उद्धव ठाकरे से छिन गई बाल ठाकरे की विरासत, क्‍यों एकनाथ शिंदे बने असली हकदार । Opinion

4 1 8
Read Time5 Minute, 17 Second

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में शिवसेना (यूबीटी) का पतन हो चुका है. जनता ने पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सेना की बजाय मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना पर भरोसा जताया है. बल्कि यूं कहें तो बेहतर होगा कि उद्धव सेना को महाराष्ट्र के लोगों ने शिवसेना मानने से ही इनकार कर दिया है. हिंदू हृदय सम्राट के नाम से पूरे भारत में मशहूर बाला साहब ठाकरे की विरासत को एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे से छीन लिया. जाहिर है कि इसके जिम्मेदार खुद उद्धव ठाकरे हैं. अपने पिता की विरासत को न बचा पाने की तोहमत तो उन पर लगनी ही है. उन्होंने राजनीति में खुद को या अपनी पार्टी को ओवर एस्टिमेट कर लिया. शायद उन्हें लगा कि जनता ठाकरे परिवार को चाहती है. ठाकरे जो चाहेंगे उसके हिसाब से जनता अपने विचार बना लेगी. यह भूल आम तौर पर वही करता है जो जनता के बीच नहीं होता. उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ने वाले सभी नेता यही कहते रहे हैं कि वो आम लोगों को छोड़िए विधायकों और सांसदों तक से नहीं मिलते हैं. आइये देखते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने पिता के नाम और उनकी कड़ी मेहनत से तैयार की गई पार्टी का बंटाढार कर दिया.

1- हिंदुत्‍व पर अपने पिता की विचारधारा से दूर जाना महंगा पड़ गया

जिन लोगों ने नब्बे के दशक में भारतीय राजनीति को बहुत नजदीक से देखा है उन्हें पता होगा कि देश के एकमात्र हिंदूवादी नेता बाला साहब ठाकरे होते थे. बाबरी मस्जिद के विध्वंस की जिम्मेदारीताल ठोंककर लेने का साहस केवल उन्हीं में था.बाबरी विध्वंस के बहुत पहले 1987 में मुंबई के विले पारले के उपचुनाव में बाल ठाकरे ने एक सभा में कहा था, हम ये चुनाव हिंदुओं की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. हमें मुस्लिम वोटों की परवाह नहीं है. यह देश हिन्दुओं का है और उनका ही रहेगा. इस चुनाव में शिव सेना उम्मीदवार रमेश प्रभु की जीत हुई थी लेकिन 1989 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने बाल ठाकरे और रमेश प्रभु दोनों को ही भड़काऊ भाषण के मामले में दोषी पाया और नतीजे को रद्द कर दिया. रमेश प्रभु ने हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी लेकिन दिसंबर, 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले को बरकरार रखा. सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा के तौर पर 1995 से 2001 तक बाल ठाकरे के वोट डालने पर भी प्रतिबंध लगा दिया.

Advertisement

हिंदुत्व को लेकर बाल ठाकरे इतने सख्त थे जितनी आज के दौर की भी बीजेपी नहीं हुई है. उन्होंने एक बार मुसलमानों के मताधिकार को वापस लेने की मांग कर दी थी. शिव सेना ने भी साल 2015 में इसे दोहराया था. सामना में तब शिव सेना नेता संजय राउत ने लिखा, कि जब तक मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहेगा, उनका कोई भविष्य नहीं है. यही कारण है कि बाल ठाकरे ने मांग की थी कि मुसलमानों के वोटिंग अधिकार छीन लिए जाएं. जिस दिन मुसलमानों के वोटिंग अधिकार छीन लिए जाएंगे, उस दिन धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाले लोगों का मुखौटा उजागर हो जाएगा.

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि उद्धव ठाकरे ने अपने पिता की विचारधारा से समझौता किया पर महत्वपूर्ण बिंदुओं पर वो हमेशा हिंदुत्व के साथ रहे. जिस तरह हिंदुत्व का विरोध करने वाले अजित पवार केवल महायुति के गठबंधन में शामिल होकर हिदुओं का वोट पा गए. पर कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर हिंदुत्व के साथ खड़े होकर भी उद्धव को हिंदुओं ने नकार दिया. याद करिए संसद में वक्फ बोर्ड बिल पर शिवसेना ने कांग्रेस वाला स्टैंड नहीं लिया. इसके लिए मुसलमानों ने मातोश्री पहुंचकर उद्धव से शिकायत भी की थी. इसी तरह शिवसेना यूबीटी ने केवल एक मुस्लिम को इस बार के विधानसभा चुनावों में टिकट दिया. जबकि अजित पवार ने कई मुसलमानों को टिकट देकर भी हिंदुओं का वोट पाने में सफल रहे. उद्धव ठाकरे ने मुस्लिम शासकों के नाम पर बने जिलों का नाम बदलने वाले फैसले का भी कभी विरोध नही किया. हालांकि नाम बदलने का काम खुद ठाकरे ने अपने शासन के अंतिम दिनों में किया था. इसलिए विरोध का सवाल ही नहीं उठता था.

Advertisement

2- सावरकर पर समझौता करकेमराठा स्वाभिमान वाले नेता की इमेज खराब हुई

कभी राष्ट्रभक्त विनायक दामोदर सावरकर केहिंदुत्व जैसा ही शिवसेना काहिंदुत्वहुआ करताथा. यूं कहा जा सकता है कि आरएसएस के हिंदुत्व से जहां बीजेपी प्रभावति है वहीं सावरकर के हिंदुत्व का प्रभाव शिवसेना पर रहा है. पर कांग्रेस के समर्थन से मिले मुख्यमंत्री पद के चलते उद्धव ठाकरे ने सावरकर के अपमान को कभी अपना अपमान नहीं माना. राहुल गांधी अपने हर भाषण में सावरकर की इज्जत को तार-तार करते रहे और उद्धव ठाकरे गठबंधन धर्म निभाते रहे. पीएम मोदी ने इन चुनावों में उद्धव ठाकरे को एक चैलेंज दिया था कि एक बार सावरकर की तारीफ कांग्रेस नेताओं से उद्धव ठाकरे करवा कर देखें. यही नहीं उन्होंने यह भी चैलेंज दिया कि एक बार राहुल गांधी बाला साहब ठाकरे को हिंदू हृदय सम्राट कह कहकर बोल दें. बीजेपी ने इस तरह इस मुद्दे को भुनाया कि उद्धव ठाकरे को जवाब देना मुश्किल हो गया था. सावरकर पर समझौता करने का असर ये हुआ कि लोगों ने शिंदे सेना को असली शिवसेना मान लिया.

3- पालघर के साधुओं की हत्या पर ढुलमुल रवैया

16 अप्रैल, साल 2020 में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की लिंचिंग के दौरान हत्या कर दी गई थी. प्रदेश के मुख्यमंत्री उस दौरान उद्धव ठाकरे थे. उनकी सरकार कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से चल रही थी. यह घटना कथित तौर पर बच्चा चोरी का शक जताते हुए पालघर इलाके के गढ़चिंचले गांव में हुई थी. जहां दो साधुओं कल्पवृक्ष और सुशील गिरी समेत ड्राइवर को पीट पीट कर भीड़ ने मार डाला था. इस घटना के बात उद्धव सरकार से जिस तरह के एक्शन की उम्मीद थी वह नहीं लिया गया.विपक्ष की मांग थी कि उद्धव सरकार को मामले की सीबीआई जांच कराए. लेकिन उद्धव सरकार ने ऐसा नहीं करते हुए इसे महज पुलिस जांच से ही सिमटा दिया.

Advertisement

उद्धव ठाकरे से अलग होने के बाद शिंदे गुट ने दांव खेलते हुए पालघर मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट से कराने की ठान ली. शिंदे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा कि महाराष्ट्र सरकार पालघर मामले की जांच सीबीआई से कराना चाहती है. इसी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए सरकार को सीबीआई जांच की इजाजत दे दी है.

4- कांग्रेस के पिछलग्‍गू बने

बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन ही 1966 में कांग्रेस पार्टी के विरोध में किया था वही शिवसेना जब बार-बार कांग्रेस पार्टी की ओर महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस की ओर मुंह ताकते देखती है तो आम जनता और बाला साहब की आत्मा दोनों को कष्ट जरूर होता होगा. उद्धव ठाकरे ने बीजेपी का साथ छोड़ कर कांग्रेस और एनसीपी से हाथ इसलिए ही मिलाया था ताकि उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल सके. जाहिर है कि बीजेपी को यह मंजूर नहीं था. पूर्व में भी जब भी शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार बनी तो फार्मूला यही था कि जिसके ज्यादा विधायक होंगे, मुख्यमंत्री उसी पार्टी का होगा.

लिहाजा 1995 में मुख्यमंत्री पद शिवसेना को मिला और 2014 में मुख्यमंत्री पद बीजेपी के खाते में गया. पर उद्धव ठाकरे की अति महत्वाकांक्षा का नतीजा है कि आज उनसे न केवल सत्ता दूरी हुई बल्कि पार्टी भी हाथ से निकल गई.जब तक बाला साहब ठाकरे जिंदा थे उनसे मिलने बड़े बड़ा नेता मातोश्री ही आता था. स्वयं बीजेपी नेता अमित शाह भी मातोश्री ही जाते थे. पर कांग्रेस के साथ गठबंधन में आने के बाद उद्धव ठाकरे सोनिया से मिलने दिल्ली जाने लगे. एक समय था दुनिया का सबसे बड़ा स्टार माइकल जैक्सन भारत आते हैं और सीधे मातोश्री पहुंचते हैं. मातोश्री का रुतबा भी उद्धव ठाकरे ने खत्म केवल गांधी फैमिली के चलते खत्म करना पड़ा.

Live TV

\\\"स्वर्णिम
+91 120 4319808|9470846577

स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.

मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Laptops | Up to 40% off

अगली खबर

Jharkhand Election Result: बाबूलाल ने ली BJP की हार की जिम्मेदारी, केंद्रीय नेतृत्व को भेजा भावुक भरा संदेश

राज्य ब्यूरो, रांची। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने अपने पद से इस्तीफे की पेशकश की है। विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली बड़ी हार के लिए नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए बाबूलाल मरांडी ने अपना पद छोड़ने का संदेश केंद्रीय नेतृत्व को दिया है। बता द

आपके पसंद का न्यूज

Subscribe US Now