जिंदगी में हर फैसला जोखिमभरा होता है. सोच समझ कर लिये गये फैसलों में भी एरर-ऑफ-जजमेंट का स्कोप बना रहता है. माना जाता है कि जोखिमभरे फैसले ही कामयाबी की राह तय करते हैं - लेकिन उद्धव ठाकरे के साथ तो उल्टा हो गया, 2019 में उद्धव ठाकरे ने भी ऐसा ही एक फैसला लिया था.
बीजेपी और शिवसेना 80 के दशक में ही करीब आ गये थे, लेकिन साझी सत्ता हाथ लगी 90 के दशक में. दोनो के बीच हिंदुत्व की राजनीति कॉमन थी, लेकिन जैसे ही उद्धव ठाकरे बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस और शरद पवार के साथ चले गये, मुसीबतें शुरू हो गईं.
महाराष्ट्र की राजनीति में जो कुछ भी उद्धव ठाकरे के साथ हुआ, आगे चलकर वो सब शरद पवार के साथ भी हुआ है. और, शरद पवार ने उद्धव ठाकरे जैसा कोई कदम भी आगे नहीं बढञाया था. उद्धव ठाकरे ने अपनी पुरानी विचारधारा को कट्टर से नरम और अति-नरम हिंदुत्व में तब्दील करने की कोशिश की थी. राहुल गांधी और शरद पवार के साथ रह कर भी उद्धव ठाकरे ने खुद को हिंदूवादी नेता बनाये रखने की कोशिश की, लेकिन कदम कदम पर फेल होते गये.
बीजेपी तो उद्धव ठाकरे के खिलाफ आक्रामक थी ही, राज ठाकरे भी सुर में सुर मिलाने लगे थे - और, आखिर में तो एकनाथ शिंदे भी साथ हो गये. एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उद्धव ठाकरे के मन में थोड़ी उम्मीद बढ़ाई, लेकिन विधानसभा चुनाव में तो लगता है जैसे सबकुछ खत्म हो गया है. लोकसभा चुनाव 2024 में उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र की कुल 48 में से 9 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन विधानसभा की 288 सीटों में से उद्धव ठाकरे अपने हिस्से में महज 20 ही जुटा पाये, जबकि उनके पुराने साथी एकनाथ शिंदे 57 सीटें जीतने में कामयाब रहे. 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना को 56 सीटें मिली थीं. दोनो के हिस्से की सीटें मिला दें तो 77 सीटें हुईं. ज्यादा ही है. 2019 में उद्धव ठाकरे पुराने गठबंधन के साथ 124 सीटों पर लड़े थे, लेकिन इस बार उनके हिस्से में 95 सीटें ही आई थीं.
महाराष्ट्र की राजनीति में एक दौर ऐसा भी रहा जब बाला साहेब ठाकरे के बारे में कहा जाता था कि वो रिमोट से सरकार को कंट्रोल करते थे. ये तब की बात है जब 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी की सरकार बनी थी - लेकिन, देखिये. क्या से क्या हो गया देखते देखते.
जब उद्धव देखते रह गये, और पूरी पार्टी हाथ से फिसल गई
उद्धव ठाकरे और बीजेपी के बीच टकराव तो 2014 के विधानसभा चुनाव में ही शुरू हो गया था, लेकिन दोनो तरफ के कुछ नेताओं के बीच बचाव से मामला सुलझ गया. अलग अलग चुनाव लड़कर भी दोनो दलों ने मिलकर सरकार बनाई, और पांच साल सरकार चलाई भी.
2019 का चुनाव तो दोनो साथ ही लड़े थे, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर ठन गई. उद्धव ठाकरे का दावा था कि ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद पर बात हुई है, लेकिन बीजेपी ने साफ मना कर दिया कि ऐसी कोई डील हुई ही नहीं है. एकनाथ शिंदे की तरफ से भी फिलहाल ऐसी ही बातें सुनी जा रही हैं. एकनाथ शिंदे बीजेपी नेताओं के उस बयान को खारिज कर रहे हैं, जिसमें कहा जा रहा था कि जिसकी सीटें ज्यादा आएंगी, मुख्यमंत्री भी उसी का होगा. बीजेपी को इस बार सबसे ज्यादा 132 विधानसभा सीटें मिली हैं.
उद्धव ठाकरे ढाई साल के लिए ही अपने हिस्से में मुख्यमंत्री पद चाहते थे, और 2022 आते आते वो अवधि पूरी भी हो गई. तभी एकनाथ शिंदे ने 40 विधायकों के साथ बगावत कर दी. बीजेपी का सपोर्ट मिला और वो मुख्यमंत्री भी बन गये.
चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट में जाने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी तो गवां ही चुके थे, पार्टी का नाम और निशान दोनो ही से हाथ धो बैठे. 23 नवंबर को नतीजे आये तो मालूम हुआ रही सही कसर भी पूरी हो गई.
मुख्यमंत्री फेस बनने की तमाम कोशिशें बेकार गईं
उद्धव ठाकरे चाहते थे कि चुनाव में उनको MVA के मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया जाये, लेकिन मुमकिन नहीं हो सका. पहले शरद पवार ने ही अड़ंगा लगा दिया, और नाना पटोले को स्किप कर जब दिल्ली दरबार में पहुंचे तो राहुल गांधी का भी साथ नहीं मिला.
उद्धव ठाकरे चाहते थे कि अपने शासन के दौरान हुआ कामकाज का हवाला देकर लोगों का सपोर्ट मांगें, और ये भरोसा भी दिला सकें कि विपक्षी गठबंधन जीता तो मुख्यमंत्री वही बनेंगे. असल में लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को देखते हुए महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले खुद भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, और शरद पवार अपना आदमी चाहते थे.
बीएमसी चुनाव तो अब आखिरी ही उम्मीद है
उद्धव ठाकरे को खुद को आजमाने का पहला मौका तो बीएमसी चुनाव ही होता, लेकिन तमाम वजहों से अब तक वो टलता ही रहा है. चुनाव नहीं कराये जाने, और कार्यकाल खत्म हो जाने के कारण स्थिति ये हो गई कि बीएमसी में प्रशासक नियुक्त करना पड़ा.
लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बाद उद्धव ठाकरे के लिए बीएमसी चुनाव उम्मीदों की आखिरी किरण है. जैसे लोकसभा और विधानसभा चुनावों का मिजाज अलग अलग होता है, स्थानीय निकायों का चुनावों में अलग ही मुद्दे होते हैं, और वो लड़ा भी अलग तरीके से ही जाता है.
विधानसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी में ही सहयोगी दलों के नेता आपसी टकरावों से जूझ रहे थे, लेकिन बीएमसी चुनाव की तासीर भी लोकसभा चुनाव जैसी ही होगी - ऐसे में उद्धव ठाकरे के पास बाउंसबैक करने का बढ़िया मौका बचा हुआ है - लेकिन हा, वो आखिरी मौका है.
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