बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के मुद्दे पर मायावती का आक्रामक हो जाना स्वाभाविक है. बीएसपी के लिए ये विचारधारा से जुड़ा मामला है. दलित राजनीति के लिए आंबेडकर सबसे बड़े संबल हैं.
मायावती ने आंबेडकर पर केंद्रीय मंत्री अमित शाह के बयान की आलोचना की है. सोशल साइट X पर मायावती ने लिखा है, बीजेपी के अमित शाह ने संसद में... दलित और उपेक्षित वर्गों के मसीहा, परम पूज्य बाबासाहेब डाक्टर भीमराव आंबेडकर के बारे में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है, उससे इन वर्गों की भावनाओं को गहरी ठेस पहुंची है... ऐसे में उन शब्दों को वापस लेकर इनको पश्चाताप भी जरूर करना चाहिये.
यहां तक तो ठीक है. लेकिन, जैसे ही मायावती कांग्रेस को भी निशाना बना लेती हैं सब घालमेल होने लगता है. कांग्रेस तो अमित शाह के मुद्दे पर शुरू से ही विरोध कर रही है. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने नीली पोशाक में संसद में प्रदर्शन किया था, और वो भी बीएसपी नेता आकाश आनंद को नागवार गुजर रहा है.
बीएसपी नेताओं, मायावती और आकाश आनंद, का ये रवैया बहुत कंफ्यूज कर रहा है. निश्चित रूप से दलित समाज भी ये समझ रहा होगा. मायावती के पास अमित शाह के खिलाफ बोलने की मजबूरी थी, क्योंकि बवाल तो उनके ही बयान पर मचा है - लेकिन उसमें कांग्रेस को भी बीच में लाकर आखिर क्या बताने और जताने की कोशिश हो रही है.
राहुल गांधी को तो आंबेडकर के मुद्दे पर हाथ से फिसल चुकी समाजवादी पार्टी का भी साथ मिल गया है, और बाकी विपक्षी दलों के नेताओं के भी तेवर नरम पड़ गये हैं. वरना, कारोबारी गौतम अडानी के मुद्दे पर तो इंडिया ब्लॉक में एक एक करके पूरा विपक्ष ही कांग्रेस का साथ छोड़ रहा था.
जब आंबेडकर के नाम पर समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई है, तो बीएसपी को क्यों दिक्कत हो रही है. ये ठीक है कि मायावती को दलित वोटर के कांग्रेस की तरफ फिर से चले जाने का डर लगता होगा - लेकिन आंबेडकर के मुद्दे पर बीजेपी और कांग्रेस को एक साथ टारगेट किया जाना भी तो शक-शुबहे पैदा करता है.
मायावती के स्टैंड से तो ऐसा लगता है, जैसे वो कांग्रेस को ही टार्गेट कर रही हों कि राहुल गांधी आखिर अमित शाह के खिलाफ मुहिम क्यों चला रहे हैं? कांग्रेस को बीच में घसीट कर बीजेपी के खिलाफ अपने हमले को बैलेंस करने की मायावती की कोशिश दुधारी तलवार जैसी ही है, लेने के देने भी पड़ सकते हैं.
मायावती को अपनी राजनीतिक प्राथमिकता तय करनी होगी
मायावती के हालिया रवैये के कारण ही उन पर बीजेपी की बी-टीम होने का इल्जाम लगाया जा रहा है. कांग्रेस के साथ मायावती की अलग दुश्मनी हो सकती है, लेकिन बीजेपी के प्रति उनका सॉफ्ट कॉर्नर तो बार बार जाहिर हो रहा है. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से लेकर आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव तक मायावती की राजनीतिक लाइन एक ही रही है. कुछ सीटें छोड़ दें तो यूपी चुनाव में ज्यादातर सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवार समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की राह में रोड़ा ही बने थे, और आजमगढ़ से गुड्डू मुस्लिम को उतारकर तो मायावती ने बीजेपी की मदद वाले एजेंडे से पर्दा ही उठा दिया था.
बीएसपी नेता के लिए सबसे जरूरी है अपनी राजनीतिक प्राथमिकता तय करना. मायावती के लिए अपना सपोर्ट बेस बचाना बेहद जरूरी है, लेकिन जो तरीका वो अपना रही हैं, उसमें सिर्फ घाटा ही घाटा नजर आ रहा है.
कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से भी बड़ा खतरा मायावती के लिए चंद्रशेखर आजाद की आज समाज पार्टी है. लोकसभा चुनाव में नगीना सीट पर चंद्रशेखर को 51.19 फीसदी वोट मिले थे, जबकि बीएसपी उम्मीदवार को 1.33 फीसदी.
मायावती को उपचुनावों से परहेज करते देखा गया है, लेकिन हाल ही में यूपी की 9 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में बीएसपी ने हर सीट पर उम्मीदवार खड़े किये थे. मायावती उपचुनाव को लेकर कितना गंभीर थीं, ये आकाश आनंद की वापसी से ही साफ हो गया था. लोकसभा चुनाव के बीच में ही मायावती ने आकाश आनंद को हटा दिया था, लेकिन उपचुनावों से पहले ही वापस ले लिया.
यूपी उपचुनाव में दो सीटों मीरापुर और कुंदरकी में भी चंद्रशेखर आजाद के उम्मीदवारों ने बीएसपी प्रत्याशियों को पछाड़ दिया था. चंद्रशेखर के उम्मीदवार जहां तीसरे स्थान पर रहे, वहीं दोनो सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवार पांचवें पायदान पर पहुंच गये थे. बाकी सात सीटों पर बीएसपी ही आगे थी, लेकिन चंद्रशेखर के उम्मीदवारों से उसका पिछड़ जाना फिक्र वाली बात तो है ही.
लोकसभा चुनाव की बात करें तो बीते 10 साल में बीएसपी का वोट शेयर भी 10 फीसदी नीचे जा चुका है. 2024 के आम चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर 9.39 फीसदी पर पहुंच गया, जबकि 2019 में बीएसपी की हिस्सेदारी 19.77 दर्ज की गई थी.
आज की तारीख में बीएसपी के पास लोकसभा का कोई सांसद नहीं है, और यूपी विधानसभा में भी महज एक ही विधायक है. मायावती जिस हिसाब से राजनीति कर रही हैं, बीएसपी के भविष्य के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है.
अगर राहुल गांधी के आरोपों में कोई सच्चाई है, और मायावती अगर केंद्रीय जांच एजेंसियों के डर से अपनी राजनीतिक लाइन चुन ली है तो बात और है. हर किसी के सामने कुछ न कुछ मजबूरियां तो होती ही हैं.
अब अगर बीएसपी का राजनीति अस्तित्व बचाये रखना है तो सबसे जरूरी है कि मायावती पहले प्राथमिकताएं तय करें, क्योंकि उसी से आगे की सारी चीजें तय होंगी.
यूपी की दलित राजनीति और सहारनपुर हिंसा
2012 में समाजवादी पार्टी के हाथों सत्ता गवांने के बाद से मायावती की राजनीति अब तक पटरी पर नहीं लौट सकी है. 2019 के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के चुनावी गठबंधन से एक उम्मीद जरूर जगी थी, लेकिन मायावती ने ही अपना हाथ खींच लिया. 2014 में शून्य पर पहुंच जाने वाली बीएसपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 10 सीटें जीती थी.
2017 में भी मायावती के प्रयास बेकार गये और यूपी में बीजेपी सत्ता में आ गई. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिन बाद सहारनपुर हिंसा हुई थी.
तब मायावती राज्यसभा सांसद हुआ करती थीं. मायावती ने सहारनपुर में दलितों पर अत्याचार का मुद्दा राज्य सभा में उठाया. लेकिन, बोलने के लिए कम समय दिये जाने पर वो नाराज हो गईं, और राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. मायावती का कहना था, मुझे महज तीन मिनट का वक्त दिया जा रहा है... आखिर इतने महत्वपूर्ण मसले पर मेरी बात क्यों नहीं सुनी जा रही... लानत है ऐसी सदस्यता पर... जिस समाज से मैं आती हूं उसी की बात सदन में नहीं रख पा रही... मुझे ऐसी सदस्यता नहीं चाहिये. मैं अभी इससे इस्तीफा देती हूं.
मायावती जब इस्तीफा देने के लिए राज्यसभा सभापति के दफ्तर पहुंचीं तो उनके पीछे गुलाम नबी आजाद भी पहुंच गये थे. तब गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में थे और राज्यसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे. गुलाम नबी आजाद साथ बीएसपी सांसद सतीश चंद्र मिश्रा भी वहां पहुंच गये थे - और दोनो ने मिलकर मायावती को इस्तीफा न देने की सलाह दी, लेकिन वो नहीं मानीं.
सहारनपुर हिंसा के दौरान ही चंद्रशेखर आजाद की राजनीति की नींव पड़ी थी. हिंसा भड़काने के आरोप में चंद्रशेखर आजाद जेल गये और यूपी की सरकार ने उन पर एनएसए भी लगाया था, लेकिन अगले आम चुनाव से पहले रिहा भी कर दिया गया. अब तो वो लोकसभा सांसद बन चुके हैं.
आंबेडकर विवाद पर चंद्रशेखर आजाद ने मायावती से अलग लाइन ली है. चंद्रशेखर आजाद का कहना है कि गृह मंत्री अमित शाह ने सफाई दे दी है, अब ये विवाद समाप्त हो जाना चाहिये.
देखा जाये तो चंद्रशेखर आजाद ने खुलकर अमित शाह का सपोर्ट किया है, और मायावती आधे मन से समर्थन करती नजर आ रही हैं. ऐसा लगता है जैसे चंद्रशेखर और मायावती दोनो ही बीजेपी की दलित पॉलिटिक्स का सपोर्ट कर रहे हैं - और ये पूरी तरह बीएसपी के खिलाफ जा रहा है.
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