अरविंद केजरीवाल को दिल्ली चुनाव में भारी पड़ सकती हैं ये कमजोर कड़ियां | Opinion

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तिहाड़ जेल से छूटते ही अरविंद केजरीवाल कमान अपने हाथ में ले लेते हैं. जैसी सक्रियता हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली थी, लोकसभा चुनाव में अंतरिम जमानत पर रिहा होने के वक्त भी नजर आया था.

दिल्ली विधानसभा चुनाव तो अरविंद केजरीवाल के लिए 'करो या मरो' जैसा ही है. आम आदमी पार्टी नेता के कई मजबूत साथी उनका साथ छोड़ चुके हैं, और कुछ तो एग्जिट गेट के पास खड़े नजर आते हैं.

कैलाश गहलोत और स्वाति मालीवाल की नाराजगी कितनी असरदार होगी?

अव्वल तो अरविंद केजरीवाल के लिए उनके साथी बहुत मायने नहीं रखते, लेकिन ऐसी बातें देश, काल और परिस्थियों पर ही बहुत हद तक निर्भर करती है. बेशक शुरुआती दिनो में वो योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार जैसे साथियों को आम आदमी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन कालांतर में कुमार विश्वास, आशुतोष, कपिल मिश्रा और आशीष खेतान जैसे काम के आदमी भी साथ छोड़ते गये - लेकिन उनका चले जाना, और अब जबकि वो और उनके सबसे करीबी साथी मनीष सिसोदिया और संजय सिंह जैसे नेता दिल्ली शराब नीति केस जिसमें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, बहुत बड़ा फर्क है.

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कैलाश गहलोत तो ताजातरीन जख्म हैं, और वैसा ही घाव राज कुमार चौहान भी दे चुके हैं - लेकिन स्वाति मालीवाल का मामले को तो खुद अरविंद केजरीवाल ने ही मिसहैंडल किया है. बड़ी अजीब बात है, जिस अरविंद केजरीवाल को तमाम साथियों की बिल्कुल भी परवाह न हो, वो बिभव कुमार के लिए स्वाति मालीवाल केस के पुलिस और कोर्ट कचहरी तक चले जाते हैं.

स्वाति मालीवाल ने तो अरविंद केजरीवाल को मौका भी दिया था. सोच विचार के लिए उनके पास पूरा मौका था. ये ठीक है कि स्वाति मालीवाल ने 100 नंबर पर कॉल करके पुलिस बुला ली थी, और उसके बाद थाने भी पहुंची थीं - लेकिन, FIR तो तत्काल नहीं ही दर्ज कराया था.

अरविंद केजरीवाल चाहते तो मामले को सुलझा सकते थे. स्वाति मालीवाल ने तो अपनी तरफ से कई बार सुलह के संकेत भी दिये. अरविंद केजरीवाल के साथ वाली एक पुरानी तस्वीर यूं ही तो सोशल मीडिया पर शेयर किया नहीं होगा. ऐसा भी नहीं कि सब कुछ खत्म हो गया है, आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट की तो हमेशा ही गुंजाइश बनी रहती है.

भले ही अरविंद केजरीवाल ने कैलाश गहलोत की जगह एक अन्य जाट नेता राघवेंद्र शौकीन को मंत्री बना दिया गया है, लेकिन डैमेज कंट्रोल के लिए ये नाकाफी लगता है. जरूरी नहीं कि कैलाश गहलोत की बातें अरविंद केजरीवाल के खिलाफ अपेक्षित रूप से कारगर ही हों, लेकिन बीजेपी उनकी मदद से आम आदमी पार्टी को डैमेज करने की कोशिश तो करेगी ही. घर का भरोसेमंद अगर भेदिया बनकर दुश्मन के पाले में पहुंच जाये तो खतरे की कोई सीमा नहीं रह जाती.

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संजय सिंह में पहले वाला जोश नजर क्यों नहीं आता?

आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह गिरफ्तार अरविंद केजरीवाल से पहले जरूर हुए थे, लेकिन जेल से छूटकर भी पहले ही चले आये थे. और, उनकी रिहाई राजनीति में दिलचस्पी रखनेवालों के लिए काफी अचरज भरी थी.

चूंकी अभी ये नौबत नहीं आई है कि संजय सिंह की निष्ठा को भी स्वाति मालीवाल की तरह आम आदमी पार्टी कठघरे में खड़ा कर दे, और वैसी कोई सार्वजनिक दुर्भावना भी प्रदर्शित की गई है जैसी कैलाश गहलोत के प्रति काफी दिनों से महसूस की जा रही थी. सुनने में आया है कि कैलाश गहलोत से अरविंद केजरीवाल काफी दिनों से बेहद नाराज चल रहे थे - इसलिए लगता नहीं कि कैलाश गहलोत के मामले में ताली दोनो हाथों से नहीं बजी है.

सवाल तो राघव चड्ढा को लेकर भी उठे थे, क्योंकि अरविंद केजरीवाल के जेल जाने के बाद उनकी आक्रामकता का अनुभव नहीं हो रहा था, और गैरमौजूदगी तो अलग ही रहस्य बनाये हुए थी - कुछ कुछ स्वाति मालीवाल की ही तरह. तब स्वाति मालीवाल और राघव चड्ढा दोनो ही देश से बाहर बताये जा रहे थे.

स्वाति मालीवाल केस में जिस तरह आम आदमी पार्टी से बिल्कुल अलग संजय सिंह का बयान आया था, बाद में आसानी से समझा जा सकता था कि उसमें अरविंद केजरीवाल की सहमति नहीं रही. फिर भी अगर संजय सिंह और अरविंद केजरीवाल साथ बने हुए हैं, तो कुछ खास बात तो होगी ही. भले भी वो बिभव कुमार के मामले जितनी खास न भी हो तो. राजनीति में कुछ न कुछ मजबूरियां तो लगी ही रहती हैं.

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और लाख टके की बात ये है कि संजय सिंह पहले जितने खुश तो नहीं ही लगते - जेल से छूटने और उसके कुछ दिन बाद तक जितना आक्रामक वो नजर आते थे, अब तो कहीं से भी नहीं लगते. राजनीति में रस्मअदायगी की भी जगह तो होती ही है.

आतिशी को कामचलाऊ मुख्यमंत्री बनानाएक भूल

आतिशी को मुख्यमंत्री बनाया जाना कुछ देर के लिए अरविंद केजरीवाल का मास्टरस्ट्रोक भी माना जा सकता था, लेकिन वो खुद और उनकी कोर टीम ने ही तत्काल प्रभाव से उसकी हवा निकाल दी - और ऊपर से आतिशी ने भी अरविंद केजरीवाल की कुर्सी की बगल में अपने लिए नई कुर्सी लगाकर आम आदमी पार्टी के खाते में बची खुची मुसीबत बटोर कर डाल दी.

अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक विरोधियों के लिए आतिशी को उनके नेता की तरह घेर पाना मुश्किल हो सकता था, लेकिन ये मुश्किलें पहले ही आसान कर दी गई हैं. अगर आतिशी को अस्थाई सीएम नहीं बताया गया होता तो बीजेपी और कांग्रेस को अलग से सोचना भी पड़ता. मोर्चे पर किसी महिला नेता को लगाना पड़ता. बांसुरी स्वराज को तो बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के चेहरों में भी शामिल किया जाने लगा था, और स्मृति ईरानी को भी दिल्ली में कुछ जिम्मेदारी देकर बीजेपी ने संकेत भी दिया था, लेकिन अब वैसा कुछ नहीं देखने को मिल रहा. चुनाव नजदीक आने पर भले ही तस्वीर साफ नजर आये.

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कांग्रेस भी दिल्ली में राजनीतिक विरोधी बन चुकी है

ये बात काफी मायने रखती है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके आम आदमी पार्टी को सीधे सीधे कोई फायदा तो नहीं मिला. लेकिन, ये भी नहीं भूलना चाहिये की आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत 2019 की तरह जब्त नहीं हुई. 2019 में आम आदमी पार्टी हर सीट पर कांग्रेस के बाद तीसरे स्थान पर पाई गई थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ - और ये बात भी कोई कम तो नहीं है.

अब अगर चुनाव प्रचार के लिए सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम जमानत पर जेल से रिहा होकर भी अरविंद केजरीवाल कोई करिश्मा नहीं दिखा पाये तो उसकी तोहमत कांग्रेस पर तो नहीं ही मढ़ी जा सकती है. ये प्रयोग दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी दोहराया जाता तो परिस्थितियां अलग हो सकती थी.

दिल्ली में डेढ़ से दो दर्जन ऐसी सीटें मानी जा रही हैं, जहां कांग्रेस के उम्मीदवार आम आदमी पार्टी को कड़ी टक्कर देने वाले हैं. मान लेते हैं कि टक्कर देकर भी कांग्रेस उम्मीदवार जीत नहीं पाते, लेकिन आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत में बाधक तो बन ही सकते हैं. क्या ये बात अरविंद केजरीवाल को नहीं समझ आ रही होगी, लेकिन सब कुछ समझ में आये तो भी हर इंसान के अंदर एक जिद भी तो होती है. अरविंद केजरीवाल के आम आदमी होने पर उनके विरोधी 'शीशमहल' का नाम लेकर भले ही सवाल उठायें, लेकिन हैं तो वो इंसान ही.

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70 सीटों पर केजरीवाल का चेहरा इस्‍तेमाल करने की रणनीति कितनी कारगर होगी?

हो सकता है, अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की सभी 70 सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों में अपना ही अक्स दिखाने में फायदा नजर आ रहा हो, लेकिन ये एक्सपेरिमेंट बैक फायर भी कर सकता है. बीजेपी ने ऐसा प्रयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को भुनाने और सांसदों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर असंतोष या सत्ता विरोधी लहर को काउंटर करने के मकसद किया था, और सफल भी रही. जरूरी नहीं कि बीजेपी का आजमाया हुआ नुस्खा आम आदमी पार्टी के लिए भी कारगर साबित हो.

अरविंद केजरीवाल जो डंका पीट रहे हैं, वो भूल जाते हैं कि उनकी ये सारी कमजोरियां ही रास्ते का रोड़ा बन सकती हैं - 70 सीटों पर 'अरविंद केजरीवाल' के चुनाव लड़ने का आइडिया ऐसा है कि लेने के देने भी पड़ सकते हैं.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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