दो देशों की दुश्मनी, दो हिस्सों में बंटी दुनिया... लेबनान ऐसे बना जंग का मैदान, जानिए Inside Story

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ईरान की राजधानी तेहरान की सबसे बड़ी मस्जिद के बाहर शुक्रवार को लोगों का जन सैलाब उमड़ा था. ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामेनेई पांच साल बाद पहली बार जुमे की नमाज़ से पहले खुतबा देने वाले थे. इस खुतबे के साथ ही वो ईरान और दुनिया के सामने आने वाले थे. ये इसलिए अहम था क्योंकि हिज्बुल्लाह चीफ हसन नसरल्लाह की लेबनान में इजरायली हमले में मौत के बाद ये दावा किया जा रहा था कि अयातुल्लाह खामेनेई को ईरान के अंदर ही किसी खुफिया जगह पर शिफ्ट कर दिया गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि वो भी इजरायली हमले का निशाना बन सकते हैं. लेकिन इन दावों को गलत साबित करते हुए अयातुल्लाह खामेनेई ने ऐलान कर दिया था कि जुमे की नमाज से पहले वो ईरान की आवाम से मुखातिब होंगे.

अयातुल्लाह खामेनेई ने कहा कि फिलिस्तीन और लेबनान के लोगों के लिए ईरान हमेशा खड़ा रहेगा. इजरायल पर मिसाइल दागे जाने कि जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने ये भी कहा कि ईरान इजरायल के साथ जरूरत पड़ने पर जंग में किसी भी हद तक जा सकता है. उन्होंने खास तौर पर अरब के मुसलमानों से लेबनान और फिलिस्तीन की लड़ाई में आगे आकर साथ देने की अपील की. सेंट्रल तेहरान में जिस वक़्त अयातुल्लाह खामेनेई ये बातें कह रहे थे उस कुछ देर बाद ही लेबनान में एक गुप्त जगह पर हिजबुल्लाह चीफ हसन नसरल्लाह को अस्थाई तौर पर दफनाया जा रहा था. पहले हिज्बुल्लाह की योजना ये थी कि जुमे की नमाज के बाद नसरल्लाह के जनाज़े को सार्वजनिक तौर पर कब्रिस्तान ले जा कर दफ्नाया जाएगा. लेकिन प्लान बदल दिया गया.

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हिज्बुल्लाह को सूचना मिली कि इजरायल नसरल्लाह के जनाजे पर भी हवाई हमले कर सकता है. उस वक्त ज्यादातर हिज्बुल्लाह के लोग ही जनाजे के साथ होंगे, इसलिए फिलहाल अस्थाई तौर पर नसरल्लाह को बड़ी खामोशी से किसी खुफिया जगह पर दफनाया दिया गया. इस सोच के साथ कि हालात ठीक होंगे, तो नसरल्लाह को दोबारा से सार्वजनिक तौर पर दफनाया जाएगा. खामेनेई के इजरायल के खिलाफ मुसलमानों के लामबंद होने की अपील के बाद अब पूरी दुनिया की निगाहें खास कर अरब देशों पर है. ये देखने और जानने के लिए कि फिलिस्तीन और खास तौर पर लेबनान पर इजरायली हमले और नसरल्लाह की मौत के बाद अरब देश कैसे रिएक्ट करते हैं. क्या अरब देश इजरायल के खिलाफ संभावित लड़ाई में ईरान का साथ देंगे?

इजरायल-ईरान की दुश्मनी के बीच दो हिस्सों में बंटी दुनिया

असल में मौजूदा हालात ने दुनिया के देशों को दो हिस्सों में बांट दिया है. ये सभी को पता है कि अमेरिका ब्रिटेन जर्मनी और बाकी के पश्चिमी देश हर हाल में इजरायल के साथ खड़े होंगे. लेकिन क्या अरब देशों के साथ भी ऐसा ही होगा? क्या अरब देश ईरान के साथ इजरायल के खिलाफ खड़े होंगे? तो इसका हल्का सा इशारा जीसीसी यानी गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल के स्टैंड से मिलता है. सउदी अरब, कतर, बहरीन, ओमान, यूएई और खाड़ी के छह देशों को मिला कर बनाए गए जीसीसी ने लेबनान पर इजरायली एयर स्ट्राइक का विरोध करते हुए लेबनान की आज़ादी का समर्थन तो किया है, लेकिन जीसीसी किसी भी सूरत में इजरायल के खिलाफ सीधे जंग में शामिल होना नहीं चाहता. असल में फिलिस्तीन का समर्थन अरब देशों की मजबूरी है.

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वहां के लोगों के लिए ये एक बेहद जज्बाती मुद्दा है. फिलिस्तीन पर जब भी आंच आती है, अरब देश उनके साथ खड़े नजर आते हैं. ऐसे में हुक्मरान अपने ही लोगों की भावनाओँ को नजरअंदाज नहीं कर सकते. इसीलिए अरब देश ये कतई नहीं चाहते कि ईरान पर इजरायल हमला करे और जंग छिड़े. ऐसी सूरत में इस जंग की आंच से अरब देश भी नहीं बच पाएंगे. इसके अलावा अरब देशों को एक डर और भी है. उन्हें लगता है कि यदि इजरायल ने ईरान पर हमला बोल दिया तो फिर ऐसे में ईरान अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को लेकर और भी आक्रमक हो जाएगा. इजरायल से जंग की सूरत में ईरान दुनिया के सामने ये दलील दे सकता है कि उसे इजरायल से खतरा है. ऐसे में उसे न्यूक्लियर बम के लिए दुनिया को किसी तरह की सफाई भी नहीं पड़ेगी.

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अरब देश इसलिए नहीं चाहते कि न्यूक्लियर पावर बने ईरान

अरब देश ये कतई नहीं चाहते कि ईरान कभी न्यूक्लियर पावर बने. इससे खाड़ी में पावर का संतुलन बिगड़ जाएगा. वैसे भी अरब देशों में ज्यादतर सुन्नी मुसलमान हैं, जबकि ईरान शिया बहुल देश है. इसलिए भी सउदी अरब से ईरान की कभी बनी ही नहीं. ईरान को लेकर अरब देशों की सोच बेशक अलग हो सकती है, पर सवाल ये है कि जिस लेबनान पर इजरायल पहले पेजर फिर वॉकी टॉकी और उसके बाद आसमान और फिर अब जमीन पर एक तरह से जंग लड़ रहा है, उस लेबनान के समर्थन में अब तक अरब देश खुल कर सामने क्यों नहीं आ रहे हैं? क्योंकि लेबनान भी तो एक अरब देश का हिस्सा है. तो इसे समझने के लिए लेबनान के इतिहास को समझना जरूरी है. 2017 किमी लंबे और 56 किलोमीटर चौड़े लेबनान की कुल आबादी सिर्फ 55 लाख है.

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लेबनान कभी सीरिया का हिस्सा हुआ करता था और तब वहां पर फ्रांस का कब्जा था. साल 1920 में सीरिया के टुकड़े कर उसके पश्चिमी हिस्से को एक अलग देश बना दिया गया. इसका नाम लेबनान पड़ा. चूंकि फ्रांस ने ये टुकड़े किए थे, इसलिए तब लेबनान पर फ्रांस का कल्चर हावी था. वहां के लोग अरबी के अलावा अंग्रेजी और फ्रेंच बोला करते थे. लेबनान की सीमा कुछ ऐसी है कि उत्तर और पूर्व में ये सीरिया से घिरा हुआ है. जबकि इसके दक्षिण में इजरायल की सरहद लगती है और पश्चिम में भूमध्य सागर. जब लेबनान देश का जन्म हुआ था तब वहां की कुल आबादी में 51 फीसदी आबादी इसाइयों की थी. 22 फीसदी सुन्नी मुस्लिम और करीब 20 फीसदी शिया मुसलमान थे. इसके बाद में वहां पर धीरे-धीरे इसाइयों की आबादी घटती गई.

लेबनान में ऐसे अचानक बढ़ी सुन्नी मुसलमानों की आबादी

इस वक्त लेबनान की कुल आबादी में करीब 32 फीसदी ईसाई हैं. 32 फीसदी ही सुन्नी मुस्लिम और 31 फीसदी शिया मुस्लिम हैं. फ्रांस से लेबनान को साल 1943 में आजादी मिली थी. अब चूंकि ईसाई, सुन्नी और शिया की आबादी लगभग आस-पास थी. इसीलिए ये तय हुआ कि लेबनान का राष्ट्रपति ईसाई होगा, प्रधानमंत्री सुन्नी मुसलमान और शिया मुस्लिम संसद का स्पीकर. एक जमाने में लेबनान को मिडिल ईस्ट का स्विट्जरलैंड कहा जाता था. उसकी वजह थी अरब देश होने के बावजूद यहां का कल्चर और खुलापन. लेकिन साल 1975 आते-आते लेबनान की सूरत बदल गई. इसकी कई वजहें थी. असल में साल 1943 में जब लेबनान को आजादी मिली, तब यहां रहने वाले सभी 18 धर्म के लोगों को सरकार सेना और सिविल सेवाओं में अलग-अलग पद दिए गए.

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धीरे-धीरे जब वक़्त बीता, तो तब शिया और सुन्नी समुदाय को लगा कि उनको सत्ता में कम हिस्सेदारी मिल रही है. लेबनान के शिया और सुन्नी मुसलमानों को ये भी लगा कि आर्थिक विकास का फायदा ईसाइयों को तो हो रहा है, लेकिन शिया और सुन्नी मुस्लिम पिछड़ रहे हैं. इन सबके बीच तभी इजरायल और फिलिस्तीन के बीच जारी लड़ाई और सीरिया में छिड़े गृह युद्ध के चलते बड़ी तादाद में सुन्नी मुस्लिम सीरिया और फिलिस्तीन से भाग कर लेबनान पहुंच गए. इससे लेबनान में अचानक सुन्नी मुसलमानों की आबादी बढ़नी शुरू हो गई. इससे पहली बार लेबनान में गृहयुद्ध की नौबत आ गई.

इस तरह लेबनान में ताकतवर होता गया हिज्बुल्लाह

लेबनान ने भी फिलिस्तीन से आए सुन्नी मुसलमानों के प्रति नर्म रुख अपनाया. नजीता ये हुआ कि 60 के दशक के बाद फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन यानी पीएलओ ने पहली बार लेबनान में अपना ठिकाना बना लिया. इस तरह एक शांत और आर्थिक तौर पर मजबूत देश लेबनान को देखते ही देखते इजरायल सीरिया और पीएलओ ने लड़ाई का मैदान बना दिया. उधर, ईसाई समुदाय भी सीरिया और फिलिस्तीन से आए सुन्नी मुसलमानों को लेबनान में पनाह दिए जाने से नाराज़ था. नतीजा ये हुआ कि पूरा देश ही गृहयुद्ध में कूद पड़ा. चूंकि पीएलओ और फिलिस्तीन से आए बाकी गुट अब लेबनान की सरजमीन का इस्तेमाल इजरायल के खिलाफ लड़ाई में कर रहे थे, तो इजरायल ने भी धीरे-धीरे पलटवार शुरू किया. साल 1990 में सीरिया में गृह युद्ध खत्म हुआ.

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तब इसमें एक बड़ी भूमिका सऊदी अरब ने भी निभाई थी. इस गृहयुद्ध के दौरान एक लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे. दो लाख से ज्यादा घायल हुए थे. जबकि करीब 9 लाख लोग लेबनान छोड़ कर दूसरे देशों में शरण ले चुके थे. गृहयुद्ध की वजह से लेबनान की राजधानी बेरूत के भी दो टुकड़े हो गए. गृहयुद्ध खत्म होने के बाद जितने भी विरोधी गुट थे, सभी ने हथियार डाल दिए. सिवाय एक के और वो था हिज्बुल्लाह. उसने इजरायल से अपनी लड़ाई जारी रखी. लेबनान के शिया मुसलमानों का उसे पूरा समर्थन मिला. धीरे-धीरे शिया देश होने के नाते ईरान ने भी हिज्बुल्लाह की मदद करनी शुरू कर दी. अब हिज्बुल्लाह लेबनान में सैनिक और राजनीतिक तौर पर ताकतवर हो चुका था. इतना ताकतवर की लेबनान की चुनी जाने वाली सरकार भी कभी उस पर लगाम नहीं लगा पाई.

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इस वजह से लेबनान पर खुलकर नहीं बोल रहे अरब देश

यहां तक कि हिज्बुल्लाह अब लेबनान के आम चुनाव में भी हिस्सा लेने लगा था. लेबनान में आखिरी बार मई 2022 में चुनाव हुआ था. लेबनान संसद में कुल 128 सीटें हैं. लेकिन किसी को भी बहुमत नहीं मिली. वहां राष्ट्रपति का पद साल 2022 से खाली है. वहां के प्रधानमंत्री भी केयरटेकर हैं. लेबनान की राजधानी बेरूत के जो दो टुकड़े हुए उनमें से ही एक है मरुन अल-रस. बेरूत का ये वो इलाक़ा है जहां पर लेबनान सरकार का नहीं बल्कि हिज्बुल्लाह का कब्जा है. बेरूत के अपने इसी कब्जे वाले इलाके में हिज्बुल्लाह का हेडक्वार्टर भी है. हिजबुल्लाह चीफ हसन नसरल्लाह की जिस बंकर में मौत हुई थी, वो पूरा इलाक़ा भी हिज्बुल्लाह के कब्जे में है. लेबनान के जिस इलाके में इजरायली सेना इस वक्त जमीनी जंग लड़ रही है, वो इलाका भी उसके कब्जे वाला इलाका है.

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बस यही वजह है कि लेबनान पर इजरायली हमले को लेकर अरब देश खुल कर नहीं बोल रहे. क्योंकि उनकी नजर में इजरायल का ये हमला लेबनान या उसके लोगों पर नहीं बल्कि हिज्बुल्लाह के कब्जे वाले लेबनान पर है. लेकिन ईरान के रुख को देखकर नहीं लगता कि वो इस बार झुकने वाला है.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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