शिवाजी महाराज की प्रतिमा पर विवाद, महाराष्ट्र की गलत सियासी प्राथमिकताओं को करता है उजागर

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सियासत में कुछ अवतार ऐसे भी हैं जिन्हें छुआ नहीं जा सकता और न ही उन्हें टूटने और गिरने दिया जा सकता है. हर राज्य के अपने नायक होते हैं याअपनी प्रतिष्ठित शख्सियतें होतीहैं, जिनकी पहचान सीमाओं से परे होती है. महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज से बड़ा कोई नायक नहीं है.

1990 के दशक में मुझे शिवाजी महाराज के बारे में उस समय सबक मिला, जब मैंने मुंबई हवाई अड्डे का नाम बदलने को लेकर उपजे विवाद पर एक कॉलम लिखा था. मैंने जेआरडी टाटा को भारतीय नागर विमानन क्षेत्र में उनकी अग्रणी भूमिका के लिए यह सम्मान दिए जाने पर जोर दिया था. तुरंत, शिवसेना ने गुस्से से भरा एक संपादकीय लिखा, जिसमें जोर दिया गया कि हवाई अड्डे का नाम मराठा योद्धा-राजा (शिवाजी) के नाम पर रखा जाना चाहिए और किसी और के नाम पर नहीं. हमारे दफ्तर में कुछ धमकी भरे फोन कॉल भी आए, जिसमें लेख को वापस लेने की मांग की गई.

दोषारोपण की भी हुई कोशिश

इतने सालों पहले मैंने जो सबक सीखा था, वह आज महाराष्ट्र सरकार को परेशान और शर्मिंदा कर रहा है. सिंधुदुर्ग में शिवाजी महाराज की नई मूर्ति के ढहने से भावनात्मक आक्रोश और वाकयुद्ध शुरू हो गया है. महाराष्ट्र सरकार ने शुरू में भारतीय नौसेना पर दोष मढ़ने की कोशिश की, जिसने मूर्ति बनवाई थी, लेकिन जल्द ही वह पीछे हट गई और उसी स्थान पर और भी बड़ी मूर्ति बनवाने का वादा किया. विपक्ष ने सरकार पर मूर्ति के निर्माण में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए विरोध मार्च निकाला. महाराष्ट्र में कुछ ही महीने में विधानसभा के चुनाव होने हैं ऐसे में इस मुद्दे पर राजनीति होना स्वाभाविक है.

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यहां तक ​​कि प्रधानमंत्री, जो सार्वजनिक रूप से माफी मांगने के लिए नहीं जाने जाते, उनके पास भी खेद व्यक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे जिन्होंने पिछले दिसंबर में बहुत धूमधाम से मूर्ति का उद्घाटन किया था. एक मूर्ति जो मूल रूप से केवल छह फीट की बननी थी वह अचानक बिना उचित सामग्री का उपयोग किए 35 फीट की कैसे हो गई, यह जांच का विषय है. यदि स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार हुआ है तो सही जांच से ही खुलासा हो सकता है.

मूर्तियां सत्ता से ज्यादा महत्वपूर्ण

शोरगुल वाले आरोप-प्रत्यारोप से इतर देखें और सोचें कि एक महान शख्स की ढह गई मूर्ति हमें हमारी राजनीति और उसकी प्राथमिकताओं के बारे में क्या बताती है. महाराष्ट्र और देश भर में शिवाजी की सैकड़ों बड़ी और छोटी मूर्तियां हैं. अगर डॉ. बीआर अंबेडकर की मूर्ति देश भर के लगभग हर शहर और गांव में लगी हुई है, तो शिवाजी महाराज भी महाराष्ट्र के ज़्यादातर शहरों में एक प्रमुख स्थान रखते हैं.

किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए एक मूर्ति या स्मारक अक्सर एक श्रद्धेय व्यक्ति की विरासत को हथियाने का सबसे आसान विकल्प होता है. जब मायावती उत्तर प्रदेश में सत्ता में आईं, तो अंबेडकर की मूर्तियों और स्मारकों का निर्माण उनकी सरकार की मुख्य चिंताओं में से एक था. मायावती बाबासाहेब के अडिग संवैधानिक मूल्यों को अपनाए बिना, खुद को बाबासाहेब के अनुयायियों के साथ जोड़ना चाहती थीं.

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अरब सागर में बननी है एक और मूर्ति

महाराष्ट्र में भी, जो नेता करदाताओं के खर्च पर शिवाजी महाराज की बड़ी मूर्तियां बनवाने की बात करते हैं, वे बेहतर स्कूलों और अस्पतालों के निर्माण में उतनी तत्परता से निवेश नहीं करेंगे. उदाहरण के लिए, 2004 में, तत्कालीन कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के गठबंधन वाली सरकार द्वारा मुंबई में मुंबई के समीप अरब सागर में छत्रपति शिवाजी महाराज का स्मारक बनाने का प्रस्ताव रखा गया था. तब से, महाराष्ट्र में हर सरकार ने इस प्रतिमा को बनाने का वादा किया और इसकी तुलना न्यूयॉर्क में स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से की गई.

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बीस साल बाद, अदालत और पर्यावरण की लड़ाई में फंसी प्रतिमा अभी भी नहीं बन पाई है, जबकि लागत लगातार बढ़ती जा रही है. 2018 में प्रतिमा की अनुमानित लागत 3,600 करोड़ रुपये से अधिक थी. जिस शहर में गेटवे ऑफ इंडिया पर पहले से ही शिवाजी महाराज की प्रतिमा मौजूद है, क्या तटरेखा से दूर एक और प्रतिमा बनाना वास्तव में आवश्यक है? लेकिन महाराष्ट्र के किस नेता या सरकार में यह सुझाव देने का राजनीतिक साहस होगा कि शिवाजी की प्रतिमा करदाताओं के पैसे की बर्बादी है?

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कर्ज, सूखा, व्याकुलता

हाल ही में जब महाराष्ट्र का आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 आया, राज्य का वर्तमान लोन 7 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया है, जबकि ब्याज भुगतान 48,000 करोड़ रुपये से अधिक है. जबकि राज्य एक औद्योगिक ताकत बना हुआ है और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है. हालांकि, कृषि क्षेत्र में मंदी आई है. पिछले साल खराब मानसून के कारण फसल उत्पादन में भारी गिरावट आई और ग्रामीण संकट के हालात चिंताजनक हो गए.

पिछले साल, महाराष्ट्र सरकार ने कई जिलों में एक हजार से अधिक गांवों में “सूखे जैसे हालात” घोषित किए गए. भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की दिसंबर 2022 की ऑडिट रिपोर्ट में कई प्रमुख सिंचाई परियोजनाओं में देरी और लागत में वृद्धि की बात कही गई है. 2024 के पहले छह महीनों में, 500 से अधिक किसानों की आत्महत्या की सूचना मिली. सवाल यह है कि कौन सी सरकार लंबे समय से चले आ रहे कृषि संकट का समाधान खोजने को प्राथमिकता देगी?

अरब सागर में शिवाजी महाराज की एक बड़ी प्रतिमा बनाने का वादा करके सुर्खियां बटोरना, राज्य की विशाल किसान आबादी की चिंताओं को हल करके शासन की बारीकियों पर ध्यान केंद्रित करने से कहीं ज़्यादा आसान है. क्या शिवाजी महाराज जैसे महान शासक की विरासत को बेहतर तरीके से पूरा नहीं किया जा सकता? अगर राज्य अपने किसान आबादी की प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाए, बजाय इसके कि उनके नाम पर एक और स्मारक बनाने की कोशिश करे?

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दुर्भाग्य से, जब राजनीति भावना से प्रेरित होती है तर्क से नहीं. गलत प्राथमिकताओं पर तर्कसंगत बहस करना असंभव है, खासकर तब जब सियासीमाहौल पहले से कहीं ज़्यादा ध्रुवीकृत हो जाता है.

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महाराष्ट्र में ये कैसी सियासत

पिछले पांच साल के दौरान महाराष्ट्र ने तीन मुख्यमंत्री देखे हैं, दो क्षेत्रीय दलों में बड़ा विभाजन हुआ है, विधायकों को पक्ष बदलने के लिए कई तरह के प्रलोभन दिए गए और खरीद-फरोख्त की सियासत जमकर हुई. आज जो राजनेता शिवाजी महाराज की मूर्ति गिरने पर दुखी हो रहे हैं, उनसे एक आसान सवाल है: क्या आप भी राजनीतिक शुचिता और सार्वजनिक व्यवहार के गिरते मानकों पर भी दुखी होते हैं? और अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आपके पास शिवाजी महाराज के सच्चे उत्तराधिकारी होने का दावा करने का नैतिक अधिकार तो कतई नहीं है.

प्रधानमंत्री ने जिस तरह शिवाजी महाराज की गिरी हुई मूर्ति के लिए तुरंत माफ़ी मांगी है, क्या वह या कोई अन्य वरिष्ठ नेता पिछले कुछ वर्षों के दौरान महाराष्ट्र में हुई किसानों की आत्महत्याओं पर दुख व्यक्त करेंगे?

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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