घोर निराशा के बीच आशा की धुंधली किरण भी उम्मीदें बढ़ा देती है. महाराष्ट्र की राजनीति में एकनाथ शिंदे बनाम उद्धव ठाकरे की लड़ाई में बिल्कुल ऐसा ही महसूस हो रहा है. उद्धव ठाकरे की उम्मीदें ही एकनाथ शिंदे की चुनौतियां हैं. एकनाथ शिंदे की चुनौतियां बढ़ने का सीधा असर उद्धव ठाकरे की राजनीति पर होगा - और ये उनके लिए उम्मीदें बढ़ाने वाला ही होगा.
एकनाथ शिंदे का महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री न बन पाना उद्धव ठाकरे के लिए वैसा ही है, जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना माना जाता है. अब आगे, ये बिल्ली की मेहनत और किस्मत पर निर्भर करता है कि वो सामने पड़ा सामान झपट कर ले लेती है या चूक जाती है.
उद्धव ठाकरे को भी अगर फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना है तो आगे मिलने वाले मौके को झपट कर अपने हिस्से में भर लेना होगा. एक छोटी सी भी चूक भारी पड़ सकती है. जरा सी भी असावधानी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है, जिससे उबर पाना आने वाले दिनों में बेहद मुश्किल होगा.
और एकनाथ शिंदे के हिस्से की बात करें तो भले ही महाराष्ट्र के लोगों ने 'गद्दार' को ही असली हकदार करार दिया है, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि जनता किसी को स्थाई तौर पर कुछ भी नहीं देती.
राइट टू रिकॉल को कानूनी शक्ल भले ही न मिला हो, लेकिन जनता का अपना हिसाब चलता है. बनाने और बिगाड़ने का फैसला लेने में ज्यादा देर नहीं लगती. देर बस प्रक्रिया में लगती है, जतना को बस मौके का इंतजार रहता है.
लोकसभा चुनाव तक महाराष्ट्र की जनता गुस्से में थी, लेकिन विधानसभा चुनाव आते आते सोचा, चलो एक मौका दे ही देते हैं - और कुल मिलाकर एकनाथ शिंदे को एक मौका ही मिला है, जिसमें उद्धव ठाकरे के लिए भी पूरी गुंजाइश छोड़ी गई है, महाराष्ट्र की जनता द्वारा.
बीएमसी चुनाव अब शिंदे और उद्धव दोनोंके लिए बराबर अहमियत रखते हैं
अगर विधानसभा चुनाव के नतीजे भी लोकसभा जैसे ही आये होते तो एकनाथ शिंदे का अस्तित्व डेंजर जोन में पहुंच गया होता. अभी की स्थिति में उद्धव ठाकरे उसी खतरनाक क्षेत्र में पहुंच गये हैं.
एकनाथ शिंदे के लिए 'गद्दार' कहा जाना उतना खतरनाक नहीं था, जितना सत्ता से दूर होना खतरनाक साबित होता. सत्ता न मिलने पर एकनाथ शिंदे की शिवसेना के अस्तित्व के लिए खतरा हो सकता है - ये ठीक है कि एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री नहीं बन पाये हैं, लेकिन सत्ता में सीधे हिस्सेदार तो हैं ही.
बेशक एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गये होते तो सियासी राह की सारी मुश्किलें खत्म हो गई होतीं, लेकिन जो हुआ है, वो बड़ी राहत की बात है - और उतनी ही राहत वाली बात उद्धव ठाकरे के लिए भी है.
सत्ता के बगैर संगठन चलाना भी मुश्किल होता है, राजनीति की मुश्किलें तो अलग ही होती हैं. कांग्रेस जैसी पार्टी की मौजूदा हालत सटीक मिसाल है. और, ये बात शरद पवार की राजनीति में भी लागू होती है.
अगर इस पैमाने पर एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे की तुलना करें, तो बड़ा फर्क नजर आता है - उद्धव ठाकरे एक बार संगठन को सत्ता के बगैर संभाल भी सकते हैं, लेकिन एकनाथ शिंदे के लिए ये ज्यादा मुश्किल टास्क है - क्योंकि एकनाथ शिंदे वाली व्यवस्था तो सत्ता के लिए ही पैदा हुई है, हिंदुत्व और बालासाहेब ठाकरे तो बस पैकेजिंग मैटीरियल हैं.
सबसे बड़ी बात. शिवसैनिक या जो भी नेता हैं, एकनाथ शिंदे के साथ सत्ता की वजह से ही हैं, वरना बाकी चीजों के लिए तो उद्धव ठाकरे हैं ही. रही बात उद्धव ठाकरे के हिंदुत्व की राजनीति की, तो वो तो पहले से ही कट्टर हिंदुत्व वाली शिवसेना को उदारवादी बना चुके थे. शिवसेना का पुराना वर्जन तो उद्धव ठाकरे ने राज ठाकरे के लिए छोड़ दिया था.
बीएमसी चुनाव में मिलेगा असली शिवसेना का सर्टिफिकेट
सत्ता में हिस्सेदार होना और मुख्यमंत्री बनना, दोनो अलग अलग बातें हैं, और एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री बनने न बन पाने का फायदा और नुकसान जानने का सही और सटीक पैमाना भी है.
सत्ता का प्रभाव अलग ही होता है. उपचुनावों और स्थानीय निकाय के चुनावों में सत्ताधारी दलों को अक्सर मिलने वाली कामयाबी के पीछे असली वजह भी यही होती है - और यही वजह है कि असली शिवसेना की पैमाइश भी बीएमसी चुनाव के नतीजे आने पर ही हो सकेगी.
ये तो साफ है कि उद्धव ठाकरे की राजनीति की आखिरी उम्मीद बीएमसी के चुनाव ही हैं. एकनाथ शिंदे का मुख्यमंत्री न बनना निश्चित तौर पर उद्धव ठाकरे के लिए अच्छा हुआ है, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि बीएमसी चुनाव जीतने की कोशिश में एकनाथ शिंदे अकेले नहीं होंगे. बाकी मामलों की बात और है, लेकिन बीएमसी चुनाव में बीजेपी की पूरी मशीनरी एकनाथ शिंदे के साथ ही होगा, क्योंकि बीजेपी की अपनी दिलचस्पी है. बीजेपी को असली शिवसेना के साथ बने रहना है, और अगर बीएमसी चुनाव के नतीजों में एकनाथ शिंदे पिछड़ जाते हैं तो ये बीजेपी के लिए भी ठीक नहीं होगा.
चुनाव आयोग और कानून के कोर्ट के बाद जनता की अदालत में भी शिवसेना के बंटवारे पर मुहर लग चुकी है. देखा जाये तो एक तरीके से जनता ने एकनाथ शिंदे को शिवसेना का मालिकाना हक अस्थाई तौर पर सौंप दिया है, लेकिन एकनाथ शिंदे के पास ये सब वैसे ही जैसे सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला आने तक अजित पवार एनसीपी का नाम और चुनाव निशान इस्तेमाल कर रहे हैं.
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