मायावती के सामने अभी राजनीतिक अस्तित्व का खतरा तो नहीं है, लेकिन बीएसपी पर नेशनल पार्टी का दर्जा गंवाने की नौबत काफी करीब आ चुकी है.
हो सकता है इसी डर से बीएसपी इस बार यूपी में होने जा रहे उपचुनाव में सभी 10 सीटों पर लड़ने का फैसला किया हो. आपको याद होगा, एक जमाने में बीएसपी उपचुनावों से पूरी तरह दूरी बनाकर चलती थी, क्योंकि मायावती का मानना था कि उपचुनावों में अक्सर सूबे में सत्ता पर काबिज राजनीतिक पार्टी ही फायदे में रहती है.
लेकिन उपचुनावों से ठीक पहले पश्चिम यूपी में बीएसपी को बड़ा झटका लगा है. बिजनौर लोकसभा सीट से बीएसपी के टिकट पर 2024 का चुनाव लड़ चुके विजेंद्र चौधरी ने बीएसपी छोड़ दी है. वैसे बिजनौर लोकसभा सीट पर भी बीएसपी नगीना की तरह तीसरे नंबर पर ही थी.
नगीना से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद, इस वक्त मायावती के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभरे हैं. चंद्रशेखर आजाद को काउंटर करने के लिए ही मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को फटाफट मैच्योर मानते हुए फिर से बीएसपी का नेशनल कोऑर्डिनेटर और अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है.
चौधरी विजेंद्र सिंह के बारे में कहा जा रहा है कि उनके मीरापुर विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ने की बात चल रही थी. ऐसा वो खुद तो चाहते ही थे, बीएसपी के अंदर भी कई नेता चौधरी विजेंद्र सिंह के पक्ष में खड़े थे, लेकिन बात कहीं बनते बनते बिगड़ गयी. चौधरी विजेंद्र सिंह ने अपनी प्रतिक्रिया में बीएसपी छोड़ने वाले पुराने नेताओं की तरह कुछ कहा नहीं, बल्कि लोकसभा का टिकट देने के लिए आभार ही जताया है - लेकिन चौधरी विजेंद्र सिंह ने जो कहा है, वो महज एक राजनीतिक बयान ही लगता है
बहरहाल, मुद्दे की बात ये है कि मायावती अगर अब भी सियासत को लेकर सीरियस हैं, तो गठबंधन की राजनीति पर गंभीरता से सोचना शुरू कर देना चाहिये - और ये शुरुआत उपचुनावों से भी की जा सकती है.
बीएसपी पर कैसी तलवार लटक रही है
देश में जिन 6 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल है, उनमें एक बहुजन समाज पार्टी भी है. चुनाव आयोग की तरफ से राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता ये राजनीतिक दल हैं - बीजेपी, बीएसपी, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और NPP.
1. चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के मुताबिक, नेशनल पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के पास बीते आम चुनाव में चार या उससे अधिक राज्यों में कुल वैध मतों का कम से कम 6 फीसदी - और कम से कम चार सांसद होने चाहिये.
2. लोकसभा में कम से कम वो पार्टी 2 फीसदी सीटें जीत रही हो, जिसमें कम से कमा तीन राज्यों का प्रतिनिधित्व हो.
3. या कम से कम चार राज्यों में प्रदेश स्तर की पार्टी के रूप में मान्यता मिली हुई हो - ऐसे राजनीतिक दल को नेशनल पार्टी का दर्जा मिलता है.
लोकसभा चुनाव 2024 में बीएसपी का वोट शेयर गिरकर 2.04 फीसद पहुंच गया है. बीएसपी को 1997 में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता मिली थी. 2007 में मायावती की चर्चित सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत सत्ता में आई बीएसपी के 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर होने के बाद से खड़ा होना असंभव सा होने लगा है.
10 साल बाद बीएसपी एक बार फिर जीरो बैलेंस पर पहुंच गई है. 2014 की तरह 2024 में भी बीएसपी का लोकसभा में खाता नहीं खुल सका - और उससे पहले के 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी बीएसपी महज एक ही विधायक ही जुटा पाई थी.
संसदीय राजनीति में नुमाइंदे के तौर पर राज्यसभा में बीएसपी के एक मात्र सांसद अब रामजी गौतम बचे हैं - और जिस तरीके से भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद यूपी की नगीना लोकसभा सीट से संसद में दाखिल हो चुके हैं, मायावती की राजनीति पर भी खतरा मंडराने लगा है.
मायावती के लिए अब 'एकला चलो...' का फॉर्मूला बेकार
2007 को छोड़ दें तो मायावती राजनीतिक गठबंधन की बदौलत ही यूपी की मुख्यमंत्री बन पाई हैं, ये बात भी है कि आज की तारीख में भी देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं. भले ही चिराग पासवान का स्ट्राइक रेट सौ फीसदी क्यों न हो, और भले ही रामदास अठावले बगैर सांसद बने ही मंत्री क्यों न बन गये हों - कोई भी मायावती के आस पास भी खड़े होने की हैसियत में नहीं है.
नगीना सांसद चंद्रशेखर आजाद अचानक तेजी से उभरते हुए सितारे के रूप में जरूर नजर आ रहे हैं, लेकिन अंग्रेज कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट के नजरिये से देखें तो अभी उनको मीलों चलकर सफर पूरा करना है.
हाल ही में एक प्रेस कांफ्रेंस में मायावती हाथ में संविधान की कॉपी लिये देखी गईं, ठीक वैसे ही जैसे राहुल गांधी और अखिलेश यादव सहित विपक्षी दलों के सांसद संसद सत्र के पहले दिन लोकसभा पहुंचे थे.
मायावती ने संविधान की कॉपी दिखाई जरूर लेकिन सारे ही विपक्षी दल उनके निशाने पर वैसे ही रहे जैसे बीजेपी को लेकर बीएसपी नेता ने अपनी भावनाएं जाहिर की. मायावती ने कहा है कि सबके सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं. कहती हैं, बीजेपी और कांग्रेस अंदर से मिलीभगत करके बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के संविधान को बदलने में जुटे हुए हैं. ये बात मायावती तब कह रही हैं, जबकि लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन ने इसे मुद्दा बना दिया था.
मायावती गठबंधन से भागती रही हैं, लेकिन अब यही एक उपाय बचा है, अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए. बाकी वजहों के अलावा मायावती को लगता है कि गठबंधन से उनकी पार्टी का वोट बेस छिटक जाएगा. कहने को तो मुलायम सिंह यादव भी कांग्रेस से गठबंधन के खिलाफ थे, लेकिन अखिलेश यादव ने एक बार नुकसान उठाने के बाद दोबारा वही काम किया - और नतीजे सबके सामने हैं.
जैसे चुनावी गठबंधन की बदौलत अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों को यूपी में बीजेपी के सत्ता में होते हुए भी फायदा मिला है, मायावती को भी वैसे ही फायदा हो सकता है. जैसे कांग्रेस ने, देर से ही सही, लेकिन आगे बढ़ कर यूपी में अखिलेश यादव के सामने पूरी तरह झुक कर समझौता किया, मायावती के लिए भी ये सबक है.
और मायावती एक बार संकेत देकर तो देखें. 'राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था' वाले अंदाज में ही रिस्पॉन्स मिलेगा - और अभी तो गठबंधन ही मायावती के मैदान में बने रहने की गारंटी है.
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