आलम यह है कि देश कई गंभीर और जटिल मुद्दों से जूझ रहा है और हम उलझे पड़े हैं, बटेंगे तो कटेंगे' या फिर 'संविधान बचाओ' जैसे नारों में. असल में ये सारे नारे सिर्फ भ्रामक हैं और इनसे जुड़े जो भी बनावटी किस्से हम-आप तक पहुंच रहे हैं, वह महज एक कोशिश है कि हमें असल मुद्दों से भटकाया जा सके. बात तो कुछ और ही है. ये सब मिलकर एक और बड़ी समस्या की ओर इशारा करते हैं और ये समस्या है हमारे लॉ इनफोर्समेंट सिस्टम की असफलता. मेरे पास इस समस्या का पूरा समाधान तो नहीं है, लेकिन एक सुझाव जरूर है, बस एक सुझाव.
पहले आप इस बात पर ध्यान दें कि ईडी और सीबीआई कितने मामलों में दोष साबित कर सकी हैं? इसकी दर पर जाएंगे तो यह काफी हास्यास्पद है. आकड़े कहते हैं कि 5000 से अधिक मामलों में केवल 40 में ही दोष साबित किया जा सका है. हमारी इन एजेंसियों से ये उम्मीद और अपेक्षा कतई नहीं है कि ये रातों-रात एफबीआई जैसे बन जाएं, लेकिन लोगों को कम से कम इतनी उम्मीद तो होती ही है कि, जब अपने काम में सबूत जुटाने की प्रोसेस में हों, तो कुछ हद तक तो स्किल्ड दिखें.
सवाल यह है कि क्या इसका कारण उनकी जांच का चयनात्मक रवैया है? क्या उन्हें असफल होने के लिए बनाया गया है. क्योंकि बेहद जरूरी और सुलझने योग्य मामलों को उन्हें सौंपा ही नहीं जाता? इस लेख में हम ऐसे ही एक मामले की चर्चा करेंगे, लेकिन पहले व्यापक मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है.
अगर केंद्रीय एजेंसियां बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के निष्पक्ष रूप से काम करें तो स्थिति शायद बेहतर हो सकती है. फिलहाल, वे किसी मामले की जांच या अभियोजन के लिए हरी झंडी का इंतजार करते हैं, जैसा कि सत्ता में बैठे लोग निर्देश देते हैं. नतीजतन, वे केवल कठिन और पेचीदा मामलों से ही निपटते हैं, और फिर आखिर में अपनी साख पर बट्टा लगा बैठते हैं. वहीं, आसान केस को राज्य के अफसरों के पास छोड़ दिया जाता है, जो अपनी कछुआ चाल से काम करने में ही संतुष्ट हैं.
सवाल यह भी उठता है: अगर ये एजेंसियां संविधान की रक्षा का दावा करती हैं, तो क्या वे साधारण चीजों की भी रक्षा कर सकती हैं? यहां बात हो रही है समोसे की. सामान्य 10 रुपये वाले समोसे की नहीं, बल्कि फाइव स्टार होटल से मंगवाए गए समोसे की, जिसे खरीदने में राज्य का पैसा खर्च हुआ है, वो पैसा दो टैक्सपेयर्स से वसूला गया है. अब अगर राज्य का समोसा ही सुरक्षित नहीं है, तो आम नागरिक के समोसे का क्या? बल्कि, आम नागरिक का कोई भी सामान कितना सेफ है.
सूत्र बताते हैं कि, हिमाचल प्रदेश की राज्य सीआईडी इस गायब हुए समोसे की गुत्थी सुलझाने में लगी हुई है. सवाल यह उठता है कि क्या उनके पास ऐसी क्षमता और ऐसे टूल्स हैं कि वे इस मामले को सुलझा सकें, समोसे को नहीं, बल्कि मामले को.
मजेदार बात यह है कि समोसा सीआईडी मुख्यालय से गायब हुआ, जब मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू वहां साइबर विंग की नई सिटिजन फाइनेंशियल साइबर फ्रॉड रिपोर्टिंग और मैनेजमेंट सिस्टम का उद्घाटन करने पहुंचे थे. ये समोसे उनके लिए ही थे, लेकिन एक पल में वे वहां नहीं रहे. मुख्यमंत्री सुक्खू समोसे नहीं खाते हैं, डॉक्टरों ने मना कर रखा है. लेकिन उनकी नज़र भी समोसे पर नहीं पड़ी, जिसे देखकर किसी भी सख्त डाइट वाले व्यक्ति का मन खुश हो जाता.
वहां सीसीटीवी कैमरे लगे हुए थे, लेकिन किसी ने, या शायद कुछ लोगों ने, इन लजीज समोसों को सुरक्षा के नाक के नीचे से गायब कर दिया. हिमाचल प्रदेश के 76 लाख नागरिक समोसे की किस्मत के बारे में अंधेरे में हैं. आम जनता में अफवाहें गर्म हैं क्योंकि मामले के तथ्य जानबूझकर धुंधले किए जा रहे हैं, ताकि एक शर्मनाक सच्चाई को छिपाया जा सके, सच्चाई, जो यह बताती है कि राज्य सरकार के निर्वाचित प्रमुख की सुरक्षा में लगे लोग मुख्यमंत्री के समोसे भी सुरक्षित नहीं रख पाए. जनता सवाल कर रही है कि अगर मुख्यमंत्री के समोसे सुरक्षित नहीं हैं, तो वे मुख्यमंत्री की सुरक्षा कैसे तय करेंगे.
अब बड़ा सवाल यह है कि क्या केंद्रीय एजेंसियां यह मामला अनदेखा कर देतीं अगर ये समोसे किसी बीजेपी-शासित राज्य के मुख्यमंत्री के लिए होते? ये वही एजेंसियां हैं जो राज्यों द्वारा सामान्य माफी को वापस लेने पर हंगामा मचाती हैं. यहां तो पहले से ही सामान्य माफी लागू है, लेकिन दिल्ली के मुख्यालय से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आई है.
अगर वे चाहें, तो वे इन समोसों की तलाश कर सकते हैं, भले ही वे अपराधियों के गले तक पहुंच चुके हों. इसके लिए बस संकल्प चाहिए. यहां एक चुनौतीपूर्ण लेकिन निर्णायक मामले में दोषियों की सजा का सुनहरा अवसर है, जिससे उनकी कम दोषसिद्धि दर में सुधार हो सकता है, 5000 में से 41, यानी एक अधिक.
कहते हैं, न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है. यह एक और बड़ा अन्याय है. तो क्या जांच में देरी... आखिर जांच का क्या? हर मिनट महत्वपूर्ण है, क्योंकि मामूली सबूत नष्ट हो रहे हैं. जैसे-जैसे घंटे बीतते जा रहे हैं, मामला और समोसे ठंडे हो रहे हैं. पहाड़ी राज्य की ठंडी आबोहवा इस जटिलता को और बढ़ा रही है.
अब मैं ये बातें यहीं रोकता हूं, मुझे अपने समोसों पर नजर रखनी है. आखिर, इन दिनों किसी पर भरोसा करना आसान नहीं है.
(कमलेश सिंह पूर्व संपादक, स्तंभकार और व्यंग्यकार हैं. वह लोकप्रिय पोडकास्ट तीन ताल में ताऊ के नाम से मशहूर हैं.)
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.
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