशिशें नाकाम हो गईं तो मेरी मां ने आंसुओं का सहारा लिया। लेकिन इसका भी मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। मैं शायद सनकी और अपनी राह पर चलने को ज्यादा मजबूत बन गया था।
हालांकि, अंदर ही अंदर मैं दुखी महसूस कर रहा था। अपने पैरंट्स के खिलाफ इस तरह का विद्रोह करना मेरे स्वभाव के खिलाफ था और उन्हें दुख पहुंचाना मेरे लिए आसान नहीं था। लेकिन मैं किसी दूसरी ही धारा में बह रहा था। घर में मेरे सपनों और विचारों को समझने या सराहने की बहुत कम गुंजाइश थी। इससे मेरा दुख बढ़ गया । एकमात्र सांत्वना मुझे दोस्तों की संगति में मिलती थी और मैंने महसूस किया कि घर से दूर, मैं ज्यादा सुकून महसूस करता हूं।
('एक भारतीय तीर्थयात्री' से साभार)
अब तक मेरे प्रधानाध्यापक का व्यक्तित्व मेरा आदर्श था। पहले मैंने सोचा था कि मैं फिलॉसफी पढ़ेगा, जैसे उन्होंने पढ़ी थी और उनके कदमों पर चलूंगा। लेकिन अब मैंने उस मार्ग के बारे में सोचना शुरू कर दिया, जो विवेकानंद ने दिखाया था ।
विवेकानंद से मेरा ध्यान धीरे-धीरे उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की ओर गया। विवेकानंद ने भाषण दिए, चिट्ठियां लिखीं और ऐसी किताबें प्रकाशित कीं, जो आम आदमी को आसानी से मिल रहीथीं। लेकिन रामकृष्ण (जो लगभग अनपढ़ थे) ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने अपना जीवन जिया और यह दूसरों पर छोड़ दिया कि वे उसे कैसे समझें । फिर भी, उनके अनुयायियों ने जो किताबें या डायरी छपवाईं, वे मौजूद थीं । उन किताबों में उनसे बातचीत के माध्यम से उनके उपदेशों का सार दिया गया था।
इन किताबों का सबसे अहम तत्व उनका व्यावहारिक मार्गदर्शन था जो खासतौर पर चरित्र निर्माण और आध्यात्मिक उत्थान के बारे में था। वह लगातार यही बात दोहराते थे कि सिर्फ त्याग से ही आत्म-साक्षात्कार संभव है। पूर्ण आत्म-त्याग के बिना आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। उनके उपदेशों में कुछ भी नया नहीं था, वे भारतीय सभ्यता जितने ही पुराने थे क्योंकि उपनिषदों ने हजारों साल पहले यह सिखाया था कि सांसारिक इच्छाओं को त्याग कर ही जीवन में अमरता हासिल की जा सकती है।
लेकिन रामकृष्ण के कहने का असर ही अलग था। उसकी प्रभावशीलता इस तथ्य में दिखती थी कि उन्होंने जो उपदेश दिए, खुद उसे व्यावहारिक रूप से जिया। अनुयायियों के मुताबिक, उन्होंने आध्यात्मिक प्रगति की ऊंचाइयां हासिल की। रामकृष्ण के उपदेशों का सार यह था कि 'काम' और 'धन' का त्याग करो। यह दोहरा त्याग उनके लिए किसी भी शख्स के आध्यात्मिक जीवन की योग्यता की कसौटी थी। 'काम' पर पूर्ण विजय का मतलब यौन प्रवृत्ति को स्वीकार्य गतिविधियों में बदलना था, जिससे पुरुष हर स्त्री को मां के रूप में देख सके।
जल्द ही मैंने कुछ ऐसे दोस्तों का ग्रुप तैयार कर लिया जो रामकृष्ण और विवेकानंद को पसंद करने लगे थे। स्कूल या उससे बाहर, जब भी मौका मिलता तो हम किसी दूसरे मुद्दे पर चर्चा नहीं करते थे। धीरे-धीरे, हम पैदल भ्रमण करने लगे और लंबी यात्राओं पर जाने लगे। इससे हमें मिलने और चर्चा करने के ज्यादा मौके मिले। हमारा ग्रुप बड़ा होने लगा। हमें एक ऐसे युवा छात्र के रूप में एक स्वागत योग्य सदस्य मिला, जिसका मन आध्यात्मिकता की ओर झुका हुआ था और जो गहरे हमने धीरे-धीरे घर और बाहर के लोगों का ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया। यह होना ही था क्योंकि हमारा रवैया अजीब था।
स्टूडेंट्स ने हमारा मजाक उड़ाने की हिम्मत नहीं की क्योंकि हमारे कुछ साथी स्कूल में टॉप पर थे और हमारी इज्जत भी खूब थी। लेकिन घर पर ऐसा नहीं था। मेरे माता-पिता ने जल्द ही नोटिस कर लिया कि मैं अक्सर दूसरे लड़कों के साथ बाहर जाता हूं। मुझसे सवाल पूछे गए, दोस्ताना तरीके से चेतावनी दी गई और आखिर में डांट-फटकार भी की गई। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ । मैं तेजी से बदल रहा था और अब मैं पहले जैसा आज्ञाकारी लड़का नहीं रहा जो अपने पैरंट्स को नाराज़ करने से डरता हो ।
अब मेरे सामने एक नया आदर्श था, जिसने मेरी आत्मा को प्रेरित कर दिया था- अपनी मुक्ति को पाना, सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करना और बेकार के बंधनों से मुक्त होकर मानवता की सेवा करना । मैंने संस्कृत के वे श्लोक बोलने बंद कर दिए जो सिखाते थे कि माता- पिता के आज्ञाकारी बनो। इसके बजाय, मैंने ऐसे श्लोक चुने जो विद्रोह की प्रेरणा देते थे ।
मुझे नहीं लगता कि मेरी जिंदगी में इससे ज्यादा मुश्किल दौर कोई दूसरा रहा हो । रामकृष्ण का त्याग और पवित्रता का आदर्श मेरे भीतर की कमजोरियों के साथ एक बड़ी लड़ाई को आमंत्रित करता था । विवेकानंद का आदर्श मुझे पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के खिलाफ लड़ाई में झोंक रहा था। मैं कमजोर था और यह लड़ाई मुश्किल व लंबी थी । इसमें कामयाबी पाना आसान नहीं था। इस वजह से तनाव और असंतोष के साथ-साथ डिप्रेशन के पल भी आते थे।
यह कहना मुश्किल है कि इस लड़ाई के किस पक्ष से ज्यादा दुख होता था - बाहरी या अंदरूनी । मुझसे ज्यादा मजबूत या कम संवेदनशील मन वाला शख्स इस लड़ाई से जल्दी निकल सकता था या शायद कम दुख झेलता। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था । मुझे वह सब झेलना था, जो मेरे भाग्य में लिखा था। जितना मेरे पैरंट्स मुझे रोकने की कोशिश करते, उतना ही मैं ज्यादा विद्रोही हो जाता। जब सारी कोशिशें नाकाम हो गईं तो मेरी मां ने आंसुओं का सहारा लिया। लेकिन इसका भी मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। मैं शायद सनकी और अपनी राह पर चलने को ज्यादा मजबूत बन गया था।
हालांकि, अंदर ही अंदर मैं दुखी महसूस कर रहा था। अपने पैरंट्स के खिलाफ इस तरह का विद्रोह करना मेरे स्वभाव के खिलाफ था और उन्हें दुख पहुंचाना मेरे लिए आसान नहीं था। लेकिन मैं किसी दूसरी ही धारा में बह रहा था। घर में मेरे सपनों और विचारों को समझने या सराहने की बहुत कम गुंजाइश थी। इससे मेरा दुख बढ़ गया । एकमात्र सांत्वना मुझे दोस्तों की संगति में मिलती थी और मैंने महसूस किया कि घर से दूर, मैं ज्यादा सुकून महसूस करता हूं।
('एक भारतीय तीर्थयात्री' से साभार)
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