प्रशांत किशोर अपने हिसाब से बिहार की दलित राजनीति को बहुत उम्मीद से देख रहे हैं, वो भी ऐसे दौर में जब पड़ोस के उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति ढलान पर है. बिहार में अब भी कई नेता ऐसे हैं जो दलित वोट बैंक के बूते राजनीति में मैदान में बने हुए हैं.
ये प्रशांत किशोर की प्रयोगधर्मिता ही है कि लोग उनमें अक्सर अरविंद केजरीवाल का अक्स देखने लग रहे हैं. बेशक दोनोंकी राजनीति मेंकई चीजें कॉमन नजर आती हैं, लेकिन कई ऐसे फर्क भी हैं, जो डेमोग्राफी की डिमांड के हिसाब से ठीक लगते हैं.
प्रशांत किशोर जिस राइट-टू-रिकॉल का वादा कर रहे हैं, कभी अरविंद केजरीवाल भी ऐसी बातें करते थे, जब वो जन लोकपाल की मांग के साथ आंदोलन कर रहे थे. अरविंद केजरीवाल के भाषणों में तो ऐसी चीजें अब कभी भी सुनाई नहीं देतीं, प्रशांत किशोर ने तो अभी अभी जमीन पर कदम ही रखा है, उनको भी मौका तो मिलना ही चाहिये.
जन सुराज पार्टी की घोषणा के मौके पर प्रशांत किशोर का कहना था, जनसुराज देश का पहला ऐसा दल है जो राइट टू रिकॉल लागू करेगा… हमारे दल में जनता ही अपने उम्मीदवारों का चयन करेगी.
चुनाव घोषणा पत्र तो आजकल जनता की राय से ही तैयार किये गये बताये जा रहे हैं, लेकिन उम्मीदवारों के चयन और राइट-टू-रिकॉल जैसी बातों को अभी परखा जाना बाकी है.
देखा जाये तो प्रशांत किशोर वे सारे ही आजमाये हुए नुस्खे अपना रहे हैं, जो बीते चुनावों में कारगर साबित हो चुके हैं. फर्क बस ये है कि ये नुस्खे अभी तक प्रशांत किशोर अपने क्लाइंट के कैंपेन में आजमाते रहे हैं.
दलित राजनीति में भरोसे के पीछे कई कारण हैं. जिस तरह से प्रशांत किशोर ने मनोज भारती को जन सुराज पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है, उसमें मायावती वाले सफल सोशल इंजीनियरिंग की झलक देखी जा सकती है - लेकिन विजन तो मायावती को राजनीति में लाने वाले कांशीराम से ही प्रेरित लगता है.
बहुजन आबादी पर इतना भरोसा क्यों?
बहुजन आबादी के अब नये मायने समझाये जाने लगे हैं. कांशीराम के बहुजन की परिभाषा जातीय राजनीति के नये दौर में बदल चुकी है.
देश में दलित राजनीति के प्रभावी होने का क्रेडिट तो बिना किसी शक शुबहे के कांशीराम को ही जाता है, लेकिन वो उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद या सवर्णों के राजनीति में हावी होने के खिलाफ थी. अब जातीय जनगणना में जातियों के बहुमत से बहुजन की बात होने लगी है.
ये सही है कि भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर की ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ वाली जिद के चलते अखिले्श यादव से चुनावी गठबंधन नहीं हो पाया था, लेकिन जातीय जनगणना का जो बिगुल राहुल गांधी और तेजस्वी यादव मिल कर फूंक रहे हैं, उसमें जरूरी नहीं कि दलित ही बहुजन रह जायें. ये तो असली आंकड़े ही बताएंगे, लेकिन दावेदारी तो ओबीसी को लेेकर भी वैसी ही जताई जा रही है.
और यही वजह है कि प्रशांत किशोर का बहुजन कांशीराम से प्रेरित होने के बावजूद अलग नजर आता है. जिसमें दलित आबादी की कमी मुस्लिम वोट बैंक से पूरी करने की कोशिश चल रही है.
ये कांशीराम की मूल विचारधारा से आगे की चीजें हैं, जिसे मायावती ने कांशीराम के बताये दायरे में रहते हुए आगे बढ़ाया और सफल भी रहीं, लेकिन उसे बरकरार रखने में चूक गईं - तभी तो दलित राजनीति के जरिये नगीना लोकसभा सीट से संसद पहुंचे चंद्रशेखर आजाद, मायावती पर आरोप लगाते हैं कि वो कांशीराम के विचार से भटक गईं, और कांशीराम की राजनीतिक विरासत पर खुद दावेदारी पेश कर रहे हैं.
मायावती जैसी सोशल इंजीनियरिंग से शुरुआत
मनोज भारती को जन सुराज का कमान सौंपा जाना, मायावती के 2007 वाले सोशल इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेंट की याद दिला रहा है. उसी सोशल इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेंट के बूते मायावती पहली बार अपने बल पर यूपी में बीएसपी की सरकार बनाने में सफल हुई थीं, लेकिन धीरे धीरे बहुत कुछ गवां चुकी हैं.
मायावती ने दलितों का नेता होते हुए ब्राह्मणों के साथ गठजोड़ किया था, ब्राह्मण परिवार से आने वाले प्रशांत किशोर दलित नेता को सामने रख कर वही प्रयोग आजमाने की कोशिश कर रहे हैें.
मायावती ने आगे बढ़ कर ब्राह्मण-दलित गठजोड़ बनाकर सत्ता जरूर हासिल की - लेकिन ऐसा करने के चक्कर में वो कहीं की नहीं रहीं. बीएसपी का लगातार घटता वोट शेयर सबूत है. कांशीराम के जमाने में ‘तिलक-तराजू और तलवार…’ जैसे नारे चलते थे, लेकिन मायावती ऐसी बातों से दूरी बनाने लगीं और उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है.
प्रशांत किशोर के निशाने परहैं लालू, सियासत चिराग वाली, विकल्प नीतीश कुमार का
प्रशांत किशोर भी खुद को अरविंद केजरीवाल की तरह ही पेश कर रहे हैं, भले ही वो पूछे जाने पर इनकार करते हों, और अलग दलील देते हों. इसके पीछे मकसद ये है कि वे बिहार की जनता को यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि वे राजद की तरह लालू यादव के परिवारवादी फॉर्मूले का ध्वस्त करना चाहते हैं.
प्रशांत किशोर, मनोज भारती को अपने से काबिल बता रहे हैं, और ऐसे पेश कर रहे हैं कि सत्ता मिली तो वो मुख्यमंत्री भी बनेंगे - लेकिन क्या प्रशांत किशोर खुद को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने से रोक पाएंगे? आगे जो भी हो, फिलहाल वे अपनी बयानों और एक्शन से खुद को दलित हितैषी साबित कर रहे हैं. और चिराग पासवान और उनकी राजनीति को अपनी तरफ खींच रहे हैं.
अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में आने के लिए अन्ना हजारे के चेहरे को आगे किया था, ये तो प्रशांत किशोर भी जानते हैं कि मनोज भारती और अन्ना हजारे में बड़ा फासला है - अरविंद केजरीवाल तो अभी अभी कुर्सी का मोह छोड़ पाये हैं, प्रशांत किशोर के लिए भी ये सब काफी मुश्किल होगा. लेकिन, फिलहाल वे नीतीश कुमार का विकल्प बनना चाह रहे हैं. एक सर्व समावेशी नेता की तरह.
अगर प्रशांत किशोर खुद को कुर्सी से दूर रख पाते हैं, तो सफल होने के चांस ज्यादा लगते हैं. ऐसा करने के लिए प्रशांत किशोर को कांशीराम की तरह सत्ता से दूर रह कर मायावती की तरह मनोज भारती को ही आगे रखना होगा.
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