महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अपमानजनक हार के बाद महाविकास अघाड़ी(एमवीए) के भीतर विचारधारा को लेकर असंतोष शुरू हो गया है. उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना पर गठबंधन छोड़ने का दबाव बढ़ रहा है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार सोमवार को ठाकरे द्वारा आयोजित एक बैठक में शिवसेना (यूबीटी) के अधिकांश 20 विधायकों ने गठबंधन छोड़ने का पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से आग्रह किया. इन विधायकों का कहना था कि शिवसेना (यूबीटी) के जमीनी कार्यकर्ता, जो विधानसभा चुनावों में एकनाथ शिंदे की शिवसेना के 57 सीटों की तुलना में बुरी तरह से पिछड़ गए, उनका मानना है किइसका एक मात्र कारणएमवीए की विचारधारा है. क्योंकि इस गठबंधन में रहने के चलते शिवसैनिकों को उनके मूल विचार हिंदुत्व से समझौता करना पड़ गया. हालांकि कहा जा रहा है कि ठाकरे और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता जैसे आदित्य ठाकरे और राज्यसभा सांसद संजय राउत का मानना है कि अभी गठबंधन के साथरहने में ही भलाई है. पर पार्टी में इस बात को लेकर मंथन शुरू हो गया है. जाहिर यह मंथन कबसंघर्ष का रूप में बदल जाए कहा नहीं जा सकता.
1-बीएमसी चुनावों में अकेला जाना हो सकता है फायदेमंद
विधानसभा चुनावों में मिली हार के चलते शिवसेना (यूबीटी) के बहुत से विधायकों का मानना है कि अब समय आ गया है कि पार्टी स्वतंत्र राह अपनाए. महाराष्ट्र विधान परिषद में विपक्ष के नेता अंबादास दानवे ने कहा कि अब अपने दम पर चुनाव लड़ने और किसी गठबंधन पर निर्भर न रहने का समय आ गया है. शिवसेना कभी सत्ता का पीछा करने के लिए नहीं बनी थी… सत्ता स्वाभाविक रूप से आएगी, जब हम अपनी विचारधारा पर अडिग रहेंगे. दरअसल महाराष्ट्र में बहुत जल्दी बीएमसी का चुनाव होने वाला है. बीएमसी पर राज करने वाली पार्टी ही मुंबई पर राज करती है. पार्टी में कुछ विधायकों का मानना है कि मुंबई में पार्टी बहुत मजबूत स्थिति में है. अगर हम अकेले लड़ते हैं तो शिंदे सेना को जो वोट कट्टर हिंदुओं के मिले हैं वो वापस शिवसेना यूबीटी को मिल सकते हैं. क्योंकि कांग्रेस और एनसीपी शरद पवार के साथ चुनाव लड़ने के चलते अविभाजित शिवसेना के कोर वोटर्स शिंदे सेना की ओर चले गए थे.
पर सवाल उठता है कि क्या यह उचित समय होगा. बीएमसी चुनावों में ज्यादा समय भी नहीं बचा है. दूसरे अगर शिवसेना के कोरवोटर्स अगर बंटे हैं तो कांग्रेस और एनसपी (एसपी) के चलते मुस्लिम वोटर्स का समर्थन बढ़ा भी तो है. बीएमसी में मुस्लिम वोटों की भूमिका का मोह छोड़ना शिवसेना (यूबीटी) के लिए मुश्किल ही लग रहा है.
2-शिवसेना यूबीटी को मिले वोट अभी उम्मीद जगाते हैं
विधानसभा चुनावों के नतीजे में मिले शिवसेना यूबीटी को मिले वोट शेयर और कुल जीते गए सीटों की बात करे तो इसे झटका ही कहा जाएगा. पर जब तुलनात्मक रूप से देखेंगे तो उद्धव सेना कोज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं महसूस होती. वोट प्रतिशत यह उम्मीद जगाती है कि फिर मेहनत करके पार्टी अपने पैरों के बल पर खड़ी हो सकती है. एमवीए को मिली 46 सीटों में शिवसेना-यूबीटी की 20, कांग्रेस की 16 और एनसीपी-एसपी ने 10 सीट जीतने में सफलता हासिल की. पर शिवसेना (यूबीटी) को 9.96% वोट मिले, जो शिंदे शिवसेना से लगभग 3% पीछे थे. जबकि छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव परिणामों में शिवसेना (यूबीटी) को 16.72% वोट मिले थे. यानि कि अगर विचारधारा की बात थी तो लोकसभा चुनावों में जनता ने क्यों नहीं खारिज किया. दूसरे विधानसभा चुनावों में शरद पवार और कांग्रेस जिन्होंने अपने विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया था उनका भी पतन हुआ. इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि एमवीए छोड़ देने से शिवसेना यूबीटी अचानक फाइट में आ जाएगी. शिंदे सेना को जो वोटों को बढ़ोतरी हुई वो एनसीपी (अजीत पवार ) के साथ भी हुई है. मतलब ये वोट बीजेपी के लिए थे. इसलिए अगर एमवीए छोडकर उद्धव ठाकरे अपना अलग अस्तित्व भी बनाते हैं तो कोई खास उम्मीद नहीं जगती है. यह भी हो सकता है कि उल्टा वोट प्रतिशत और कमहो जाए.
3-विचाराधारा के अंतर्विरोध वाली बात होती तो एनसीपी को फायदा क्यों मिलता?
जिस तरह की खबर आ रही है कि शिवसेना यूबीटी की हार के पीछे विचारधारा का अंतर्विरोध काम कर रहा था. पर यह कितना सही है यह कहा नहीं जा सकता. शिवसेना (यूबीटी) के एक नेता ने कहा कि एमवीए में अंतर्निहित विरोधाभास हैं. यह बीजेपी और शिंदे शिवसेना का विरोध करने के लिए बनाया गया गठबंधन है, लेकिन यह स्वाभाविक रूप से एक सुसंगठित गठबंधन नहीं है. पर गौर करने वाली बात है कि एनसीपी अजीत पवार के साथ महायुति के दलों का कौन सा स्वाभाविक गठबंधन है. अगर महायुति में रहते हुए बीजेपी के विरोध के बावजूद अजित पवार ने नवाब मलिक और उनकी बेटी को टिकट दिया ही साथ में मोदी के साथ मंच शेयर करने से भी मना कर दिया. इसके बावजूद उन्हें हिंदुओं का वोट मिला. इसी तरह उद्धव ठाकरे ने भी एमवीए में रहते हुए भी हिंदुत्व के मुद्दे पर कभी पीछे हटने वाला बयान नहीं दिया. वक्फ बिल पर संसद में मोदी सरकार का साथ दिया. साथ ही केवल एक ही मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट दिया.जिलों के नाम बदलने पर पूरी शिद्दत के साथ पार्टी कायम रही. हिंदुत्व के किसी भी मुद्दे पर पार्टी झुकती नजर नहीं आई. इसलिए ये कहना सही नहीं लगता कि एमवीए के साथ होने के चलते शिवसेना उद्धव गुट को काफी परेशानियां झेलनी पड़ीं.
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