लोकसभा में मंगलवार को वन नेशन वन इलेक्शन विधेयक पेश किया गया. विधेयक को पेश करने के लिए लोकसभा में जो मतों का विभाजन दिख रहा है उसके आधार पर तो यही लग रहा है कि सरकार ने बिना बिल पास कराने की तैयारी के इस विधेयक को संसद के पटल पर रख दिया. लोकसभा में विधेयक को पेश करने के लिए हुए मतदान में सरकार को 269 मत मिले, जबकि विपक्ष को पड़े कुल 461 मतों में से 198 मत मिले. नरेंद्र मोदी सरकार को वन नेशन, वन इलेक्शन बिल को संसद के दोनों सदनों में पारित कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी. इस हिसाब से देखा जाए तो सरकार न तो विपक्ष के नंबर गेम को बिगाड़ पाई न ही अपने सभी वोटों को इकट्ठा कर पाई. यहां तक कि बीजेपी के 20 सांसद तीन लाइन का व्हिप जारी करने के बाद भी लोकसभा में मतदान करने नहीं पहुंचे. जिस तरह से लोकसभा में यह बिल पेश किया गया उससे ये समझना मुश्किल हो रहा है कि सरकार आखिर इस बिल के पेश करने की मंशा क्या थी ? पर इस बिल के सामने आने से विपक्ष की 5 चिंताएं ऐसी सामने आईं जिनके बारे में सरकार कहती है कि इसका कोई आधार नहीं है. पर कोई भी समस्या यूं ही जन्म नहीं लेती है. आइये विपक्ष के इस डर की तहकीकात करते हैं.
1-क्या एक देश एक चुनाव से रिजनल पार्टीज खत्म हो जाएंगी
कर्नाटक के डिप्टी सीएम और कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में शुमार डीके शिवकुमार कहते हैं कि इंडिया गठबंधन की ताकत क्षेत्रीय दलों के चलते ही बनी है. यही कारण है कि केंद्र सरकार क्षेत्रीय दलों को खत्म करना चाहती है. हैदराबाद के सांसद ओवैसी कहते हैं कि यह विधेयक क्षेत्रीय दलों को खत्म कर देगा, इसलिए मैं इस विधेयक का विरोध करता हूं.कहने का मतलब है कि एक देश एक चुनाव लागू करने का सबसे बड़ा विरोध इस लिए हो रहा है कि इसे क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की साजिश समझा जा रहा है.
हालांकि इसका कोई आधार नहीं है. उत्तर प्रदेश में 2024 लोकसभा चुनावों के साथ अगर विधानसभा चुनाव हुए होते तो किसे फायदा होता? जाहिर है कि समाजवादी पार्टी की सरकार बन गई होती. इसलिए ये कहना कि कोई एक राष्ट्रीय पार्टी दूसरी रिजनल पार्टीज को खत्म कर देगी संभव नहीं लगता. क्या पिछले 10 सालों में बंगाल में लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव एक साथ होते तो बीजेपी जीत जाती? एक साथ चुनाव होने के बाद भी 2019 में आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में एक क्षेत्रीय दल की जीत हुई थी. इसलिए इस आरोप में कोई दम तो नहीं दिखता.
2-सरकारी खर्च का बोझ नहीं होगा कम का तर्क गलत
सत्ता पक्ष कह रहा है कि एक साथ देश में चुनाव होने से सरकारी खजाने पर कम बोझ पड़ेगा. दावा है कि इससे जो पैसा बचेगा, वह इंडस्ट्रियल ग्रोथ में लगेगा. एक देश-एक चुनाव लागू होने से देश की GDP भी एक से डेढ़ फीसदी बढ़ सकती है. देश में आजादी के बाद साल 1951 में पहला आम चुनाव हुआ था. इस चुनाव में करीब 10.5 करोड़ रुपये खर्च हुआ था. चुनाव आयोग के मुताबिक 1951 कुल 17.32 मतदाता थे, जो साल 2019 में बढ़कर 91.2 करोड़ हो गए थे. आयोग के मुताबिक 2024 के चुनाव में 98 करोड़ मतदाताओं के नाम लिस्ट में थे.मोदी सरकार पहली बार 2014 में सत्ता में आई थी. चुनाव आयोग के मुताबिक इस चुनाव को कराने में करीब 3870 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इससे पहले 2009 लोकसभा चुनाव में 1114.4 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. 2009 के मुकाबले में 2014 में चुनावी खर्च करीब तीन गुना बढ़ गया. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में खर्च करीब 6600 करोड़ रुपये रहा था. फिलहाल ये तो सरकारी आंकड़े हैं . पर इसके साथ जो साइड इफेक्ट होते हैं उस नुकसान का आंकलन तो किया ही नहीं जाता. सरकारें बार-बार चुनाव संहिता लागू होने के चलते फैसले नहीं ले पाती. इससे कई फैसले प्रभावित होते हैं. इससे देश की आर्थिक प्रगति बाधित होती है.
विपक्ष का कहना है कि एक देश एक चुनाव में भी मध्यावधि चुनाव होंगे ही तो फिर सरकारी खजाने पर बोझ कहां खत्म होगा.दरअसल मध्यावधि चुनाव तब होते रहे हैं जब केंद्र अपनी मनमानी करते हुए किसी न किसी बहाने राज्य सरकारों को बर्खास्त कर देता था. पर पिछले 10 सालों में इस प्रवृत्ति में रोक लगी है. इसके पीछे सबसे कारण मतदाता की जागरूकता और सोशल मीडिया का सामने आना है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के जेल जाने के बाद भी केंद्र हिम्मत नहीं कर सका कि दिल्ली सरकार को बर्खास्त कर सके. इसके पीछे केंद्र का यही डर था कि सरकार को बर्खास्त करने के बाद जनता इसे बर्दाश्त नहीं करेगी. और मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर आम आदमी पार्टी को जनता वापस चुनकर भेज देगी.
3-एक पार्टी के वर्चस्व को कायम करने का जरिया बनेगा एक देश एक चुनाव
विपक्ष को लगता है कि एक देश एक चुनाव कानून लागू होने के बाद देश में एक पार्टी का वर्चस्व हो जाएगा. दरअसल ये आशंका भी अतार्किक ही है. देश में अभी एक देश एक चुनाव कानून लागू नहीं है. फिर भी पिछले 11 सालों से बीजेपी का पूरे देश पर वर्चस्व कायम है. इसके पहले कांग्रेस ने देश पर 5 दशकों तक शासन किया . इस दौर में कांग्रेस के सामने दूर-दूर तक कोई भी पार्टी खड़ा होने की ताकत नहीं रखती थी. 1990 से 2014 तक देश में एक देश एक चुनाव कानून नहीं बना था इसके बावजूद किसी भी एक पार्टी का वर्चस्व नहीं रहा. और ढेर सारे क्षेत्रीय दल इस दौर में मजबूत होकर उभरे. कुल मिलाकर एक देश एक चुनाव के चलते न कोई दल प्रभावी हुआ और न ही क्षेत्रीय दलों का विकास रुकता है. दूसरी बात यह भी है कि क्षेत्रीय दलों का विकास तभी होता है जब कोई समर्थ लीडर राष्ट्रीय दलों का नेतृत्व नहीं कर रहा होता है. जब तक कांग्रेस में मजबूत नेता मौजूद थे या जब तक बीजेपी में सशक्त नेतृत्व है तभी तक उसका वर्चस्व देश की राजनीति में है. जब लीडर कमजोर होते हैं तो स्थानीय क्षत्रपों का उदय होता है. यह लोकतंत्र में ही नहीं राज तंत्रों में होता रहा है. देश में मुगल काल , सल्तन काल, मराठा साम्राज्य से लेकर प्राचीन काल में भी रहा है.
4-संविधान की भावना के खिलाफ कैसे
विपक्ष का मानना है कि वन नेशन-वन इलेक्शन जनता के संवैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण करता है. दरअसल संविधान सभा में संविधान सभा के सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने आर्टिकल 289 पर चल रही बहस के दौरान कहा था कि हमारे संविधान में संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह चार साल का निश्चित चक्र नहीं है. चुनाव शायद लगभग हमेशा किसी न किसी प्रांत में होते रहेंगे.दरअसल विपक्ष को एक देश एक चुनाव के मसौदे का वह उपबंध पसंद नहीं आ रहा है जिसमें किसी कारणवश मध्यावधि चुनाव होने पर किसी राज्य में बनी सरकार सिर्फ तब तक के लिए वैध होगी जब तक कि लोकसभा का टर्म खत्म नहीं हो रहा.यदि यूनिवर्सल चुनाव होने के 4 साल बाद किसी राज्य में मध्यावधि चुनाव की नौबत आती है तो उसे सिर्फ एक साल के लिए ही मान्य समझी जाएगी. हालांकि विरोध करने वाले लोग इस उपबंध का विरोध कर रहे हैं. पर आज की तारीख में भी उपचुनाव से चुने गए विधायक या सांसद को टर्म बाकी समय के लिए होता है. हालांकि मध्यावधि चुनावों के बाद सरकार अभी 5 साल के लिए बनती है. पर अगर इस उपबंध पर ही केवल नाराजगी है तो इसमें संशोधन की मांग रखी जानी चाहिए. सरकार पहले ही बोल चुकी है कि इसे कानून पर जेपीसी विचार करेगी. जाहिर है कि अभी तो बहुत से संशोधन होंगे.
दूसरी बात संविधान में संशोधन का अधिकार खुद संविधान में दिया गया है. अनुच्छेद 327 में संसद समय-समय पर विधि के माध्यम से अपने प्रत्येक सदन, किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन, प्रत्येक सदन के लिए निर्वाचन संबंधित या उससे संबद्ध सभी विषय जैसे निर्वाचक नामावली तैयार कराना, निर्वाचन-क्षेत्रों का परिसीमन और ऐसे सदनों का सम्यक् गठन सुनिश्चित करना इत्यादि कार्यों का उपबंध कर सकेगी.
इसी अधिकार के तहत सरकार ने पूरी प्रक्रिया का पालक करते हुए एक देश एक चुनाव कानून बना रही है. पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक समिति बनाकर सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद ये रिपोर्ट तैयार की गई है. रिपोर्ट के मुताबिक, 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए, जिनमें से 32 दल 'वन नेशन, वन इलेक्शन' के समर्थन में हैं.
5-फेडरलिज्म खत्म हो जाएगा
डीएमके सांसद कनिमोझी ने मीडिया से बातचीत के दौरान कहा कि डीएमके ने लगातार कहा है कि हम विधेयक का विरोध करते हैं. हम यह स्वीकार नहीं करते कि एक राष्ट्र और एक चुनाव हो सकता है क्योंकि यह संविधान के खिलाफ है. यह संघीय अधिकारों के खिलाफ है और यह लोगों की इच्छा के खिलाफ है. लोग पांच साल के लिए राज्य सरकार चुनते हैं. मुझे नहीं लगता कि आप लोगों से यह अधिकार छीन सकते हैं और चुनाव आयोग को यह तय करने के लिए दे सकते हैं कि कोई सरकार कितने साल चल सकती है या नहीं.
'वन नेशन वन इलेक्शन' पर केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने विपक्ष पर पलटवार करते हुए कहा कि मैं यह जानना चाहता हूं कि एक राष्ट्र एक चुनाव किस तरह संविधान विरोधी है? विपक्षी इतने समय से केवल रट्टा मार रहे हैं कि यह संघीय ढांचे के खिलाफ है लेकिन यह कैसे संघीय ढांचे के खिलाफ यह तो बताएं? अगर देश में एक साथ चुनाव हो रहे हैं तो कैसे संघीय ढ़ांचे पर प्रभाव हो रहे हैं? सवाल उठता है कि दुनिया के सबसे बड़े संघीय देश संयुक्त राज्य अमेरिका में एक साथ ही चुनाव होते हैं.
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