12 नवंबर को अजित पवार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पुणे रैली के मंच पर बात करते देखा गया था, लेकिन 14 नवंबर की मुंबई की रैली में ये सीन नदारद रहा - और इस 48 घंटे के अंदर जो कुछ हुआ, वही अजित पवार के मोदी की रैली से दूरी बनाने की वजह हो सकती है.
एक कारण तो कारोबारी गौतम अडानी पर अजित पवार का बयान भी हो सकता है, जो उसी दौरान इंटरव्यू के जरिये सामने आया था. योगी आदित्यनाथ का स्लोगन 'बंटेंगे तो कटेंगे' भी एक कारण हो सकता है.
दादर के शिवाजी पार्क मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समापन भाषण हुआ. मोदी ने रैली में आये लोगों से कहा, 'आज महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की मेरी आखिरी सभा है... हर क्षेत्र के लोगों से मेरा संवाद हुआ है... पूरे महाराष्ट्र का आशीर्वाद आज महायुति के साथ है.'
महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों के लिए 20 नवंबर को होने जा रहे चुनाव को लेकर मोदी की रैली में न तो महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम अजित पवार नजर आये, न ही एनसीपी के बाकी वरिष्ठ नेताओं ने हिस्सा नहीं लिया. NCP उम्मीदवार सना मलिक, नवाब मलिक और जीशान सिद्दीकी भी महायुति की रैली में शामिल नहीं हुए, जबकि शिवसेना (शिंदे गुट) और रामदास अठावले के नेतृत्व वाली आरपीआई सहित सहयोगी दलों के उम्मीदवार मंच पर मौजूद थे.
महायुति के बैनर तले अजित पवार की एनसीपी 59 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि एकनाथ शिंदे की शिवसेना 81 सीटों पर चुनाव लड़ रही है - और बीजेपी सबसे ज्यादा 149 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. साथ ही, आरपीआई, युवा स्वाभिमान पार्टी, राष्ट्रीय समाज पक्ष और जनसुराज्य पक्ष भी महायुति का हिस्सा हैं, जो एक एक सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
योगी आदित्यनाथ के बयान के विरोध के साथ ही, अजित पवार ने ये भी कहा था कि जिन सीटों पर भी उनके उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और यूपी के मुख्यमंत्री को चुनाव प्रचार करने की जरूरत नहीं है.
क्या ये अजित पवार की रणनीति है या सामूहिक फैसला?
अजित पवार का रुख देखकर तो लग रहा था कि वो अपने वोट बैंक पर फोकस कर रहे हैं. एनसीपी के वोटर मुस्लिम और क्रिश्चियन रहे हैं, और बीजेपी के साथ होने पर अजित पवार का उनका वोट नहीं मिलने वाला.
अजित पवार को साथ लेने से बीजेपी का भी वोटर नाराज है. ऐसे में तो एक ही उपाय बच रहा था, अपना अपना एजेंडा आगे बढ़ाओ. बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ के जरिये हिंदुत्व का एजेंडा बढ़ा दिया, और अजित पवार ने विरोध करके अपना एजेंडा सामने रख दिया है.
ऐसे में वोटर के लिए ये समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि अजित पवार अपनी तरफ से बीजेपी से दूरी बना रहे हैं, या बीजेपी ने ऐसा करने के लिए उकसाया है - या फिर, ये किसी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत हो रहा है.
1. योगी विरोध के नाम पर मोदी विरोध भी समझें क्या?
खेल तो तभी शुरू हो गया था जब यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयान 'बंटेंगे तो कटेंगे' के साथ महाराष्ट्र में जगह जगह पोस्टर लगाये जाने लगे थे. और उसी बात को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक लाइन दे डाली, एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे. एक तरीके से मोदी योगी की बात को एनडोर्स ही किया है.
योगी आदित्यनाथ के बयान पर आपत्ति जताते हुए अजित पवार ने कहा था कि वो ऐसी चीजों का समर्थन नहीं करते, और महाराष्ट्र में ये सब नहीं चलता. और उसी बात को आगे बढ़ाते हुए यहां तक कह डाला था कि एनसीपी उम्मीदवारों के लिए मोदी, शाह या योगी को वोट मांगने की जरूरत नहीं है.
मोदी की रैली से अजित पवार के दूरी बना लेने के बाद उनके समकक्ष डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस का बयान आया है, 'दशकों तक अजित पवार ऐसी विचारधाराओं के साथ रहे, जो सेक्युलर और हिंदू विरोधी हैं... खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वालों में कोई वास्तविक धर्मनिरपेक्षता नहीं है... वो ऐसे लोगों के साथ रहे हैं, जिनके लिए हिंदुत्व का विरोध करना ही धर्मनिरपेक्षता है.'
2. क्या अजित पवार सेक्युलर बने रहने की कोशिश कर रहे हैं?
देवेंद्र फडणवीस तो कह ही रहे हैं, सवाल ये उठता है कि क्या अजित पवार भी नीतीश कुमार की तरह एनडीए में रहते हुए भी सेक्युलर बने रहना चाहते हैं? जैसे, नीतीश कुमार बीजेपी के यूसीसी एजेंडे का सपोर्ट नहीं करते, 'जय श्रीराम' और 'भारत माता की जय' जैसे नारे लगाये जाने पर मंच पर बैठे बैठे मुस्कुराते रहते हैं. चुनाव कैंपेन के दौरान कमल का सिंबल हाथ में थमा दिया जाता है, तो धीरे से नीचे गिरा देते हैं - ये बात अलग है कि अब तो बीजेपी नेताओं से मिलते ही पैर छूने के लिए परेशान हो जाते हैं - लेकिन अजित पवार किस रास्ते पर चल रहे हैं?
3. क्या अजित पवार ये सब निजी तौर पर कर रहे हैं?
बीजेपी के स्लोगन और हिंदुत्व कार्ड से असहमति जता कर, हो सकता है अजित पवार को लगता हो कि वो अपनी सेक्युलर छवि पेश करके पिछले चुनाव के बराबर सीटें जीत लेंगे. अगर वास्तव में ऐसा संभव हुआ तो कई रास्ते और भी खुल जाएंगे.
लेकिन, क्या अजित पवार निजी तौर पर ये सब कर रहे हैं? मतलब, बीजेपी की बिलकुल भी सहमति नहीं हासिल है?
4. अलग-अलग चुनाव लड़ने का फैसला सामूहिक तो नहीं है?
ये भी तो हो सकता है, मिल बैठकर तय किया गया हो. ऐसा करके लोगों को भ्रम में रख कर बीजेपी के खिलाफ वाले सेंटिमेंट को भुनाया जा सके, और वो वोट भी लिये जा सकें जो विपक्ष के खाते में जा सकता है - क्योंकि अजित पवार की लड़ाई तो अब जाकर दिखाई पड़ रही है, अंगड़ाई तो वो पहले से ही ले रहे हैं.
जैसे, बारामती से पत्नी सुनेत्रा पवार को चुनाव लड़ाये जाने पर अफसोस जताना. देखा जाये तो, अजित पवार की अपनी भी विधानसभा सीट भी तो दांव पर लगी हुई है.
5. क्या सीनियर पवार की भी कोई भूमिका हो सकती है?
एक रास्ता तो ये भी हो सकता है कि बीजेपी से संभव न हो तो, महाविकास आघाड़ी से मोलभाव कर लें. ऐसा करके वो अपने लिए डिप्टी सीएम की कुर्सी तो पक्की कर ही सकते हैं - लेकिन ये तो तभी मुमकिन होगा जब सीनियर पवार यानी शरद पवार की भी दिलचस्पी होगी.
एक इंटरव्यू में ये पूछा भी जाता है कि क्या पवार परिवार फिर से एक साथ आ सकता है?
अजित पवार कहते हैं, 'मैंने अभी इसके बारे में नहीं सोचा है... अभी मेरा ध्यान चुनावों, और महायुति की 175 सीटों पर जीत सुनिश्चित करने पर है.'
हाल ही में कारोबारी गौतम अडानी को लेकर भी अजित पवार का बयान आया था, जिसमें वो दिल्ली की एक मीटिंग का जिक्र कर रहे थे. अजित पवार के मुताबिक, उस मीटिंग में अडानी के साथ अमित शाह से लेकर शरद पवार तक शामिल थे - क्या अजित पवार के मोदी की रैली से दूरी बनाने की एक वजह ये बयान भी हो सकता है?
अजित पवार की बातों से लगता है कि महाराष्ट्र के पूरे खेल में वो बस चेहरा है, रिंग मास्टर तो शरद पवार हैं. बात आइडियोलॉजी की होती है तो कहते हैं, 'विचारधारा के बारे में मत पूछिये... महाराष्ट्र की राजनीति बदल गई है... हर कोई सत्ता चाहता है, और विचारधारा को किनारे रख दिया है.'
अब तो ज्यादा सोचने समझने की जरूरत भी नहीं लगती. तस्वीर पूरी तरह साफ लगती है - और अजित पवार कितने भी कुलांचे भरें, महाराष्ट्र की बिसात पर एक प्यादा ही लगते हैं.
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