Sahitya AajTak 2024- कविता बोलेगी, बात खोलेगी... सत्र में लेखक और कवियों ने बांधा समां

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Sahitya AajTak 2024:साहित्य के सितारों की सबसे बड़ी महफिल ' साहित्य आजतक 2024' का आज दूसरा दिन है. लगातार दूसरे दिन भी दिग्गज कलाकारों, लेखकों, इतिहासकारों और कवियों ने अलग-अलग कार्यक्रम में समां बाधां. 'कविता बोलेगी... बात खोलेगी...' सत्र में भी कवियों और लेखकों ने मंच साझा किया.

'कविता बोलेगी... बात खोलेगी...' सत्र में नरेश सक्सेना (लेखक, कवि, पहल सम्मान, शमशेर सम्मान और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के प्राप्तकर्ता),अरुण कमल (लेखक, कवि एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता) औरमदन कश्यप (लेखक, कवि और केदार, शमशेर और नागार्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता) मेहमान बनकर साहित्य आजतक के कार्यक्रम मेंशामिल हुए. इस सेशन को aajtaj.in के वरिष्ठ साथीजय प्रकाश पांडेयने मॉडरेट किया.

कवि नरेश सक्शेना ने अपनी कविता से 'कविता बोलेगी, बात खोलेगी' से सत्र की शुरुआत की.

इस बारिश में...

जिसके पास चली गई मेरी ज़मीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गई

अब जो घिरती हैं काली घटाएं
उसी के लिए घिरती है
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती हैं
धरती के सीने से सोंधी सुगन्ध

अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नही
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूंद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं,
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए

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जिसकी नहीं कोई ज़ामीन
उसका नहीं कोई आसमान

शिशु

शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है,
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
समझता है सबकी भाषा
सभी के अल्ले ले ले ले,
तुम्हारे वेद पुराण कुरान
अभी वह व्यर्थ समझता है
अभी वह अर्थ समझता है
समझने में उसको, तुम हो
कितने असमर्थ, समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
उसी से है, जो है आशा

इस बीच कवि मदन कश्यप ने राजाओं के दरबारी कवि और आज के नौकरशाही कवियों पर भी टिप्पणी की. उन्होंने कहा, 'हमारी परंपरा में दबावों में जो कवि हुए जिन्हें राजा का दरबारी कहा जाता था वो राजा के पास कविता सुनता थे, उन्होंने भी कई बार सामान्य जन के दु:ख-दर्द को अपनी कविता के माध्यम से राजा के दरबारों में सुनाया. राजा का प्रतिकार भले न किया हो लेकिन जीवन के दर्द को सुनाया. अब नौकरशाही के दौर में नौकरशाह कवियों ने सरकार की बातों को जनता तक पहुंचाया है. सरकार के दमन को भी महिमामंडित करते हुए पहुंचाया है.'

कोरोना के समय में आप किसी को छू नहीं सकते थे. स्पर्श के प्रतिबंध को पर मदन कश्यप नेकविता सुनाई जिसका शीर्षक है-

चाहता हूं...

तुम्हारे प्रशस्तकटि प्रदेश को बाहों में समेटे हुए
सो जाना चाहता हूं चिर निंद्रा में,
चाहता हूं मौत आए तो इतनी चुपचाप आए कि,
तुम मेरे बालों में अंगुलिया फिराती रहो
और काफी देर तक पता ही न चले कि मैं जा चुका हूं,
मरने के बाद भी तुम मुझे इसी तरह छूना,
ऐसे ही पलके झुकाकर शर्माना और मुंह फेरकर मुस्कराना
चाहता हूं मेरा सबकुछ इस तरह तुम्हें मिल जाए
कि मृत्यु को कुछ मिले ही नहीं.
कहीं नहीं जाऊंगा, रहूंगा तुम्हारे ही भीतर,
तुम्हारे तुम में विलीन होकर,
तुम जाना समुद्र के उसी तट पर
जहां कई दिन तक हम साथ-साथ घूमते रहे,
बिना किसी का हाथ थामे चढ़ जाना उसी चट्टान पर,
मैं रहूंगा न तुम्हारे भीतर तुम्हें थामे हुए,
बालू पर खोजना मेरे पांव के निशान,
लहरेंभला क्या मिटा सकेंगी उन्हें,
जो अब मिट भी गए हों तुम्हारी यादों में तो होंगे,
मैं कहीं नहीं जाऊंगा, तुम्हारी आत्मा में एक छूअन की तरह रहूंगा
अंत:स्थलमें हो रही तेज बौछारों में भीगता हुआ

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तुम्हारा स्पर्श
एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था, कि जिससे होती थी ईश्वर के होने की अनुभूति,
कोरोना ने मुझे निरीश्वर कर दिया.

नरेश सक्सेना की कविताखो गया है

नदी भी है और गांव भी है
बस घाट कहीं खो गया है,
दूर-दूर रहने या डूब-डूब जाने से अलग
एक शीतल स्पर्श का बाट कहीं खो गया है
लहरें उठ रही हैं, सगन छाया भी वृक्ष की हैं
खाटे बिछी हैं, बस हलचल जीवन की कहीं दूर दूर तक नहीं है
बिना जिसके समय का ठाठ कहीं खो गया है,
नदी भी है और गांव भी है, बस गांव कहीं खो गया है.

दरवाजा

दरवाजा बारिश में भीगा फूल गया है
कभी पेड़ था हम समझे थे भूल गया है
अब न चौखटे में अपने फिट बैठ रहा है
इतनी कीलें ठुकी हुईं पर ऐंठ रहा है
बारिश छूने ज्यों कुछ बाहर झूल गया है
कभी पेड़ था हम समझे थे भूल गया है…
दरवाजा बारिश में भीगा फूल गया है

मछलियां

मछलियों को लगता था
कि जैसे वे तड़पती हैं पानी के लिए
पानी भी उनके लिए तड़पता होगा
लेकिन जब खींचा जाता है जाल
तो पानी मछलियों को छोड़कर
जाल से निकल भागता है
पानी मछलियों का देश है
लेकिन मछलियां
अपने देश के बारे में कुछ नहीं जानतीं…

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पार

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना

नदी में धंसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता

नदी में धंसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ़ लोहा-लंगड़ पार होता है

कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धंसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है

मदन कश्यप की कविता
संकट

अक्सर ताला उसकी
ज़बान पर लगा होता है
जो बहुत ज़्यादा सोचता है

जो बहुत बोलता है
उसके दिमाग पर
ताला लगा होता है

संकट तब बढ़ जाता है
जब चुप्पा आदमी
इतना चुप हो जाए कि
सोचना छोड़ दे
और बोलने वाला
ऐसा शोर मचाए कि
उसकी भाषा से
विचार ही नहीं,
शब्द भी गुम हो जाएं

फिर लोकतन्त्र

बिकता सबकुछ है
बस खरीदने का सलीका आना चाहिए
इसी उद्दण्ड विश्वास के साथ
लोकतन्त्र लोकतन्त्र चिल्लाता है अभद्र सौदागर

सबसे पहले और सस्ते
जनता बिकेगी
और जो न बिकी तो चुने हुए बेशर्म प्रतिनिधि बिकेंगे
यदि वे भी नहीं बिके तो नेता सहित पूरी पार्टी बिक जाएगी
सौदा किसी भी स्तर पर हो सकता है

नैतिकता का क्या
उसे तो पहले ही
तड़ीपार किया जा चुका है
फिर भी ज़रूरत पड़ी तो थोड़ा वह भी खरीद लाएँगे बाज़ार से
और शर्मीली ईमानदारी
यह जितनी महँगी है
उतनी ही सस्ती
पाँच साल में तीन सौ प्रतिशत बाप की ईमानदारी बढ़ गयी
बेटे की तो पूछो ही मत

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सबसे सस्ता बिकता है धर्म
लेकिन उससे मिलती है इतनी प्रचुर राशि
कि कुछ भी खरीदा जा सकता है
यानी लोकतन्त्र भी

तब भी बचा रहेगा यह देश

एक दिन तुम नहीं रहोगे
तब भी बचा रहेगा यह देश,
खत्म इसे भला क्या कर पाओगे
खत्म तो तुम खुद हो जाओगे,
कैसे मरोगे?


दुश्मनों की फौज से घिरने के बाद
आत्महत्या कर लोगे?
या प्रतिद्वंदीकी जेल में आखिरी सांस लोगे?
जनता तुम्हें सड़कों पर दौड़ाएगी
अथवा किसी विमान दुर्घटना के बाद
एक टूटे दांत से पहचाना जाएगा


नहीं पता, हम तो मरने के बाद भी तुम्हें
बस तुम्हारे चहकते झूठ से ही पहचानेंगे.
मैंने जले हुए मकान की भीतरी दीवार पर
दस साल बाद भी बची हुई कालिख में
तुम्हारा चेहरा देखा था


मेरे लिएवही तुम्हारा पहला और आखिरी चेहरा था
जो तुम्हारे मरने के बाद भी दिखता रहेगा,
कोई नहीं मारेगा फिर भी तुम मर जाओगे
और अपूर्ण रह जाएगी देश को मार देने की दुश्कामना
बचा रहेगा तब भी यह देश भले ही थोड़ा आहत
किंच‍ितटूटा-फूटा, कुछ-कुछ लहुलुहान और हलकान
लेकिन थमेगी नहीं उसकी सांसे


एक दिन जयकारा बंद होगा, थालियां-तालियां भी शांत हो जाएंगी
सम्मोहन टूटेगा और खुद को ही घायल करने वाले लोग
लग जाएंगे वापस देश को बचाने में
किसान खेतों में लौटेंगे, फसलें लहलहाएंगी
निर्माण कारखानों में गूंजेंगे मशीनों के संगीत
रात होगी, इतना अंधेरा नहीं होगा
दिन होगा इतनी निराशा नहीं होगी

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धीरे-धीरे पटरी पर लौटेगा देश
प्रतिहिंसा से मुक्त होकर परंपरा को पहचानेंगे लोग
और इतिहास के खलनायकों के घरमें
एक पिंडी तुम्हारे नाम का भी बना देंगे
तब भी बचा रहेगा यह देश

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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