राहुल गांधी बनाम ममता बनर्जी... क्या समय आ गया है INDIA गुट के नेतृत्‍व में बदलाव का? | Opinion

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राहुल गांधी के सामने एक बार फिर G-23 जैसी चुनौती खड़ी हो गई है. वो वाकया तो कांग्रेस के भीतर का था, नया मामला INDIA ब्लॉक के अंदर का है. तृणमूल कांग्रेस ने ममता बनर्जी को नेतृत्व सौंपने की मांग कर डाली है. खास बात ये है कि इस मांग का विरोध ऐसे नेता ने किया है, जिसे ममता बनर्जी के दबाव में राहुल गांधी ने ही किनारे लगा दिया है.

ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के सांसद कल्याण बनर्जी का कहना है, 'कांग्रेस हरियाणा और महाराष्ट्र में उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर सकी... कांग्रेस से हमें बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी.'

कल्याण बनर्जी आगे जोड़ते हैं, 'INDIA ब्लॉक एक गठबंधन तो है, लेकिन कोई रिजल्ट नजर नहीं आ रहा है... रिजल्ट हासिल करने में कांग्रेस की तरफ से बड़ी नाकामी नजर आ रही है... अगर बीजेपी से लड़ना है तो इंडिया ब्लॉक को मजबूत करना जरूरी है... मजबूत करने के लिए एक लीडर की जरूरत है... बड़ा सवाल ये है कि नेता कौन हो सकता है... कांग्रेस हर तरह के प्रयोग कर चुकी है, लेकिन वे विफल रहे हैं.'

कांग्रेस में हाशिये पर कर दिये जाने के बावजूद विरोध का बीड़ा पूर्व पश्चिम बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने उठाया है. कहा है, कुएं का मेढक आसमान को भी अपने कुएं जैसा देखता है... और टीएमसी की स्थिति ऐसी ही है.

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अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, 'टीएमसी राष्ट्रीय पार्टी हुआ करती थी, लेकिन फिर इसका कद कम हो गया... और ये क्षेत्रीय पार्टी बन गई... चाहे वो गोवा हो, त्रिपुरा हो या कोई और राज्य... हर जगह कोशिशें की लेकिन फेल रही.'

अब तो ये बात और साफ लगने लगी है कि कांग्रेस से ममता बनर्जी के दूरी बनाने की वजह अधीर रंजन चौधरी नहीं थे. अधीर रंजन का नाम तो बस बहाने के लिए इस्तेमाल हुआ है, ममता बनर्जी को असली दिक्कत तो राहुल गांधी से ही रही है. तभी तो न्याय यात्रा के साथ राहुल गांधी के पश्चिम बंगाल की सीमा में दाखिल होने से पहले ही वो घोषणा कर देती हैं कि टीएमसी 2024 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेगी. ऐसे में टीएमसी के इंडिया ब्लॉक में होने का क्या मतलब रह जाता है?

कल्याण बनर्जी ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के नतीजों के संदर्भ में ये बात कही है. लोकसभा चुनाव के बाद देखें तो चार विधानसभाओं के चुनाव हुए हैं - जम्मू-कश्मीर और झारखंड के नतीजे तो INDIA ब्लॉके हिस्से में ही गिने जाएंगे.

राहुल गांधी बनाम ममता बनर्जी : खासियत

1. ममता बनर्जी सीनियर तो हैं ही, राहुल गांधी के मुकाबले बहुत ज्यादा अनुभवी भी हैं. वो शुरू से ही स्ट्रीट फाइटर रही हैं. राहुल गांधी भी अब सड़क की लड़ाई को लेकर गंभीर हो गये हैं.

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2. राहुल गांधी पहले भी किसान यात्रा जैसी मुहिम चला चुके हैं. उनका नया रूप भारत जोड़ो यात्रा और न्याय यात्रा के बाद देखने को मिला है. ये दोनो यात्राएं राहुल गांधी ने पूरी की है, पहले ऐसा लगता था जैसे वो तफरीह के लिए चले जाते हैं, और कभी भी बीच में छोड़कर विदेश यात्रा पर जा सकते हैं - हाल फिलहाल एक गंभीरता देखने को जरूर मिली है.

3. 2019 में राहुल गांधी अमेठी भी हारे और पूरे देश में कांग्रेस भी हार गई, लेकिन 2021 में नंदीग्राम हारकर भी ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी को जिता दिया.

4. कांग्रेस अध्यक्ष का पद लगा राहुल गांधी पर थोप दिया गया था. जैसे ही मौका मिला पल्ला झाड़ लिये. अध्यक्ष पद को लेकर उनकी गंभीरता का आकलन कांग्रेस के G-23 के नेताओं की चिट्ठी में लिखी इबारत से भी समझी जा सकती है - नेताओं की मांग एक ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष की थी जो काम करता हुआ दिखे भी. मतलब, राहुल गांधी के अध्यक्ष रहते कांग्रेस नेताओं ने कभी ये चीज महसूस ही नहीं की थी.

राहुल गांधी बनाम ममता बनर्जी : स्वीकार्यता

2019 के आम चुनाव में ममता बनर्जी विपक्ष के नेता के रूप में तेजी से उभरी थीं. चुनावों से पहले ममता बनर्जी दिल्ली सहित देश भर के नेताओं के संपर्क में थीं. दिल्ली दौरे में एक बार तो ये भी देखने को मिला कि वो सोनिया गांधी से 10, जनपथ जाकर भी मिलीं, लेकिन राहुल गांधी को कोई महत्व नहीं दिया. तब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे. विपक्षी नेताओं की बाद की बैठकों में दोनो की मुलाकातें जरूर हुई थीं.

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2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद ममता बनर्जी का एक दिल्ली दौरा हुआ था, जब उनको निराश होकर लौटना पड़ा था. वो कोलकाता से ही प्लान करके निकली थीं, विपक्षी नेताओं के साथ एक मीटिंग करने के लिए. ये बात ममता बनर्जी ने कोलकाता में एक रैली के बाद शरद पवार और पी. चिदंबरम से कही थी.

ममता बनर्जी दिल्ली आई ही थीं कि राहुल गांधी विपक्षी नेताओं के साथ अलग मीटिंग करने लगे. ममता बनर्जी ने विपक्ष नेताओं से अलग अलग मुलाकात जरूर की, लेकिन कोई औपचारिक मीटिंग नहीं हो सकी - और शरद पवार ने तो दिल्ली में होते हुए भी ममता बनर्जी को मिलने का वक्त नहीं दिया.

शरद पवार से मिलने के लिए ममता बनर्जी ने मुंबई का कार्यक्रम बनाया. भतीजे अभिषेक बनर्जी के साथ शरद पवार के घर जाकर मिलीं भी. लंबा चौड़ा प्रजेंटेशन भी दिया था. बाहर निकलकर यूपीए के बारे में पूछे जाने पर बोलीं, यूपीए कहां है, यूपीए तो खत्म है. लेकिन, कुछ ही देर बाद संजय राउत के बयान से साफ हो गया कि शरद पवार ने ममता बनर्जी के दावे से पल्ला झाड़ लिया है.

ममता बनर्जी ने कांग्रेस को किनारे रखकर विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश भी की थी, लेकिन जैसे ही सोनिया गांधी का मैसेज लेकर कमलनाथ मिलने पहुंचे शरद पवार ने हाथ पीछे खींच लिये. ममता बनर्जी को शांत होकर बैठ जाना पड़ा.

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राहुल गांधी बनाम ममता बनर्जी : बड़ा नेता कौन

2019 के आम चुनाव से पहले ममता बनर्जी के बारे में कहा जाता रहा कि वो हिंदी सीख रही हैं. ऐसा माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री बनने के लिए नेता को हिंदी जानना जरूरी है, वरना उत्तर भारत में दाल नहीं गलने वाली है.

ममता बनर्जी हिंदी बोलती जरूर हैं, लेकिन राहुल की तरह धाराप्रवाह नहीं. हां, राहुल गांधी के मुकाबले ममता बनर्जी की बातें ज्यादा दमदार होती हैं. ममता बनर्जी बंगाल की निर्विवाद नेता हैं, लेकिन कांग्रेस का नेता होने की वजह से राहुल गांधी का अखिल भारतीय प्रभाव है.

राहुल गांधी बनाम ममता बनर्जी : नफा-नुकसान

विपक्षी खेमे के नेताओं के बीच स्वीकार्यता की बात की जाये तो ममता बनर्जी और राहुल गांधी में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. लोकसभा चुनाव में मजबूत क्षेत्रीय नेता के रूप में उभरे अखिलेश यादव के साथ फिलहाल दोनो के अच्छे संबंध हैं, लेकिन बाकी जगह लगता है जैसे अलग अलग तरह की शर्ते लागू हैं.

कांग्रेस का नेता होने के नाते राहुल गांधी की स्वीकार्यता ममता बनर्जी के मुकाबले जरूर बढ़ जाती है. ममता बनर्जी की ही तरह नीतीश कुमार ने भी विपक्ष को एकजुट करने के गंभीर प्रयास किये हैं. 2015 का बिहार चुनाव जीतने के बाद भी वो काफी एक्टिव थे, लेकिन जब नहीं चल पाये तो एनडीए में चले गये. 2022 में नीतीश कुमार ने नये सिरे से विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास किया. INDIA ब्लॉक नीतीश कुमार की ही देन, लेकिन लेकिन जब पूछ घटने लगी तो फिर से एनडीए के साथ चले गये.

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2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी कहने भर को ही विपक्षी गठबंधन के साथ थी, लेकिन किसी भी मौके पर वो साथ नजर नहीं आईं. रैलियों में वो जरूर अपने नेताओं को नुमाइंदगी के लिए भेज दिया करती थीं. कुछ बैठकों में भी शामिल रहीं, लेकिन चुनाव अकेले ही लड़ीं.

लोकसभा स्पीकर के चुनाव के दौरान भी ममता बनर्जी अचानक रूठ गई थीं, ये कहते हुए कि कांग्रेस ने टीएमसी से बात किये बगैर ही विपक्ष का उम्मीदवार घोषित कर दिया. तब राहुल गांधी ने ममता बनर्जी को फोन किया और थोड़ी ही देर की बातचीत में वो मान भी गईं.

अनुभव की वजह से ममता बनर्जी अच्छे पॉलिटिकल स्टैंड लेती हैं, लेकिन राहुल गांधी वैसा कम ही कर पाते हैं. राम मंदिर उद्घाटन समारोह के बहिष्कार को लेकर पहले ममता बनर्जी ही आगे आई थीं, राहुल गांधी ने तो बाद में फैसला लिया. और, जब कुछ कांग्रेस नेता कहने लगे कि वे तो अयोध्या जाएंगे ही, तो राहुल गांधी को भूल सुधार करनी पड़ी थी.

राहुल गांधी और ममता बनर्जी दोनो ही के गुस्से का लेवल हाई रहता है, लेकिन कांग्रेस नेता का क्रोध अक्सर अडानी-अंबानी तक सिमट जाता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टार्गेट करने के चक्कर में. तुनकमिजाजी तो ममता बनर्जी की राजनीति में भी महसूस की जाती रही है, और ये चीज कांग्रेस और बीजेपी नेतृत्व दोनो ही झेल चुके हैं - लेकिन ममता बनर्जी हमेशा ही राजनीतिक रूप से दुरुस्त रहती हैं, और राहुल गांधी अक्सर चूक जाते हैं.

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तृणमूल कांग्रेस के क्षेत्रीय और कांग्रेस के अखिल भारतीय प्रभाव होने की वजह से राहुल गांधी का दायरा ममता बनर्जी के मुकाबले ज्यादा विस्तृत लगता है. ममता बनर्जी को मालूम होना चाहिये कि जब नीतीश कुमार को विपक्षी खेमे में अहमियत नहीं मिली, तो उनको कहां से मिलने वाली है - हां, नीतीश कुमार वाला रास्ता अख्तियार करने के लिए वो भी ऐसे फिलर दे रही हैं तो बात और है.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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