महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव की शुरुआत में मराठा आरक्षण को बड़ा मुद्दा माना जा रहा था लेकिन जैसे-जैसे प्रचार अपने शबाब पर पहुंचता गया, चर्चा दो नारों के इर्द-गिर्द सिमटती चली गई. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया 'बंटेंगे तो कटेंगे' और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा- एक हैं तो सेफ हैं. सत्ता बचाने की लड़ाई लड़ रही महायुति ने तो सूबे के सभी प्रमुख अखबारों के पहले पन्ने पर सभी समुदायों की पगड़ी के साथ विज्ञापन भी दे दिया- एक हैं तो सेफ हैं.
भगवा बैकग्राउंड के साथ छपे इस विज्ञापन में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) और शिवसेना (एकनाथ शिंदे) के नाम और निशान भी छपे थे. ये नारे, ये विज्ञापन बहस का विषय बने हुए हैं. पक्ष-विपक्ष के अपने-अपने तर्क हैं लेकिन राजनीतिक गलियारों में इसे वोटों का जटिल समीकरण साधने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है. जटिल समीकरण मराठा और ओबीसी, दोनों समुदायों को एक मंच पर लाकर नया वोट गणित गढ़ने का.
महाराष्ट्र की सियासत में मजबूत दखल रखने वाले इन दोनों समुदायों के बीच मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर तल्खी देखी जा रही है और इस तल्खी ने महायुति और विपक्षी महाविकास अघाड़ी (एमवीए), दोनों ही गठबंधनों की टेंशन बढ़ा दी है.
मराठा और ओबीसी की ताकत कितनी?
महाराष्ट्र की सियासत में मराठा समुदाय का वर्चस्व रहा है. इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि 2019 के विधानसभा चुनाव में निर्वाचित 288 विधायकों में से आधे से अधिक करीब 160 विधायक मराठा समुदाय से थे. हालिया लोकसभा चुनाव में भी सूबे की आधे से अधिक सीटों पर मराठा कैंडिडेट जीते जिनकी संख्या करीब ढाई दर्जन बताई जा रही है.
वोटबैंक के नजरिये से देखें तो ओबीसी सबसे बड़ा वर्ग है. पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में 52 फीसदी ओबीसी हैं और मराठा समाज की आबादी में भागीदारी 28 फीसदी है लेकिन बात जब सियासत में वर्चस्व की आती है तो मराठा भारी नजर आते हैं.
ओबीसी मतदाताओं के प्रभाव वाले इलाके विदर्भ रीजन में 62 विधानसभा सीटें हैं. वहीं, मराठा समुदाय के वर्चस्व वाले मराठवाड़ा में 46 और पश्चिमी महाराष्ट्र में 70 विधानसभा सीटें हैं. मराठा बाहुल्य इन दो रीजन में कुल 116 विधानसभा सीटें हैं. ये दोनों वर्ग मिला लें तो मराठा और ओबीसी की तादाद करीब 80 फीसदी पहुंचती है जो किसी भी दल के लिए सत्ता की राह आसान बना सकते हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है.
अलग है दोनों का सियासी मिजाज
मराठा और ओबीसी का सियासी मिजाज अलग रहा है और इसी का नतीजा है महाराष्ट्र की पॉकेट पॉलिटिक्स. मराठा समाज अमूमन शरद पवार की अगुवाई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और शिवसेना को वोट और सपोर्ट करता आया है. मराठा वोटबैंक में समर्थन कांग्रेस को भी मिलता रहा है लेकिन उसके पीछे पार्टी के अपने आधार से अधिक मराठा नेताओं के जनाधार और एनसीपी के साथ को अधिक श्रेय दिया जाता है. बीजेपी भी मराठा वोट के लिए शिवसेना जैसे सहयोगी पर अधिक निर्भर रही है.
ओबीसी और मराठा पर किसी एक दल की पकड़ क्यों नहीं?
ओबीसी और मराठा, दोनों ही समुदायों पर किसी दल की समान पकड़ नहीं है तो उसके भी अपने कारण हैं. जातीय अस्मिता की पिच पर दोनों ही वर्गों में ध्रुवीकरण बहुत तेज होता है और हालिया लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही देखने को मिला था. लोकसभा चुनाव में मराठा मतदाताओं ने ओबीसी मतदाताओं को वोट देने से परहेज किया तो ओबीसी ने मराठा उम्मीदवार से. मामला दल से अधिक उम्मीदवार का हो गया था.
मनोज जरांगे के मराठा आरक्षण आंदोलन और मराठा समाज के लिए कुनबी सर्टिफिकेट की मांग ने दोनों समुदायों की दूरी और बढ़ा दी है. मराठा समाज को कुनबी सर्टिफिकेट जारी किए जाने का सीधा मतलब होगा ओबीसी के कोटे से आरक्षण दिया जाना. इसे लेकर दोनों ही समाज की आपसी तल्खी इतनी बढ़ गई कि मराठा ने ओबीसी और ओबीसी ने मराठा समाज से नाता रखने वाले दुकानदारों की दुकान से सामान खरीदना भी बंद कर दिया था.
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लोकसभा चुनाव से पहले मराठा आरक्षण विधेयक पारित कर महायुति सरकार ने ओबीसी और मराठा को बैलेंस करने की कोशिश की थी लेकिन वह कोशिश नाकाम रही. लोकसभा चुनाव में मराठवाड़ा रीजन की ही बात करें तो बीजेपी खाली रह गई थी जबकि उसकी गठबंधन सहयोगी शिवसेना (एकनाथ शिंदे) एक सीट जीत सकी थी. इस रीजन की शेष सभी सीटों से कांग्रेस, शिवसेना (यूबीटी) और एनसीपी के उम्मीदवार जीते थे.
कौन सा दलक्या कर रहा?
महायुति और एमवीए, दोनों ही गठबंधन ओबीसी और मराठा वोटबैंक पर अपना होल्ड मजबूत कर दूसरे के वोटबैंक की छोटी-छोटी जातियों को टार्गेट कर रणनीति तैयार कर रहे हैं. एमवीए ने मराठा समाज को आरक्षण की मांग का समर्थन करते हुए ओबीसी के कोटे से इसे न देकर आरक्षण लिमिट हटाने का दांव चला है. बीजेपी का कोर वोटर रही करीब पांच फीसदी अनुमानित आबादी वाला धनगर जाति अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग कर रही है.
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बीजेपी सूबे में 'MADHVA' फॉर्मूले पर चलती रही है. माधव यानि माली, धनगर और वंजारी. अनुमानों के मुताबिक महाराष्ट्र में माली की आबादी सात और वंजारी की आबादी करीब छह फीसदी है. बीजेपी के इस 18 फीसदी कोर वोटबैंक में से पांच फीसदी वाली जाति की नाराजगी ने सत्ताधारी गठबंधन की टेंशन बढ़ा दी है. बीजेपी अब बड़ी ओबीसी जातियों से आगे छोटी-छोटी जातियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है.
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महायुति सरकार ने ओबीसी की सात जातियों को केंद्रीय सूची में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजने के साथ ही क्रीमी लेयर की सीमा भी आठ से बढ़ाकर 12 लाख करने की सिफारिश की है तो उसके पीछे भी ओबीसी वोटबैंक को एकजुट रखने की कोशिश ही वजह बताई जा रही है. बीजेपी को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव की तरह मराठवाड़ा और मुंबई, ठाणे-कोंकण रीजन में मराठा समाज से भी ठीक-ठाक समर्थन महायुति को मिलेगा.
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बीजेपी जहां ओबीसी को लेकर चुनाव प्रचार के दौरान मुखर है. वहीं, एमवीए के नेता खुलकर मनोज जरांगे की कुनबी सर्टिफिकेट वाली मांग पर खुलकर बोलने से परहेज कर रहे हैं. दोनों ही गठबंधन ओबीसी और मराठा वोटबैंक में सेंध लगाने की संभावनाओं को बनाए रखना चाहते हैं. यही वजह है कि पार्टियां मराठा आरक्षण के मुद्दे पर दोनों ही वर्गों का सेंटीमेंट बना रहे, ये तो चाहती हैं लेकिन बात जब सार्वजनिक मंच से प्रचार की आती है तो फोकस महिला कल्याण जैसे मुद्दों पर ही कर रही हैं.
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