सियाह-नील-सुर्ख़- रंगों को कैसे जस्टिफ़ाई करती हैं भवेश दिलशाद की ग़ज़लें?

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(भवेश दिलशाद के ग़ज़ल संग्रहों की समालोचना सम्मानित कवि/अनुवादक/प्राध्यापक डॉ. मालिनी गौतम की नज़र से)

भवेश दिलशाद की ग़ज़लों की ट्रायोलॉजी 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' कुछ वक्त पहले पढ़ने का अवसर मिला. सबसे पहले जिस चीज़ ने मुझे आकर्षित किया वो थे इन किताबों के शीर्षक. तीन रंग सियाह, नील और सुर्ख़. जैसे यह एक यात्रा हो रंगों की जो क्रमशः पहले सफेद-काले और धूसर रंगों में खेल रही हो, फिर जीवन के कुछ और रंगों के घुलने-मिलने से कुछ और विराट होते हुए नील हुई और फिर अपने पूरे उफ़ान और शबाब में सुर्ख़ हुई. मेरे लिए यह एक बड़ी दिलचस्पी थी कि किस तरह ये तीनों शीर्षक अपने अंदर के सफ़हों पर लिखे हर हर्फ़ के सहारे खुद को जस्टिफाई करते हैं. शेक्सपियर भले कह गए हों कि What’s in a name? नाम में क्या रखा है? लेकिन मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि मैं इन नामों की गिरफ्त में ही पहले आई.

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इस युवा शाइर को मैं लंबे समय से जानती हूं एक ग़ज़लगो के रूप में भी और एक पत्रकार के रूप में भी और वक्त-वक्त पर उनकी कलम से रूबरू भी होती रही हूं लेकिन अपनी रचनाओं के प्रकाशन को लेकर या संग्रह निकालने को लेकर भवेश में कभी कोई जल्दबाज़ी मुझे नहीं दिखाई दी बल्कि यह कहूंगी कि उनके पिता कमलकांत सक्सेना साहित्य की जिस विरासत को छोड़कर गए थे उसे सहेजने के कुछ शुरुआती प्रयासों के बाद शायद भवेश के अंदर का लेखक कुछ चुप हो गया और दुनियादारी के झमेले कुछ वाचाल हो गए. भवेश जानते थे कि 'चुप रहा मैं तो ज़ात बिगड़ेगी/बोलने से भी बात बिगड़ेगी' ये भवेश का ही शेर है. तो अंततः यह शाइर बोलना ही पसंद करता है कि बात बिगड़े तो भले बिगड़े लेकिन खून में पिता की जो विरासत दौड़ रही है वह ज़ात नहीं बिगड़नी चाहिए और इस तरह हमें मिलते हैं ये तीन ग़ज़ल रंग जिनमें जीवन के सारे रंग मौजूद हैं.

यहां प्रकृति से प्रेम है तो इश्क में मिलन और विरह भी है. यहां हमारे समय की तमाम विद्रूपताओं और विडंबनाओं पर प्रहार है तो हमारे समय के कड़वे सच से दो-दो हाथ करने की हिम्मत भी. यहां अपने खुद के गिरेबां में झांकने की ख्वाहिश है तो जीवन से बेज़ारी भी है और यह सब होने के साथ-साथ भी जो बचा रह गया है वह है एक भोपाली मन और एक भोपाली अंदाज़. बात क्योंकि भोपाली अंदाज़ की चली है तो मैं आपको उनकी एक ग़ज़ल के शेर सुनाते चलूं-

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'जित्ती फेला रिया हूं जे दुनिया
उत्ती जगहों से फट रई हे खां'
'क्यूं सराफ़े में भाव घट रए हैं
क्या वो खुद में सिमट रई हे खां'

मेरे इस छोटे से वक्तव्य में मैं दो बातों को थोड़ा-सा किनारे रखते हुए चल रही हूं एक तो यह मुद्दा कि भवेश की ये ग़ज़लें उर्दू ग़ज़लें हैं या हिंदी ग़ज़लें. यकीनन इन ग़ज़लों में ऐसे तमाम शब्द हैं जिन्हें हम हिंदी में उस तरह से नहीं लिखते जैसे वे उर्दू में लिखे जाते हैं मसलन किर्दार, दर्या, सुब्ह और एक लंबी लिस्ट बन सकती है ऐसे शब्दों की, लेकिन इतने भर से मेरे लिए ये ग़ज़लें उर्दू ग़ज़लें नहीं हो जातीं या फिर ये ग़ज़लें अपनी काटदार बयानबाजी में दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परंपरा को आगे बढ़ाती हैं इसलिए ये हिंदी ग़ज़ल भी नहीं हो जाती. ये भवेश का अपना अंदाज़-ए-बयां है. ये भवेश की अपनी ग़ज़लें हैं जहां उर्दू की रवायत है, तहजीब है और हिंदी का मिज़ाज भी है. और सबसे बड़ी बात कि इन ग़ज़लों को समझने में हिंदी मिज़ाज या उर्दू शब्दों का होना कोई दिक्कत नहीं देता. इन ग़ज़लों की रूह तक हम ठीक-ठीक पहुंच पाते हैं.

इसी तरह अरूज़ को लेकर मैं कोई विशेष टिप्पणी नहीं करूंगी जिसके कारण हैं. पहला यह कि शाइरी के मैदान में उतरने से पहले भवेश ने ग़ज़ल की परंपरा का और ग़ज़ल के छंदशास्त्र का अच्छा-खासा अध्ययन किया है और यह भी कि मेरे विचार से अगर कहीं कोई भाव या ख़याल बेहतर प्रस्तुति के लिए कभी-कभार बह्र से बाहर निकल भी जाए तो 'हंगामा है क्यों बरपा' वाली बात नहीं होनी चाहिए. वैसे भी भवेश तो खुद ही कहते हैं - 'मेरी ग़ज़लें पढ़ते समय यह ध्यान रखा जाए कि आप शाइरी के बगीचे में नहीं बल्कि शाइरी के जंगल में हैं और बगीचे में जंगल नहीं पर जंगल में बगीचे मुमकिन हैं. बाकी जोखम आपका है' और यह जोखम मैंने भलीभांति कुछ इस तरह उठाया है.

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वर्तमान में हमारी ऋतुओं के समय चक्र बदलते जा रहे हैं. गर्मी ने हाहाकार मचाया हुआ है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं. जल किल्लत एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. पानी बोतलों में बिकता है लेकिन इससे भी खराब दिन आएंगे इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता. हम क्या कर रहे हैं इन संकटों से उबरने के लिए? सिर्फ़ बातें, मीटिंग्स और सभाएं लेकिन जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हो रहा है. तभी तो भवेश कहते हैं कि -

'गोलमेजें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा'

वाह! क्या शानदार कहन और अंदाज़ है. राजनीति में वादा और वादा-खिलाफ़ी ये दोनों साथ-साथ चलते हैं. कोई अच्छे दिनों का वादा करता है और फिर निभाता तक नहीं. भवेश इस व्यवस्था पर आक्रामक तरीके से चोट करना जानते हैं. जो सही है उसकी तारीफ और गलत का विरोध एक साहित्यकार का धर्म होता है. तभी तो वे कहते हैं कि-

'दे दे के ज़ख्म वो यूं बहलाए जा रहे हैं
थोड़ा सा और सहिए दिन अच्छे आ रहे हैं'

अच्छे दिनों पर ही एक और शेर देखें-

बुरा लगे न ज़रा भी हुजूरे-आली को
तसव्वुरात में भी अच्छे दिन ही लाये गये


वादे अक्सर इतने झूठे होते हैं कि सच्चा वादा एक ख़याल बनकर रह गया है

'इक तो वादा भी चाहिए तुमको
वादा सच्चा भी चाहिए तुमको'

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ये तेवर और उग्र दिखाई देते हैं जब भवेश कहते हैं

‘लाल किले ने हुक्म दिया है चौक की साफ़बयानी बंद
बुक्का फाड़ के रोया कोई उसका हुक्का पानी बंद’

यानी शासन का विरोध सत्ता का विरोध अगर कोई करेगा तो उसका जीना मुहाल कर दिया जाएगा. ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो आम आदमी के दिल तक पहुंचती है और यही कारण है कि हर व्यक्ति ग़ज़ल कहना चाहता है और उसे सीखने की कोशिश करता है. कोशिश करने में कोई बुराई नहीं लेकिन अपने लिखे हर कूड़ा-कचरे को ग़ज़ल कहकर परोस देने की प्रवृत्ति से इस विधा का बेहद नुकसान भी हो रहा है. ग़जल में तेवर चाहे आक्रामक हों या मुहब्बत से भरे हों, ग़ज़ल कहना कोई खाला का घर नहीं कि जिसने चाहा ग़ज़ल कह दी. ग़ज़ल किसी को सिखाई नहीं जाती. सीखकर दो और दो का जोड़ चार हो सकता है. मात्राओं के मेल से और तुक जोड़ने से ग़ज़ल नहीं बनती.

“मुहब्बत की सलाहीयत भी क्या सीखोगे मक्तब में
ग़ज़ल कहना ही क्यूं है जब मशीनी तौर पर कहना”

प्रेम और मोहब्बत करना भी किसी पाठशाला में नहीं सीखा जा सकता. इस भाव को समझाने के लिए इंसान का इंसान होना ज़रूरी है. मनुष्य खुद को इस सृष्टि में सभी प्राणियों से श्रेष्ठ समझकर अहंकार से भर गया है. जानवरों को हिकारत की नज़र से देखता है और उन्हें खतरनाक समझता हैं लेकिन भवेश कहते हैं कि –

“कहता है खतरनाक जो कुछ जानवरों को
उसने अभी इंसान की फ़ितरत नहीं देखी”

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इंसान की फ़ितरत तो कुछ ऐसी है कि-

“लगायी एक ने तापे हैं दूसरे ने हाथ
तमाशबीन कई हैं जिधर भी आग लगी”

लेकिन प्रेम और मुहब्बत की ऊर्जा से लबालब यह शाइर कभी-कभी इस दुनिया से बेज़ार और निराश भी नज़र आता है और उसे लगता है कि –

“बेमतलब की सारी बाजी, जीते-हारे कौन
झूठी सारी चालें, झूठी हर शह-मात लगे”

और फिर इसी निराशा में वो यह भी कह जाता है कि “यहां से गुजर जाएं क्या/ बचा क्या है मर जाएं क्या?” अपनी गजलों में खरी-खरी कहता यह शाइर धर्म जाति से परे होकर कबीर की तरह डंके की चोट पर भगवान को भी लताड़ लगाने से नहीं चूकता, कहता है

ये नफ़रत में मज़हब का मंज़र महादेव
ये अल्लाह ओ अकबर ये हर-हर महादेव
कुछ आंसू बहाओ या तांडव दिखाओ
बने मत रहो चिकने पत्थर महादेव


ये लताड़ सत्ता के सामने भी है. सत्ता ताकतवर होती है लेकिन ताकत का उपयोग दूसरे की रक्षा के लिए किया जाना चाहिए न कि किसी को हैरान-परेशान करने के लिए. आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है. ताकतवर अपनी ताकत के ज़ोर पर गरीबों और मज़लूमों पर जुल्म ढाते हैं. भवेश उन्हें भी आड़े हाथों लेते हुए कहते हैं _

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मज़लूम को पनाह में रखिए जहांपनाह
ताकत का इस्तेमाल यूं करिए जहांपनाह

पिता पर लिखी एक ग़ज़ल इस संग्रह का हासिल है. एक प्रयोग जिसका उल्लेख ब्रज श्रीवास्तव ने भी भूमिका में किया है, उसे देखिए -

एक अनारकली की खातिर जब मैं बन बैठा था सलीम
पूरी ठसक से बन बैठे थे मुग़ले-आज़म पापाजी
ऐसे अक्सर बंसी धुन थे या तबले की थाप कहो
लेकिन गुस्से में होते थे एक एटम बम पापाजी
पापाजी से कहना चाहा जाने मैंने कितनी बार
मुझमें ज्यादा हैं मम्मी जी उनसे कुछ कम पापाजी

काले और सफ़ेद के बीच जूझते भवेश के लिए ये नील रंग न जाने कितने मुसलसल दुखों के बीच से निकला हुआ रंग है और इसीलिए वे कहते हैं कि-

“ज़िन्दगी ये नील तेरे सिवा और किसी को देने का मुझे हक भी नहीं, यार मेरी! महबूब मेरी!”

क्योंकि –

“मिलती मुद्दत में है और पल में हंसी जाती है
ज़िन्दगी यूं ही कटी यूं ही कटी जाती है”
“आपकी याद भी है आपके ही जैसी बस
आ गई यूं ही अभी यूं ही अभी जाती है”

इस प्रेम ने शाइर को न जाने कितने रंग दिखाये हैं. वफ़ा के रंग, बेवफ़ाई के रंग, दुख दिये, जलन दी लेकिन किसी भी परिस्थिति में शाइर ने अपना किर्दार बचा लिया -

“जाँ जली दिल जला किर्दार नहीं जलने दिया
मुझमें से आने लगी अब तो हवन की ख़ुशबू”

“पानी बहता हुआ है अक्स बचा लो अपने
जिस सफ़र में भी हो किर्दार संभालो अपने

उसकी शाइरी का बस एक ही मक़सद है कि जो आग जो तपिश उसके सीने में है वह अवाम तक पहुंचे उसके बाद चाहे उसका नाम रहे या न रहे.

“मेरे दिल में जो आग है तुम तक पहुंची हो तो मुझे भुला दो अब
बातियाँ लौ अगर पकड़ लें तो तीलियाँ भी बुझाई जाती हैं”

क्योंकि मिलने के बाद बिछड़ने का दर्द बड़ा भयानक होता है

“वो अलग होते हैं बिछड़ के दो हाथ
देर तक अलविदा कहते दो हाथ”
टैटू दोनों की कलाई पर है
ब्लेड से प्यार खुरचते दो हाथ

भवेश के लिए ग़ज़ल कहना यानी सांसों की आवाजाही है और इसीलिए वो कहते हैं-

'हम कहेंगे ग़ज़ल और होंगे ग़ज़ल कह के उदास
कूज़ागर को भी सुना कूज़ागरी के ग़म हैं'

एक बड़ी दिलचस्प ग़ज़ल है इसमें जिसका रदीफ़ बड़ा विशेष है 'सनोरिटा' और इसे भवेश ने बड़ी ख़ूबसूरती से निभाया है. इसे हम आज के ज़माने का प्रयोग कह सकते हैं

“तुम्हारी फेसबुक तो देख ली देखा है इंस्टाग्राम
अब अपने दिल की पुस्तक भी तो पढ़वा दो सनोरिटा”
“न तुम रूसी न तुम जर्मन न लगती हो मुझे रोमन
कहाँ से आई हो कुछ मुझको समझा दो सनोरिटा”

सियाह और नील रंगों से होते हुए भवेश की ग़ज़ल उन तमाम अवरोधों और जंजीरों को तोड़ती हैं जिनमें ग़ज़ल कैद रही है और फिर उभर कर आता है सुर्ख़ रंग. लेकिन इस सुर्ख़ रंग को देखने के लिए नज़र का होना ज़रूरी है नहीं तो भवेश ये कहने से चूकेंगे नहीं कि –

“आईने ले के आए थे अंधों के शहर
अबकी जब आएँगे तो नज़र लाएँगे”

व्यंग्य का रंग भी बहुत सुर्ख़ है इन ग़ज़लों में –

“बोलो कि लोग खुश हैं यहाँ सब मज़े में हैं
ये मत कहो कि ज़िल्ले-इलाही नशे में है”

“हमारा मुल्क सबका था और अब भी गांव सबके हैं
मगर ये दिल्लियाँ कमबख्त हैं बस दिल्ली वालों की”

भवेश सिर्फ़ सुकून के लिए ग़ज़ल नहीं लिखते क्योंकि जब जीवन इतनी हलचलों से भरा हुआ हो तब सिर्फ़ सुकून कैसे लिखा जा सकता है और अगर सिर्फ़ सुकून लिखा तो पाठक यह कहने से नहीं चूकेगा कि

“ऊब रहे हैं पढ़ने वाले
तुमने सिर्फ़ सुकून लिखा है”

जीवन एक भटकाव है लोग भटकते हैं सच और झूठ के बीच, प्रेम और नफ़रत के बीच, गलत और सही के बीच, धर्म और धर्म के बीच जबकि जीवन की बुनियादी जरूरतें तो कुछ और ही हैं. जीवन की बुनियादी ज़रूरतों में भूख है, प्यास है, रोटी कपड़ा और मकान है. तभी तो वे कहते हैं कि

“मंदिर नहीं मियाँ किसी पनघट का दो पता
सदियों के प्यासे लोग हैं भटकाओ मत हमें”

अपनी जड़ों को पकड़कर रखने में भवेश विश्वास रखते हैं और तभी तो ये भोपाली न जाने कितने शहरों में घूम फिरकर फिर भोपाल लौट आया है और तभी ये कहता है –

“शहर बसाये जाएँ या शहर उजाड़े जाएँ
जड़ वाले अपनी जड़ों से न उखाड़ें जाएँ”

इस ग़ज़ल में ख़ास बात यह है कि यह दोहा छन्द की शर्त भी पूरी कर रहे मिसरों में कही गई है और इसमें ग़ज़ल की बह्र भी हर मिसरे में निभा ली गई है. कुछ दशकों पहले से दोहा ग़ज़ल के नाम पर जो प्रयोग हुआ था, वह बहुत शिथिल था. ज़्यादातर दोहे के ही मात्रा क्रम में सतही मिसरे लिखे जाते थे और हर पहले दोहे के हिसाब से मिसरा सानी के आख़िर में रदीफ़, काफ़िया मिलान कर दिए जाते थे, लेकिन भवेश दिलशाद का यह प्रयोग अलग है. इसमें दोहा का मात्रा विधान भी है और हर मिसरा ग़ज़ल के मीटर पर भी. यह सलीक़ा बहुत रियाज़ का काम लग रहा है. इस मुकम्मल दोहा ग़ज़ल में वह एक शेर यूं भी कहते हैं,

बोझ उदासी जो लगे, बोझ लगें जो साये
चेहरा पोंछा जाए ये कपड़े झाड़े जाएं

शाइर सिर्फ़ बोलना ही नहीं चाहता वह औरों को भी सुनना चाहता है. अपनी-अपनी हांकने वाले तो बहुत होते हैं लेकिन अच्छा श्रोता होना भी एक बड़ी कला है-

“इससे पहले जुबान चाहूं मैं
देख लेना मैं कान चाहूंगा”

आज के दौर में यह शेर और मौजूं हो जाता है जब वे कहते हैं कि-

“आप कीजे राजा की मंत्रियों की जय-जयकार
हम तो साफ़ कहते हैं ये अवाम ज़िन्दाबाद”

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय/ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय... इसी बात को वे एक अलग अंदाज़ में कहते हैं कि – “पढ़ायी जाएंगी कितनी किताबें/कोई तो अब किसी को दिल पढ़ाये’ और चलो एक बार फिर से अजनबी हो जाये हम दोनों... की तर्ज पर वो कहते हैं कि – “आ ही जाते हैं उसी मोड़ पर नाजुक रिश्ते/हाल पर उनके उन्हें छोड़ दिया जाए तो ठीक”. आज अवाम पस्त है त्रस्त है. इस नक्कारखाने में उसकी आवाज तूती की आवाज है. उसकी कोई कीमत नहीं है इसलिए भवेश कहते हैं

“बंधे नोटों की कीमत में नहीं चल पाएंगे दिलशाद
बस अब खुल्ले में चिल्लर में चलाये जाएंगे हम लोग”

मगर भवेश भाई असली खनक तो चिल्लर की ही होती है. भवेश दिलशाद का यह ग़ज़ल रंग ये ट्रायोलॉजी साहित्य जगत में खूब ज़ोर से खनके, इसकी आवाज़ और गूंज दूर-दूर तक पहुंचे यही उम्मीद यही कामना.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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