यूपी में अखिलेश को फ्री हैंड रणनीति या मजबूरी? क्या कांग्रेस ने हरियाणा की हार से सबक ले लिया है

4 1 11
Read Time5 Minute, 17 Second

उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं. इन सीटों को लेकर विपक्षी समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस के गठबंधन में खींचतान चल रही थी. कांग्रेस ने पांच सीटों पर दावेदारी की थी वहीं सपा ने उसे दो सीटें ही ऑफर की थीं- गाजियाबाद सदर और अलीगढ़ जिले की खैर विधानसभा सीट. ऐसा कहा जा रहा था कि कांग्रेस इन दो सीटों पर चुनाव लड़ने से इनकार कर सकती है और ऐसा ही हुआ.

ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने यूपी में अखिलेश यादव को फ्री हैंड दे दिया है. सपा प्रमुख ने खुद एक्स पर पोस्ट कर यह जानकारी दी कि सभी नौ सीटों पर इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार सपा के सिंबल पर लड़ेंगे.सवाल हैकि यूपी उपचुनाव में पांच सीटों की डिमांड पर अड़ी रही कांग्रेस ने अंतिम क्षणों में अखिलेश को फ्री हैंड देने का फैसला क्यों किया? इसके पीछे वजह हरियाणा की हार का सबक ही है या कुछ और भी है? इसे चार पॉइंट में समझ सकते हैं.

1- हरियाणा का डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश

हरियाणा चुनाव से पहले लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन की पहल की थी. हालांकि, गठबंधन आकार नहीं ले सका. बातचीत तो सपा के साथ भी चली लेकिन कांग्रेस ने एक भी सीट नहीं छोड़ी. हरियाणा में कांग्रेस की हार के बाद सहयोगी दलों के नेताओं ने भी उसे आईना दिखाना शुरू कर दिया था. शिवसेना यूबीटी ने कांग्रेस की चुनावी रणनीति पर सवाल उठाए थे तो वहीं अखिलेश यादव ने हरियाणा में कांग्रेस की हार को सबके लिए सबक बताया था.

Advertisement

हरियाणा में जिस तरह से कांग्रेस नेतृत्व की पहल के बावजूद राज्य इकाई ने आम आदमी पार्टी और सपा को दरकिनार किया, उसे लेकर सहयोगियों में नाराजगी थी. अब कांग्रेस का यूपी में अखिलेश यादव को फ्री हैंड देने के पीछे एक वजह हरियाणा की तरह एंटी बीजेपी वोट का बंटवारा न हो, ये भी है. एक वजह कम से कम तब नरमी बरत सहयोगियों को साधे रखने की रणनीति भी है, जब हरियाणा में उपेक्षा के जख्म हरे हैं.

2- 2027 चुनाव पर नजर

एक वजह यह भी है कि पार्टी को जो दो सीटें मिल रही थीं, उनका आधार जीत की संभावना नहीं बल्कि हार की गारंटी थी. गाजियाबाद और खैर, दोनों ही सीटें बीजेपी का मजबूत गढ़ मानी जाती हैं. कांग्रेस अगर इन सीटों पर चुनाव लड़ती तो जीत की संभावनाएं कमजोर थीं ही,उसके दो और नुकसान थे. एक ये कि लोकसभा चुनाव में अच्छे नतीजों के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का बढ़े मनोबल पर विपरीत असर पड़ने का खतरा था और दूसरा इससे 2027 के यूपी चुनाव को लेकर सीट शेयरिंग का फॉर्मूला एक तरह से सेट हो जाता. उपचुनाव नतीजों का यूपी की सत्ता के समीकरण पर कोई असर भले नहीं पड़ना लेकिन इसका असर इंडिया ब्लॉक की भविष्य की राजनीति को प्रभावित कर सकता था.

Advertisement

3- सहयोगियों को घेरने का मौका न मिले

उपचुनाव को लेकर यह धारणा रहती है कि सत्ताधारी दल को एज रहता है. एक ये फैक्टर और दूसरा मुश्किल सीटें, कांग्रेस अगर कहीं अपने कोटे की सीटें जीतने में विफल रहती तो फिर सहयोगियों को उसे घेरने का मौका मिल जाता. पार्टी वैसे ही विलेन बन जाती जैसे बिहार चुनाव नतीजों के बाद महागठबंधन के कम अंतर से बहुमत से पीछे रह जाने के बाद अधिक सीटों की जिद के चलते बन गई थी. पार्टी का स्ट्राइक रेट भी हालिया लोकसभा चुनाव में यूपी की सीटों पर सपा के मुकाबले काफी कम रहा था.

यह भी पढ़ें: कहीं कांग्रेस के लिए न छोड़ दी जाए सीट... फूलपुर में सपा उम्मीदवार ने भर दिया पर्चा

हालिया आम चुनाव में सपा ने जहां 63 सीटों पर चुनाव लड़ा और इनमें से आधे से अधिक 37 पर जीत हासिल की थी. वहीं, कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन इनमें से एक तिहाई सीटें ही जीत सकी थी. कांग्रेस नेतृत्व ने सत्ताधारी और विपक्षी, दोनों ही गठबंधनों के लिए नाक का सवाल बन चुके उपचुनावों में किसी तरह की जिद पकड़ने की जगह सपा को समर्थन का फैसला लिया है तो हो सकता है कि उसके पीछे यह भी एक वजह रहा हो.

Advertisement

4- यूपी में सपा का साथ जरूरी

कांग्रेस का फोकस राज्य की राजनीति से अधिक राष्ट्रीय राजनीति पर है. राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से यूपी जैसा बड़ा राज्य महत्वपूर्ण है. सूबे में पार्टी के लिएसपा का साथ जरूरी है. ऐसा हम नहीं, आंकड़े कहते हैं. 2022 के यूपी चुनाव में अकेले ही मैदान में उतरी कांग्रेसकेवल दो सीटें ही जीत सकी थी और हालिया लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर सात सीटें जीत लीं.

यह भी पढ़ें: 'यूपी की सभी 9 सीटों पर सपा के सिंबल पर चुनाव लड़ेंगे गठबंधन के प्रत्याशी', अखिलेश के इस ऐलान के क्या हैं मायने

एक पहलू ये भी है किजिन नौ सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं, उनमें से भी किसी सीट पर पार्टी काबिज नहीं थी. अब इनमें से कोई सीट जबपार्टी के कब्जे में थी ही नहीं, तब यहां रार पार्टी की भविष्य की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने वाला ही होता. शायद यह भी एक वजह हो किकांग्रेस नेतृत्व ने सीटों की डिमांड को लेकर जिद पकड़सपा के साथ रिश्तों में तल्खी घोलने की बजाय मिलकर चलना अधिक बेहतर समझा.

Live TV

\\\"स्वर्णिम
+91 120 4319808|9470846577

स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.

मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Laptops | Up to 40% off

अगली खबर

IND vs NZ, Washington Sundar: सुंदर-अश्विन ने मिलकर रचा इतिहास... न्यूजीलैंड के खिलाफ पुणे टेस्ट के पहले दिन बने ये धांसू रिकॉर्ड

आपके पसंद का न्यूज

Subscribe US Now