साल 2024 जल्दी ही विदा लेने वाला है. भारतीय राजनीति के हिसाब से ये साल काफी महत्वपूर्ण रहा. आम चुनाव के साथ ही इस साल चार राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव भी हुए, जिसमें जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव बेहद खास रहा.
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के पांच साल बाद पहली बार वहां विधानसभा के लिए चुनाव हुए. अब जम्मू-कश्मीर ने जनता की चुनी हुई सरकार है. साथ ही, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए. नई सरकारों का भी गठन हो चुका है.
लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र प्रदेश और ओडिशा में भी विधानसभाओं के चुनाव हुए थे, जहां सत्ता बदल गई - देखा जाये तो चुनाव नतीजों से बहुत सारे नेता और राजनीतिक दल निराश हुए, लेकिन कई राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए उसमें खुशियों का पैगाम भी था - और हां, कुछ नेताओं के लिए बड़ी राहत की बात भी थी.
1. देवेंद्र फडणवीस तो 'समंदर' की ही तरह लौटकर आये
महाराष्ट्र की राजनीति में 2022 के तख्तापलट के बाद सबसे ज्यादा बुरा किसे लगा होगा, उद्धव ठाकरे को या देवेंद्र फडणवीस को? दर्द के कारण अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन लेवल बराबर या थोड़ा ऊपर नीचे ही होता है.
बेशक उद्धव ठाकरे का दर्द बड़ा था, लेकिन फर्ज कीजिये थोड़े ही समय बाद जब देवेंद्र फडणवीस को महाराष्ट्रा डिप्टी सीएम बनने का फरमान मिला तो कैसा लगा होगा? जो नेता पांच साल तक उस राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो, उसे क्या महसूस हो रहा होगा. वो भी तब जब वो तख्तापलट का रिंग मास्टर रहा हो - लेकिन देवेंद्र फडणवीस ने हंसते हंसते जहर का घूंट पी लिया था.
जब विधानसभा चुनाव की बारी आई तो पूरी ताकत से मैदान में कूद पड़े. हर तरफ लोगों के मुंह से देवा भाऊ सुनाई देने लगा. और नतीजे आये तो मालूम पड़ा बीजेपी की झोली में सबसे ज्यादा 132 विधानसभा सीटें पड़ चुकी हैं.
विधानसभा सत्र के दौरान एक बार देवेंद्र फडणवीस ने शायराना अंदाज में कहा था ‘मेरा पानी उतरता देख, मेरे किनारे पर घर मत बसा लेना. मैं समंदर हूं, लौटकर वापस आऊंगा...’
और वास्तव में जिस ‘समंदर’ने लौटकर आने का वादा किया था, शिद्दत से लौट भी आया है. देवेंद्र फडणवीस फिर से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गये हैं - और संतोष की बात ये है कि जिस मुख्यमंत्री के नेतृत्व में काम करना पड़ा था, वो एकनाथ शिंदे आज देवेंद्र फडणवीस के डिप्टी सीएम हैं.
2. प्रियंका गांधी भी सड़क के संघर्ष से संसद पहुंच गई हैं
प्रियंका गांधी वाड्रा अब वायनाड की सांसद बन चुकी हैं, और लोकसभा में संविधान पर बहस के दौरान अपने पहले ही भाषण से लोगों का ध्यान भी खींचा है. अपने अंदाज और लहजे से प्रियंका गांधी ने जता दिया है कि वो राहुल गांधी से बेहतर भाषण देती हैं. और ज्यादा कुछ कर सकती है, बशर्ते कांग्रेस उनको भी मौका दे.
2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले प्रियंका गांधी को राजनीति में औपचारिक एंट्री दी गई थी, लेकिन सिर मुंड़ाते ही जबरदस्त ओले पड़ गये. वो पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनाई गई थीं, लेकिन अमेठी से राहुल गांधी हार गये. प्रियंका गांधी के लिए ये राहुल गांधी से कम बड़ा सदमा नहीं था.
लेकिन 5 साल के भीतर ही प्रियंका गांधी ने बीजेपी की स्मृति ईरानी को एक कांग्रेस कार्यकर्ता से शिकस्त दिलाकर सूद सहित बदला ले लिया, और रायबरेली लोकसभा सीट पर राहुल गांधी को सांसद बनवा दिया - और अब भाई के साथ ही लोकसभा भी पहुंच चुकी हैं, राज्य सभा में मां सोनिया गांधी तो पहले से ही हैं.
3. अखिलेश यादव को लोकसभा चुनाव में 'छप्पर फाड़के' मिल गया
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अखिलेश यादव 2027 में पीडीए फॉर्मूले के बूते समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के दावे कर रहे हैं, लेकिन अभी बहुत वक्त है. तब तक यूपी की सत्ता से बाहर हुए उनको 10 साल हो चुके होंगे.
2027 में क्या होगा, अभी से कहा भी नहीं जा सकता. क्योंकि, यूपी की नौ सीटों पर हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के हिस्से में 2 सीटें ही आई हैं, जो लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों के मुकाबले कुछ भी नहीं है.
सत्ता में वापसी के प्रयास में अब तक लगातार दो बार फेल हो चुके अखिलेश यादव को लोकसभा चुनाव में जो मिला है, उसे 'छप्पर फाड़के' मिलना ही कहते हैं. समाजवादी पार्टी को लोकसभा चुनाव में 37 सीटें मिली हैं, जिसमें सबसे बड़ी जीत आयोध्या यानी फैजाबाद सीट पर अवधेश प्रसाद का सांसद बनना है.
4. राहुल गांधी को दस साल बाद मिला राहत भरी सांस लेने का मौका
2014 में केंद्र की सत्ता पर बीजेपी के काबिज हो जाने के बाद से ही राहुल गांधी लगातार संघर्ष कर रहे हैं. 10 साल के संघर्ष के बाद भी राहुल गांधी कांग्रेस के लिए शतक तो नहीं लगा सके, लेकिन 99 सीटें झोली में जरूर भर दी हैं. हालांकि, नांदेड़ की जीत के बाद ये आंकड़ा 100 पर पहुंच चुका है.
फिर भी राहुल गांधी का संघर्ष खत्म नहीं हो रहा है. लोकसभा में वो विपक्ष के नेता जरूर बन गये हैं, लेकिन INDIA ब्लॉक के नेतृत्व पर सवालिया निशान लग चुका है. सिर्फ लालू यादव की कौन कहे, अब तो कांग्रेस के ही नेता मणिशंकर अय्यर भी ममता बनर्जी को इंडिया ब्लॉक का नेता बनाये जाने की वकालत कर रहे हैं.
बीजेपी इंडिया ब्लॉक के बैनर तले गुजरात तक पहुंच कर हराने का दावा करने वाले राहुल गांधी को अडानी का मुद्दा उठाना भारी पड़ने लगा है. अडानी के मुद्दे पर ही ममता बनर्जी ने चुनौती पेश कर दी है, जिसके बाद आरजेडी और समाजवादी पार्टी जैसे राजनीतिक दल भी साथ छोड़ने लगे हैं.
वो तो केंद्रीय मंत्री अमित शाह के आंबेडकर पर बयान से मचा बवाल राहुल गांधी के लिए बड़ी राहत लेकर आया है - क्योंकि आंबेडकर के मुद्दे पर पूरा विपक्ष एक साथ विरोध कर रहा है, और इंडिया ब्लॉक का मुद्दा थोड़ा पीछे छूट रहा है.
5. चिराग पासवान का खोया हुआ सामान और सम्मान वापस मिल गया
2020 के बिहार चुनाव में बीजेपी के लिए नीतीश कुमार को बुरी तरह डैमेज करने के बाद चिराग पासवान का भी संकटकाल शुरू हो गया था. क्योंकि, नीतीश कुमार ने बदला लेने के लिए उनके चाचा पशुपति पारस की पीठ ठोक दी. पशुपति पारस तब लोक जनशक्ति पार्टी के नेता बन गये, और चिराग पासवान मन मसोस कर रह गये.
लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले चिराग पासवान ने चाचा पशुपति कुमार पारस और बीजेपी से हिसाब किताब बराबर कर लिया, और अब तो केंद्र सरकार में मंत्री भी बन गये हैं.
चिराग पासवान के लिए ये कोई बड़ी उपलब्धि तो नहीं, लेकिन बहुत पड़ी राहत की बात तो है ही - क्योंकि, यहां तक के सफर में न जाने कैसे कैसे दिन देखने पड़े.
6. उमर अब्दुल्ला के लिए राजनीतिक संबल बना है विधानसभा चुनाव
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म कर दिये जाने के बाद तो जैसे वहां के क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति ही खत्म हो गई थी. पूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके उमर अब्दुल्ला ने तो विधानसभा का चुनाव लड़ने की कौन कहे, मुख्यमंत्री तक बनने से इनकार कर दिया था.
लंबे समय तक नजरबंद रहने के बाद जिंदगी पटरी पर लौटी और लोकसभा के चुनाव हुए तो उमर अब्दुल्ला वो भी हार गये. वो भी इंजीनियर राशिद नाम के एक कट्टरवादी कश्मीरी नेता से.
जब विधानसभा के चुनाव कराये गये तो उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया, और शानदार जीत हासिल की. दूसरी तरफ पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती की तो राजनीति ही कगार पर पहुंच गई.
अब तो लगता है जैसे मुख्यमंत्री बनने के साथ ही जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला का एकछत्र राज हो गया है - क्योंकि, कांग्रेस एक तरह से किनारे ही लग गई है.
7. चंद्रबाबू नायडू ने जेल से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक का सफर पूरा किया है
उमर अब्दुल्ला की तरह चंद्रबाबू नायडू ने भी शानदार बाउंस-बैक किया है. आंध्र प्रदेश की पिछली सरकार के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी से सियासी अदावत ऐसी बढ़ी कि जेल तक जाना पड़ा, लेकिन बीजेपी की मदद से चीजें आगे बढ़ीं और यहां तक पहुंच पाईं.
और चंद्रबाबू नायडू ने सिर्फ जोरदार वापसी ही नहीं की है, बल्कि केंद्र की एनडीए सरकार में वो नीतीश कुमार की ही तरह एक मजबूत खंभा बने हुए हैं - कहते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही बीजेपी की सरकार नायडू और नीतीश की बैसाखी पर ही टिकी हुई है.
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