नदी के कवि की दो किताबें- ‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूंगा’ और ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’

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‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूंगा’

आदिकाल से मनुष्य नदी की महत्ता से परिचित रहा है.सभ्यताओं के उन्नयन में नदियों की भूमिका और उनके योगदान को समझना कठिन नहीं है. नदी से अपने पुरखों जैसे जुड़ाव के कारण ही मनुष्य उसे आदर की दृष्टि से देखता, स्तुति करताऔर पूजता भी आया है.युगों-युगों से चली आ रही इस परम्परा के कारण यह सम्बन्ध हमेशा प्रगाढ़ होता गया.परन्तु जनसंख्या विस्फोट से उत्पन्न विकारों के कारण यह सम्बन्ध विगत सौ वर्षों में बुरी तरह प्रभावित हुआ है.जब मनुष्य से मनुष्य का संबंध ही दांव पर लगा हो तो शेष संबंधों की ओर ध्यान जाए भी कैसे? नदी की तरह ही कविता भी प्राचीन काल से मनुष्य को अपने जादुई प्रभाव से मुग्ध करती आई है। मनुष्यता के विकास को गति प्रदान करने में कविता अग्रणी रही है। वर्तमान में नदी तो संकट में है ही कई विद्वानों की मान्यता है कि कविता भी संकट में है। क्या इसका कारण यह है कि जो भी तरलता मनुष्यता और प्रकृति में थी वही संकट में है?

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book on river

डॉ. सुधीर आज़ाद का यह कविता संग्रह ऐसे संकटग्रस्त समय में नदी और कविता दोनों के लिए नई आशाओं और संभावनाओं का सूत्रपात करता हुआ प्रतीत होता है। इस संग्रह की विषयवस्तु में नदी की सांस्कृतिक धरोहरों से लेकर वर्तमान की विषम परिस्थितियों से उत्पन्न चुनौतियाँ सम्मिलित हैं। सुधीर आज़ाद ने पौराणिक आख्यानों और प्रचलित मान्यताओं को अपनी कविता के मूल में रखकर वर्तमान परिदृश्य में उसके आलोक के महत्त्व को पुनर्स्थापित करने की चेष्टा की है। वे इस प्रयास में सफल भी होते प्रतीत होते हैं। इस संग्रह में तमसा, अनोमा, बाणगंगा, चम्बल, नर्मदा, गंगा आदि भारतीय नदियों के साथ विदेशी नदियों तक का उल्लेख हुआ है। तमसा नदी जिसके किनारे राम ने वनवास की पहली रात्रि बिताई थी; 'तमसा' नामक नदी के बारे लिखी कविता में वह कहते हैं-

‘’अपने तट पर
मर्यादा पथिकों की
पहली रात एक नदी ने ही देखी थी
और राम को राम बनते देखा था’’

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एक अन्य कविता में वे कहते हैं -

‘’सीता और तमसा
दोनों स्त्री हैं
दुर्भाग्य दोनों को साथ लाया
सीता आज भी स्मृतियों का हिस्सा है
तमसा नहीं है’’

नदी और नारी के अस्तित्व और मानसिकता को भारतवर्ष में प्रायः एक से आदर भाव से देखा जाता है। नदियों को माँ कहकर पुकारने की परंपरा है। इस संग्रह में नदी और नारी दोनों की दशा को कविता नए दृष्टिकोण से देखती है। "नदी और लड़की" ,"हर नदी एक स्त्री है","घर में नदी", 'लड़की और औरत :नदी" आदि कविताएँ अपनी मार्मिक अभिव्यक्ति से हमें झकझोर देती हैं ।एक कविता का अंश देखिए

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‘’हर घर मे एक नदी रहती है
जिससे पूछे बिना
बना दी जाती हैं उसके लिए योजनाएं’'

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इस संग्रह को पढ़ते हुए यह सुखद अनुभूति होती है कि आज का कवि नदी के पक्ष में अपने माध्यम से संघर्ष करने के लिए कटिबद्ध है और अपने इस प्रयास से वह इस समय की चेतना का नया दस्तावेज़ तैयार करता प्रतीत होता है ।कवि आपको नदी से जोड़कर तमाम उन संघर्षरत नारियों के दुखों और विडम्बनाओं से जोड़ता है जो सामाजिक विसंगतियों से उत्पन्न हुई हैं। "स्मृति" नामक कविता देखिए-

‘’नदियाँ विस्मृतियो के स्मृति चिन्ह हैं
लेकिन अफसोस
कुछ नदियाँ अपनी स्मृति खो चुकी हैं’’

इस संग्रह में छोटी कविताएँ भी प्रभावपूर्ण बन पड़ी हैं और अपने ध्येय में सफल हैं। छोटी कविताओं के साथ यह सुविधा होती है कि आसानी से उद्धृत की जा सकती हैं। "देवी" शीर्षक से यह कविता देखिए-

‘’नदी देवी है
और देवी के मानवीय अधिकार नहीं होते
नदी माँ है
और माँ का वसीयत में नाम नहीं होता’’


यह अन्य कविताएँ देखिए-

“संसार का सबसे सुरीला संगीत
वो चट्टानें सुनती हैं,
जो नदियों के पास होती हैं!’’

‘’दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत रास्ते वे हैं
जिन रास्तों से होकर नदी गुज़रती है!/
एक नदी मेरे भीतर से भी गुज़रती है
वह तुम हो!’’

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‘’सांप की तरह चलने वाली नदी
गाय की तरह होती है
और गाय की तरह दिखने वाला मनुष्य
सांप की तरह होता है।”

सुधीर आज़ाद के यहांविषयवस्तु , शब्दचयन और वाक्य विन्यास, ये सभी अपने श्रेष्ठ रूप में उपस्थित हैं। इन की कविताएँ पढ़ते हुए आप कई बार स्वयं के अनुभव संसार में लौटने और उस पर नए दृष्टिकोण से विचार करने पर विवश हो जाते हैं।

इससे पहले भी नदी को केंद्र में रखकर कविताएँ और कविता संग्रह आए हैं लेकिन जो आवेग, आवेश और रंग इन कविताओं में आया है वह अपूर्व है।

सुधीर आज़ाद मूलतः फ़िल्मकार हैं और उनकी कविताओं में भी चित्रात्मकता दिखाई पड़ती है। उनके शब्दों से रंग और छवियाँ निर्मित होती प्रतीत होती हैं।

कुछ उदाहरण देखिए-

"नावें
नदी की धाराओं पर फूलों के जैसी रहती हैं
और जिन बेलों पर फूल नहीं खिलते
उदास रहती हैं ! "

"…नदी का स्वभाव है बहना
नदी का पानी ठहर भी जाए तो
नदी ख़ुद अपने भीतर बहती है
और फिर नदी के ठहरे हुए पानी में
परछाइयाँ बहती हैं"

मुझे पूरा विश्वास है कि डॉ. सुधीर आज़ाद का यह संग्रह वर्तमान काव्य प्रेमियों को अपने कथ्य और शैलीगत विशेषताओं के कारण बहुत आत्मीय और आकर्षक प्रतीत होगा। यह एक महत्त्वपूर्ण संग्रह है जिससे समकालीन कवि और आलोचक भी प्रभावित होंगे।
सुधीर आज़ाद ने भारतीय ज्ञानपीठ और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित नदियों पर आधारित अपने काव्य-संग्रह ‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा’ पर सुधीर आज़ाद कहते हैं कि यह किताब मनुष्य की नदियों को आश्वस्ति है। उन्होंने बताया कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, पौराणिक, सामाजिक, पर्यावरणीय एवं आर्थिक संदर्भ लिए इस संग्रह की कविताओं में नदी का गौरवशाली अतीत, दयनीय वर्तमान एवं काँपता हुआ यथार्थ चित्रित है। लेकिन इन सब के बीच कविताओं का स्वर और संदेश पूर्णतः सकारात्मक है कि ‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा।’ सुधीर आज़ाद कहते हैं कि यह ‘मैं’ मैं हूँ आप सब हैं।
ज्ञात हो कि डॉ. सुधीर आज़ाद का यह काव्य संग्रह हिन्दी साहित्य का पहला काव्य-संग्रह हैं जिसकी सारी कविताएँ नदियों पर आधारित हैं। इस पुस्तक की कामयाबी यह है कि इसका बुन्देली, बंगाली अंग्रेज़ी एवं अरेबिक में ट्रांसलेशन हो रहा है।

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‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’

हमारी पर्यावरणीय आस्था और प्रतिबद्धता को प्रतिध्वनित करता है एवं भारतीय सांस्कृतिक दृष्टिकोण का मानवीय दर्शन प्रस्तुत करता है। यह बताता है कि भारतीय चिंतन प्रकृति से जुड़ा है। हमारा यह विश्वास रहा है कि किसी भी किस्म की रचनात्मकता या सृजनात्मकता का आधार प्रकृति ही है। कलात्मक अभिव्यक्ति का भावात्मक और विचारात्मक सौन्दर्य प्रकृति आयातित ही है. ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ इसी भाव की पूर्ति का उपक्रम है। किसी मनुष्य में सत्य, प्रेम, परोपकार और शांति का भाव स्थायी हो जाना उसका पेड़ हो जाना। इसलिए ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ उसकी मनुष्यता के विकास का चरम है।

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इस संग्रह की कविताओं में पेड़ों का दार्शनिक, आध्यात्मिक, जैविक एवं सामाजिक संदर्भ तो है ही साथ ही मनुष्य के पर्यावरणीय कर्तव्यबोध की प्रतिबद्धता का उद्घोष भी है; जो इस बात को प्रतिध्वनित करता है कि मनुष्य की मनुष्यता तब तक ही बची रह सकती है जब तक पेड़ बचे रहेंगे। ‘पेड़ और मनुष्यता’ कविता इसी भाव की अभिव्यक्ति है-

पेड़ों को बचाना
मनुष्यता को बचाना है
और मनुष्यता का बच जाना ही
ब्रम्हांड का कल है।

‘क़ब्रगाह!’ नामक कविता में सुधीर आज़ाद आज को चेताते हैं कि पेड़ों के कटने की शर्त में सारे निर्माण व्यर्थ हैं।

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‘नयी बस्तियों की बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स
और वहाँ बानए जा रहे नए मकानों के निर्माण की शर्त
यदि पेड़ और खेत हैं
तो हम
आने वाली नस्लों की क़ब्रगाह बना रहे हैं
नई बस्तियाँ नहीं।’

book on tree

यह संग्रह नए बिंबों के माध्यम से आपको समय से परिचित कराता है एवं इस बात को रेखांकित करता है कि पेड़ इस ब्रम्हांड के मूल निवासी हैं। हमारे सबसे पुराने पुरखे, पेड़ हैं। पेड़ धरती पर सर्वाधिक पुराने जीवन साक्ष्य हैं।‘समय!’ कविता में आज़ाद इसी आशय का सजीव बिम्ब खींचते हैं।

कितने चित्रों में बताते हैं वर्तमान
कई बिंबों में भरे हैं अतीत
और कई प्रतीकों में दिखता है भविष्य
सदैव समय को गहरे
और सच्चे अर्थ दिए हैं पेड़ों ने
दरअसल पेड़
मनुष्य की सभ्यता के विकास और विनाश
दोनों के मापदंड हैं।

किताब के आत्मकथ्य में सुधीर आज़ाद ने लिखा है कि – ‘‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ में मैं स्पष्ट रूप से यह कहना चाहता हूँ कि प्रकृति संरक्षण का विचार हमारी जीवनशैली में समाहित होना चाहिए। हमें अपनी नयी पीढ़ी को पेड़, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। संवेदनाओं के इसी संबंध से हम अपनी प्रकृति को उसके सुंदरतम रूप में वापस ला सकेंगे।‘

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नदियों के पुत्र हैं पेड़। पहाड़ों के मित्र हैं पेड़ और इस ब्रम्हांड के सबसे सुंदर चित्र हैं पेड़। ‘आर्टिस्ट!’ कविता में इस मासूम एहसास को सुधीर आज़ाद ने बेहद खूबसूरती से कहा है-

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अनगिनत पेड़ों को काटने के बाद
मकान बना लेते हैं हम
लेकिन उस मकान को घर बनाने के लिए
बनानी होती हैं क्यारियाँ
लगाने पड़ते हैं कुछ पौधे।

सच तो यह है कि
पेड़ हमारी आत्मा के स्तम्भ हैं
और अब आत्मा जैसा अगर
किसी मनुष्य में कुछ बाक़ी है
तो वह एक आर्टिस्ट ही है

इसलिए किसी भी कैनवास पर
कोई भी घर बनाते समय
आर्टिस्ट एक पेड़ बना देता है अनायास ।
थोड़ी-सी भी आत्मा अगर जीवित है
तो वह पेड़ों के बिना सांस नहीं ले सकती।

पेड़ों के देवत्व एवं दिव्यत्व की अनुभूति हमारी आस्थाओं के अस्तित्व का आधार है। वृक्षों की जितनी महिमा-गरिमा का उल्लेख जितना भारतीय संस्कृति में है, विश्व में अन्यत्र असंभव ही है।भारतीय सांस्कृतिक जीवन में धर्म एवं प्रकृति के संयोग एवं संबंध का चिंतन भारतीय ज्ञान परंपरा ने स्थायी रूप से समाहित किया है। पेड़ और पाषाण में परमात्मा के दर्शन कराने वाली भारतीय ज्ञान परंपरा ने धर्म में प्रकृति की वंदना को दृढ़ता के साथ स्थापित किया है। लेकिन विडंबना है कि हमने यह भुला दिया है और अपनी स्वार्थ की वेदी पर प्रकृति को होम करने में तुले हुए हैं। हमारा अपनी प्रकृति के साथ समवेदनाओं का नहीं बल्कि आवश्यकता का संबंध ही बाकी है।

‘हरा’ कविता में सुधीर आज़ाद ने बहुत स्पष्टता के साथ यह प्रस्तुत किया है-

‘मनुष्य के दिखावों ने
मनुष्यता को हरा दिया है
वरना जितनी तख्तियों पर अब तक
पेड़ों को बचाने के लिए
नारे लिखे गए हैं
उतने पौधे लगे होते तो
सारा ब्रम्हांड हरा हो जाता।’

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‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा’ नदियों पर आधारित काव्य-संग्रह के बाद पेड़ों पर आधारित काव्य-संग्रह ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’; सुधीर आज़ाद के कविकर्म की प्रासंगिकता और उनके मानवीय चिंतन के दस्तावेज़ हैं। आज जब स्वांत सुखाए और आत्मकेंद्रण की कविताएँ लिखी जा रही हैं। ऐसे समय में नदी और पेड़ों पर आधारित काव्य-संग्रहों का आना सुधीर आज़ाद के भीतर के कवि की अनिवार्यता बताता है। ‘मनुष्य!’ कविता बहुत चुपचाप हमें यह बताया देती है कि आवश्यक क्या है-

‘जंगल के कानून’ से
नहीं बच सकते जंगल
जंगल बचाने के लिए
हमें फिर से मनुष्य बनना होगा!’

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‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ में आज़ाद की यह छोटी-सी कविता ‘वृक्ष की पीड़ा!’ सब कुछ कह जाती है-

वृक्ष अपनी पीड़ा संस्कृत में कहते हैं
और हम इक्कीसवीं सदी में रहते हैं।

आखिर में यही कि सहज शब्दावली, आम ज़िंदगी के तजुर्बों और सच्चाईयों से भारी इस किताब की शैली आपकी और हमारी भाषा शैली है। साफ़ और सीधा कहने का माद्दा कविताओं की सबसे बड़ी ताक़त है।‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा’ नदियों पर आधारित काव्य-संग्रह के बाद पेड़ों पर आधारित काव्य-संग्रह ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’; सुधीर आज़ाद के कविकर्म की प्रासंगिकता और उनके मानवीय चिंतन के दस्तावेज़ हैं। आज जब स्वांत सुखाए और आत्मकेंद्रण की कविताएँ लिखी जा रही हैं। ऐसे समय में नदी और पेड़ों पर आधारित काव्य-संग्रहों का आना सुधीर आज़ाद के भीतर के कवि की अनिवार्यता बताता है। यह किताब पेड़ों को की तरह से अनुभूत करने और देखने-समझने का नजरिया देगी।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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