Sahitya AajTak 2024: साहित्य आजतक 2024 कार्यक्रम के दूसरे दिन भी अल्फाजों और सुरों का महाकुंभ जारी रहा. कलाकारों, लेखकों, कवियों, इतिहासकारों और अपने-अपने क्षेत्र के माहिर दिग्गजों से साहित्य आजतक का मंच गुलजार रहा. 'अनुभूति, वियोग और कविता' सत्र के लिए कवि और लेखक यतीन्द्र मिश्र, बाबुषा कोहली और निर्देश निधि ने अपनी रचनाओं से समय को अपने शब्दों में बांधा. उनकी कविताएं और रचनाएं आपको भी पसंद आएंगी, जो यहां पढ़ सकते हैं-
कवयित्री और लेखिकालवली गोस्वामी ने अपनी किताब 'पंखूडी की ढाल' की टाइटल कविता पढ़ी
ईश्वर के आंसू की दो बूंदे आसमान से एक साथ जमीन पर गिरीं,
इस तरह हम दोनों जन्मे,
ईश्वर से हम कभी पूछ नहीं पाए कि ये उसकी खुशी के आंसू थे या दुख के,
तुमने दूप की धार से काटा पत्थर,
पंखूड़ी की ढाल से रोक लिए सब नश्तर,
तुम्हारी आंखें जैसे मोची की आंखें थीं,
मोची हजार पैरों के बीच वह चाल पहचान लेता है जिसकी चप्पल टूटी हो,
तुमने मेरा टूटा हुआ मन पहचाना,
हम में कभी टकराव हो तो इतना हो जितना एक चिड़िया की उड़ान में शामिल नजदीक उगे दो पंखों में होता है,
एक गहरे चुंबन के दौरान दो प्रेमियों की जिव्हाओंमें होता है,
तुमसे मिलकर मैंने जाना कि कोई घाव हमेशा घाव नहीं रहना चाहता,
वोमरहम लगाने वाले की स्मृति में बदल जाना चाहता है.
डाकघर
दुनिया के तमाम डाकखाने प्रेम से चलते हैं और कचहरियां नफरत से,
कोई हैरत नहीं कि डाकघर कम होते गए और कचहरियां बढ़ती चली गईं,
हम दोनों रोज कम से कम एक चिट्ठी तो एक-दूसरे को लिख ही सकते हैं,
या तुम कभी-कभी कोई किताब भिजवाना.
बेटी पर लिखी कविता का अंश
तीसरे महीने तुमने पहली बार संवाद किया,
एक रात मेरे पेट में खूब तितलियां उड़ाई, बुलबुले बनाए,
किसी ने पहली बार भीतर से छूकर मुझे गुदगुदाया, मैं आधी रात उठकर हंस रही थी,
तुम्हें स्वाद महसूस होने लगा, तुम लड्डू खाने की जिद करती,
जिद पूरी होने तक खूब लात-घूसे चलाती,
नियम से रात दो बजे तक जागती, पूरी रात खेलकर सुबह सो जाती,
तुम्हें प्यास लगती तो अपनी नन्हीं जीभ से तुम गर्भाशयकी अंदरूनी दीवारें चाटती थी,
पूरी दुनियामहामारी से त्रस्त थी, हम दोनों के दिल मेरी देह में एक साथ धड़कते थे,
बिना शब्द, बिन आवाज तुम कहती
तुम एक सांस के लिए भी अकेली नहीं हो मां,
हर पल हम एक दूसरे के साथ हैं,
जीवन के हर दु:ख से बड़ा था मेरे भीतर पल रहा कुछ सेंटीमीटर का तुम्हारा नन्हा शरीर,
दुनिया का वेदांत तुम्हारे तलवों से छोटा था,
मैं तुम्हें गोद में लेकर चलती हूं, मुझे महसूस होता है,
घोरअंधियारे में मैंने बाहों एक कैंडिल थाम रखी है
मेरी कोख से पहले तुम मेरी इच्छाओं में आई
बाबुषा कोहली की कविताएं
प्रेम की गिलहरी दिल अखरोट से
मौत छू आने वाली औरतें
जीती हैं कम
जीने का स्वांग करती हैं ज़्यादा
मरने का स्वाद जीने नहीं देता
जीने की भूख मरने नहीं देती
कपड़े और मन बदलने के बीच बहुत तेज़ भागती है
उम्र कमबख्त !
प्रेम में सिर तक डूबने के बाद बच गयी औरत
अपने किरदार में इतनी पक्की हो जाती है
उबरती है कम
उबरी हुयी दिखती है ज़्यादा
उबरने में डूबी हुयी औरत खाना कम खाती है
पानी पीती है ज्यादा
सुनती कम है
ऊंची आवाज़ में बात करती है ज्यादा
गुस्सा कम करती है
माफ करती है ज्यादा
कहानियां कहती है ढेरों
मुश्किल जगहों के आसान पते बता देती है
घड़ी देखती है बहुत ज्यादा
कम भेजती है चिट्ठियां
पुरानी पढती है ज्यादा
समझती कम है
समझाती है ज्यादा
जो कहीं ज़िक्र हो जाए उस आदमी के नाम का
एकदम से चुप हो जाती है
उबरने में डूबी हुयी औरत
बैठना नहीं छोड़ती भगवान के पास
पूजती है कम कोसती है ज्यादा...
बच्चे बनाते हैं मिट्टी के घर
बच्चे बनाते हैं मिट्टी के घर
बूढ़े घर में मिट्टी ढूंढ़ते हैं
सभी घर मिट्टी के नहीं होते
मिट्टी के ऊपर सभी घर होते हैं
हर पंछी आकाश नहीं छू पाता
आकाश हर पंछी को छू सकता है
हर पेड़ पर नहीं पड़ती कुल्हाड़ी की मार
हर कुल्हाड़ी में रहता है थोड़ा पेड़
सभी स्त्रियां मां नहीं बन पातीं
न सभी माएं हो पातीं स्त्री
सभी पुरुष नहीं बन सकते पिता
पर सभी पुरुष हो सकते हैं मां.
कवयित्री और लेखिका निर्देश निधि की कविताएं
पंचतत्व
पंचतत्व ही तो थे मेरी निर्मिति के आधार
जल, वायु, अग्नि, धरती और आकाश
कहते हैं कि वे कभी चुकते नहीं
असंतुलित तो कभी होते ही नहीं
पर चुक रहे हैं तालाब
सूख रहीं हैं नदियां
सूख रहा है पंचतत्वों का मुखिया जल,
पसार रहा है अगन पाखी पर
घुट-घुट दम तोड़ रही है हवा
हृदयहीना हो रही धरा
लंपट हो रहा आकाश
मैं डरी सहमी-सी देख रही हूं
अपनी देह से बूंद-बूंद रिसता तत्व
कितनी भयावह दीख रही हूं मैं ख़ुद को,
सूखे अकड़े दंड-सी मात्र,
एक तत्व के बिना अधूरे तत्वों में,
क्या यूं ही झरने लगेंगे मेरी देह से एक-एक कर सब तत्व
और फिर मैं नहीं ले सकूंगी कोई भी आकार
आकार, जो होता है मुक्ति पथ का द्वार
भटकती फिरूंगी यूं ही निराकार
बात यहीं ख़त्म होती तो फिर भी ठीक था
पर पंचतत्व तो एक-एक कर
झरने लगेंगे सभी की देहों से
देखना एक दिन.
मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश निषेध की घटना पर निर्देश निधी की कविता-
हे शिव
मैं आश्वस्त हुई थी अपने अस्तित्व को लेकर,
सच कहूं तो बड़ा इतराई थी,
जब तुमने अपने तन में गूंथ लिया था चोटी की तरह,
आधी मैं तुम थी और आधे तुम मैं,
फूली नहीं समाई थी तुम्हारे सीने पर झूलते देख अपने मुंडो को,
सचमुच अलौकिक था तुम्हारा प्रेम,
यह जानते हुए भी कि मैं स्त्री थी और रजस्वला भी थी,
तुम ठीक से जानते थे मेरा रजस्वला होना धरती को उपहार था, वरदान था
वरना तुमसे बेहतर कौन जानता है संततिविहीन धरा का सच,
फिर क्या हुआ आकस्मात ही तुम पत्थर में परिवर्तित हो गए,
और तुम में गुथी हुई सी मैं निर्ममता से खींचकर छिटका दी गई तुमसे दूर,
अपवित्र रजस्वला कहकर खड़ी कर दी गई पर्वतों सी वर्जना पवित्र देवालयों के द्वारों पर
सदियों इस वर्जना का विष पीकर भी मैं चुप रही,
पर मेरी नई पीढ़ियों को मनाही है चुप्पियों से,
कहीं वे तुम्हारा ही तिरस्कार करने पर उतारू न हो जाएं,
हटाकर सकल वर्जनाएं अपना अस्तित्व बचाओ प्रभु
कवि और लेखक यतीन्द्र मिश्रा ने कार्यक्रम के दौरान 'सरोवर व्यथा', 'चूड़ामणि', 'मांड और अल्लाह जिलाई बाई' और 'मन की सांरगी' समेत कई कविताओं से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. यतीन्द्र मिश्रा की कविता 'मन की सारंगी' यहां पढ़ें-
मन की सारंगी
भीतर के दुख का घरा न बनाओ
हो सके तो पीड़ा को ठुमरी में गाओ
जाओ उस सितार के पास जिसके टूटे के तार को कसने वाला रूठ कर चला गया हो अपनी साधना से
थोड़ा ठहरों जराभर सुसताओ
बड़े जतन से एक बार फिर मन की सारंगी उठाओ
देखो बज सके एक बार फिर दर्द की रागनी
हो सके तो बचाओ भीतर इसके दुख को
भले ही उसे ठुमरी के नए चलन में गाओ.
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