डॉ. भीमराव आंबेडकर को अपना कहने का दावा अलग-अलग तरह के लोग कर सकते हैं. दलित तो उन्हें अपना कहते ही हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि ब्राह्मण भी उन्हें अपना कह सकते हैं. कांग्रेसी, हिंदुत्ववादी, गांधीवादी, कम्युनिस्ट, समाजवादी और फ्री मॉर्केट के समर्थक, बौद्ध धर्म मानने वाले उसका विरोध करने वाले, फेमिनिस्ट और एंटी-फेमिनिस्ट, आरक्षण के समर्थक और विरोधी यहां तक की व्हाइट अमेरिकी और संविधान को न मानने वाले भी आंबेडकर को अपना मान सकते हैं.
दरअसल, इसका कारण ये है कि आंबेडकर ने अपने सार्वजनिक जीवन के तीन दशकों के दौरान अनेक प्रकार के लोगों से मुलाकात की थी. उन्होंने कई श्रेणियों के लोगों या उनके नेताओं, विश्वासों या उपलब्धियों के बारे में सकारात्मक बातें की थीं. कई विचारों वाले कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था. अपने सार्वजनिक जीवन में आंबेडकर ने कुछ मुद्दों पर अपने रुख भी बदले, ताकि वे खास परिस्थितियों में कुछ बेहतर कर सकें. 'राजनीतिक विमर्श' में आंबेडकर ने कहा था कि नियम वही होना चाहिए जो संभव हो. ऐसे में इस बात में कोई गुरेज नहीं है कि आंबेडकर को दुनिया के लगभग सभी लोग अपना मान सकते हैं.
आंबेडकर ने किसका समर्थन किया
इन दावों को सच साबित करने के लिए कुछ तथ्यों को पेश किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, यह कहा जा सकता है कि आंबेडकर के शुरुआती सहयोगियों में कई सवर्ण थे और वे 1945 के बाद आंबेडकर द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं के प्रमुख थे.
गांधी को भी आंबेडकर ने सराहा था
आंबेडकर ने अप्रैल 1925 में निपानी में एक सभा को संबोधित करते हुए गांधी को देश का 'पहला व्यक्ति' बताया था जिसने सामाजिक अन्याय को दूर करना 'सबसे जरूरी काम' बताया था. तो कहा जा सकता है कि आंबेडकर गांधी के प्रशंसक थे.
सावरकर की भी तारीफ की थी
आंबेडकर ने 18 फरवरी 1933 को वीडी सावरकर को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए उनके प्रयासों की सराहना की थी. तो कहा जा सकता है कि वह सावरकर के प्रशंसक थे. (इस पत्र में आंबेडकर ने सावरकर के चार वर्णों वाली व्यवस्था के समर्थन पर आपत्ति जताई थी.)
कम्युनिज्म के विरोधी, आंबेडकर ने 10 जनवरी 1938 को मुंबई में कम्युनिस्टों के साथ एक मंच साझा किया और कहा था कि वह उन्हें 'दोस्त' मानते हैं. यहां तक की कांग्रेस के विरोधी आंबेडकर ने अपनी जीवन के अंतिम भाषण में संविधान सभा में संविधान के मसौदे को आसानी से पारित करने का श्रेय कांग्रेस को दिया था.
आंबेडकर ने अपनी अधूरी रचना 'A People at Bay' में अमेरिका के ब्लैक लोगों की बेहतरी के लिए वहां के लोगों द्वारा दिए गए डोनेशन को गांधी द्वारा हरिजन सेवा संघ के लिए एकत्रित धन से तुलना करते हुए कहा था कि 'अमेरिकियों में सामाजिक चेतना है जबकि हिंदुओं में नहीं.'
आंबेडकर ने "Buddha or Karl Marx" में कहा था कि सोवियत संघ में कम्युनिस्ट तानाशाही के अद्वितीय योगदानों पर कोई संदेह नहीं है. समाजवाद के संदर्भ में आंबेडकर ने मार्च 1947 में संविधान सभा को एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था जिसमें उन्होंने बुनियादी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने की मांग की थी.
ये उदाहरण साबित करते हैं कि आंबेडकर के विचारों को चुनिंदा तरीके से पढ़ने और अपनाने के अनेक अवसर हैं.
'लेकिन आंबेडकर ने क्या कहा था...'
लेकिन इसके उलट ऐसे भी मौके हैं जब यह दिखाया जा सकता है कि आंबेडकर को किसी एक पक्ष द्वारा नहीं अपनाया जा सकता. उदाहरण के लिए, जो लोग सावरकर के वैचारिक धारा के विरोधी हैं, वे 1945 में उनकी रचना “Pakistan or the Partition of India” में आंबेडकर के इस कथन का हवाला दे सकते हैं कि हिंदू राष्ट्र का विचार 'निरर्थक बकवास' है.
जो कांग्रेस के विरोधी हैं, वे 1951 में आंबेडकर द्वारा अपनी राजनीतिक पार्टी, "Scheduled Castes Federation" के चुनावी घोषणा पत्र का हवाला दे सकते हैं, जिसमें आंबेडकर ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचारियों को सजा न देने का आरोप लगाया था. इसके अलावा, कांग्रेस ने 1952 के आम चुनाव में आंबेडकर के खिलाफ एक अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को खड़ा कर उन्हें हरवाया था.
कम्युनिज्म के विरोधी, आंबेडकर द्वारा उनकी किताब में कहे गए इस कथन का हवाला दे सकते हैं कि इस दर्शन का उद्देश्य 'सुअरों को मोटा करना लगता है, जैसे कि लोग सुअरों से बेहतर नहीं हैं.' मुक्त बाजार समर्थक संविधान सभा में आंबेडकर के इस कथन को पेश कर सकते हैं कि समाजवाद को भारतीय संविधान में शामिल करना असंभव है, क्योंकि “सोचने वाले लोग किसी अन्य प्रकार के सामाजिक संगठन को भी परिभाषित कर सकते हैं, जो आज या कल के समाजवादी संगठन से बेहतर हो.”
जो नारीवाद के विरोधी हैं, वे 15 अक्टूबर 1956 को नागपुर नगर निगम के सामने आंबेडकर के इस प्रस्ताव का हवाला दे सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि महिलाएं राजनीति में हिस्सा लेने के लिए घरेलू कर्तव्यों को छोड़ रही हैं.
आरक्षण का विरोध करने वाले लोग 21 अगस्त, 1955 को SCF की कार्यकारी समिति द्वारा पारित इस प्रस्ताव की ओर इशारा कर सकते हैं: '...संसद में, राज्य विधानसभाओं में, नगर पालिकाओं और जिला और स्थानीय बोर्डों में अनुसूचित जातियों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान इसे तुरंत ख़त्म किया जाना चाहिए.'
बौद्ध धर्म का विरोध करने वाले लोग मई 1950 के महाबोधि अंक में आंबेडकर के एक लेख का जिक्र कर सकते हैं. 'जब पीड़ित मानवता की सेवा का विचार किसी के मन में आता है तो हर कोई रामकृष्ण मिशन के बारे में सोचता है. बौद्ध संघ के बारे में कोई नहीं सोचता.'
दरअसल, अगर आप तिनके पर कोई मामला बनाना चाहते हैं तो आंबेडकर के लेखों और भाषणों का विशाल भंडार कई मामलों के लिए ढेर सारे तिनके के टुकड़े उपलब्ध कराता है. लेकिन अगर इस आधार पर विरासत का दावा करना हो तो सभी आवेदन कर सकते हैं.
क्या है आंबेडकर का वास्तविक दृष्टिकोण?
आंबेडकर ने कभी भी लोगों से यह उम्मीद नहीं की थी कि वे उनकी अंधभक्ति करें या किसी और की भक्ति करें. संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था, 'भक्ति या हीरो वर्शिप गिरावट और अंत में तानाशाही की ओर ले जाती है.'
अंबेडकर का मूल दृष्टिकोण 'सामाजिक लोकतंत्र' का था या जीवनशैली के रूप में लोकतंत्र का था, जिसे एक लोकतांत्रिक समाज में प्रैक्टिस में लाया जा सके. आसान भाषा में समझें तो एक ऐसा समाज जिसमें जाति जैसे अवरोध न हो, जो लोगों की स्वतंत्रता में बाधा डालें उनके जीवन के अवसरों को सीमित करें और बुनियादी मानव स्वतंत्रताओं का उल्लंघन करें. आंबेडकर के दृष्टिकोण में ऐसा समाज लोकतांत्रिक तरीकों से बनाया जाना चाहिए, जिसमें संवाद, बहस और समझाने की प्रक्रिया हो न कि बल प्रयोग का उपयोग.
आंबेडकर ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सभी नेताओं को खासतौर पर ऐसे लोगों को जो सत्ता में हों उन्हें 'संविधानिक नैतिकता' का पालन करना चाहिए.
22 दिसंबर 1952 को पुणे में आंबेडकर ने कहा था कि राजनीतिक लोकतंत्र में, बहुमत और अल्पमत होंगे लेकिन ये धार्मिक, जातीय या अन्य स्थापित पहचान के आधार पर नहीं होंगे. किसी भी मौजूदा बहुमत को विपक्ष का सम्मान करना होगा.
पूछा जाना चाहिए ये सवाल
भारत और दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों में कुछ व्यक्तियों और समूहों की मौजूदगी है जो आंबेडकर के इन विश्वासों को संजोते और उनके लिए काम करते हैं. उन्हें अंबेडकर के असली उत्तराधिकारी कहा जा सकता है. लेकिन
जहां तक बाकी लोग हैं, जो एक-दूसरे को पछाड़ते हुए आंबेडकर को अपना मान रहे हैं, उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए: वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?
दलित वोट?
यह निश्चित रूप से दलित वोट के लिए नहीं हो सकता. सामान्यत: जिस तरह से “दलित” शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह एक समान श्रेणी नहीं है. यहां तक कि स्वतंत्रता से पहले (जब यह शब्द प्रचलित नहीं था), दलित वोट को कांग्रेस, हिंदू महासभा और कम्युनिस्टों ने विभाजित किया था. स्वतंत्रता के बाद, दलित वोट का विभाजन और बढ़ गया. हर किसी को इसका एक हिस्सा मिल गया है. इसलिए, आंबेडकर की पूजा के इस खुलासे के लिए अन्य कारणों को देखना होगा.
ध्यान से देखने पर पता चलता है कि आंबेडकर की पूजा और उनके नाम पर इतना शोर 1990 के दशक में ही प्रमुख रूप से बढ़ी. लेकिन अब इसमें कुछ सवाल भी खड़े होते हैं. क्या आंबेडकर के नाम पर शोर पोस्ट-मंडल राजनीतिक हलचल से लाभ उठाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है? या सामाजिक न्याय का झंडा 1990 के बाद बाजार के कारण बढ़ी असमानताओं को छिपाने के लिए लहराया जा रहा है? या वे लोग जो आंबेडकर के प्रशंसक होने का दावा कर रहे हैं, क्या वे अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने आंबेडकर के दृष्टिकोण को पूरा नहीं किया?
इन सवालों की जांच करना जरूरी है. निश्चित रूप से इन सवालों पर उतना ध्यान दिया जाना चाहिए जितना कि यह पता करने में कि व्यक्ति A ने अंबेडकर के बारे में क्या कहा, व्यक्ति B ने A द्वारा कहे गए बारे में क्या कहा, A ने इसका क्या उत्तर दिया, और फिर अन्य लोगों ने इसपर क्या रिएक्शन दिए.
( ये विचार लेखक आशोक गोपाल के हैं, जिन्होंने"A Part Apart: The Life and Thought of B R Ambedkar" नामक किताब लिखी है.)
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