Ground Report- हाथरस कांड का वो चश्मदीद, जो अब गाड़ियों के हॉर्न से भी डरता है

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हाथरस में दलित युवती के कथित गैंगरेप और हत्या को चार साल बीत चुके. इस दौरान बहुत कुछ बदला. आरोपियों की तरफ भी, और पीड़ित परिवार के साथ भी. पिछले दो हिस्सों में swarnimbharatnews.com ने दोनों पक्षों से बात की. इस कड़ी में पढ़िए, इकलौते चश्मदीद 'छोटू' की आपबीती.

14 सितंबर की सुबह जिस खेत में लड़की का चोटिल शरीर मिला, उसका मालिक भी इस केस की अहम कड़ी था. तूल पकड़ने के बाद लंबे समय तक मामला इसी खेत मालिक 'छोटू' के इर्दगिर्द घूमता रहा.

वे हमें रास्ते में ही मिल गए. बाइक पर ‘ठाकुर साहेब’ लिखा हुआ. पहले तो वे इनकार करते हैं- मैं सब भूल चुका. अब वो सब क्या पूछना. कोर्ट तो बरी भी कर रही है सबको. थोड़ी बकझक के बाद राजी होते हुए हमें अपने घर ले चलते हैं.

उस रोज क्या हुआ था?

मैं खेत में चारा काट रहा था, जब लड़की की मां की आवाज आई. वहां पहुंचा तो वो (युवती) खेत में लेटी हुई थी. मुंह पर खून लगा हुआ. वहीं खड़ी मां जोर-जोर से चिल्ला रही थी. मैं वहां से भागा. कमजोर दिल का हूं. खून देखकर डर लगता है. सबको बताने लगा. मां बोल रही थी कि भाई को बुला लाओ. मैं उसके पास भी गया. उसने कहा कि दो-चार लोगों को जमा होने दो, फिर मैं आ जाऊंगा. वो आधे घंटे, या इसके भी बाद आया होगा.

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आपको सब ठीक-ठाक याद है!

हां. यही हुआ था.

आप गायब क्यों हो गए थे घटना के बाद!

डर गया था. सीबीआई लवकुश को पूछताछ के लिए ले गई और जेल में डाल दिया. मुझे लगा कि बाहर रहूंगा तो मैं भी फंस जाऊंगा. तो गायब हो गया लेकिन फिर कुछ दिनों बाद बाहर भी आ गया.

uttar pradesh hathras allegedly gang rape murder of dalit woman 2020 eyewitness testimony

सीबीआई ने आपसे इंक्वायरी की थी!

हां, की थी न, लेकिन वो मुझे डांटते नहीं थे. प्यार से पूछते कि बेटा जो याद हो, जो-जो देखा हो, सब क्रम से बताते जाओ. मैं बताता. एक-एक बात को कितनी बार दोहराया होगा, याद नहीं. थोड़ी भी बात इधर-उधर हो तो फायर हो जाते. कुछ महीनों बाद हालत ये हुई कि घर के सामने हॉर्न की आवाज आए तो भी मैं चिंहुकने लगता. मां भी रोने लगती. मामला शांत होने के बाद भी डर छूटने में समय लगा.

मां पास ही बैठी हुई हैं. नजरों से ही दुलारते हुए वे कहती हैं- मांस नोंच लियो उनने सवाल पूछ-पूछ के. तब से शरीर नहीं भरा बालक का.

छोटू हंसते हुए ही जोड़ते हैं- शरीर का नहीं पता लेकिन कंगाली में आ गया हूं मैडम तब से. मेरे पास 15 पोए (पशु) थे. आज एक भी नहीं है. इतनी पूछताछ होती कि बखत ही नहीं था सार-संभाल का. भैया, पिताजी सब हलाकान. 40 हजार की गाय-भैंसों को 15-20 हजार में बेचना पड़ गया. मेरा केस से कोई मतलब नहीं, फिर भी जिंदगी बदल गई. सोचो, उनपर क्या बीतती होगी. संदीप और लवकुश तो मुझसे भी छोटे थे. अब जाकर मैं 21 से ऊपर लगा हूं.

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ये सारा दुख-दर्द आपने पहले क्यों नहीं कहा, सुरक्षा या कुछ मुआवजा ही मांग लेते!

कहते किससे? वैसे भी गरीब तो चूहे-बिलौटों से भी गए बीते हैं. वे भी मरेंगे तो आवाज होगी. हम परछाई हैं. गिरेंगे तो धप्प भी नहीं होगी. आप मुआवजे की कहती हैं. मैं पूछताछ में मर-खप भी जाता तो किसी को पता नहीं चलता.

यही बात संदीप के पिता भी कहते हैं. आरोपी पक्ष के वकील से बात करने पर वे कहते हैं- संदीप छोटा तो था लेकिन उसके दो कागज थे. फिर मामला इतना हाई प्रोफाइल हो गया कि उम्र को कौन देखता. बस प्रेशर ही प्रेशर था.

गांव में घूमते हुए जाति-पाति की बात भी सुनने को मिली. पीड़ित परिवार मानता है कि जाति के चलते उन्हें न्याय नहीं मिल सका. वहीं, दूसरे पक्ष को यकीन है कि जाति की वजह से ही वे फंस गए.

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आरोपियों की कास्ट से जुड़ा एक शख्स कहता है- हम ठाकुर हैं. उनसे एका रख सकते हैं, लेकिन उनके घर चाय-पानी नहीं करते. इसी में उन्हें गुस्सा आ जाता है! वे बहाने खोजते रहते हैं कि कब हम पीठ करें और कब वो हमला बोलें.

आपका उस घर में मिलना-जुलना होता है! इतनी बड़ी आफत आई, तसल्ली ही दे आते.

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हम क्यों जाएं वहां. एक तो वाल्मिकी, उसपर ऐसा खेल करने वाले. क्या पता, पीछे से क्या कर डालें. तुनकता हुआ जवाब लौटता है.

लेकिन आप तो मुझे भी खटिया पर बैठा रही हैं. बिना जाने कि मेरी कास्ट क्या है!

कंधे छूता हुआ हाथ एकदम से बिदक जाता है, मानो गिलगिला सांप छू लिया हो. फिर बात संभालते हुए कहती हैं- आपके बारे में तो नहीं मालूम, लेकिन जानकर थूक पीता है क्या कोई!
हाथरस में बूथ लेवल ऑफिसर से बात करने पर पता चला कि पांच सौ से ऊपर की आबादी वाले गांव में तीन सौ के आसपास वोटर होंगे. इनमें ब्राह्मण 30 फीसदी, राजपूत 60 फीसदी और लगभग 10 प्रतिशत एससी और ओबीसी हैं.

लौटते हुए गांव से बाहर एक ढाबे पर रुकते हैं तो मीडिया जानकर मालिक कहता है- उस साल तो आपके बहुत लोग आते थे. तब मेरा होटल छोटा था. यहीं खाना खाते सब. दुआओं से चल निकला.

अब कोई नहीं आता!
आ जाते हैं भूले-भटके कुछ आपकी तरह. लेकिन तब तो मजमा जुटा रहता.

आपको पता है, इस केस में तीन बरी हो चुके?

वो तो होना ही था. कोई दोष नहीं था उनका. चौथा भी आज-कल में बाहर... गले में ही बात घोंटता हुआ ढाबा मालिक चला जाता है.

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चार साल बीते. शायद अगले चार सालों तक हाथरस वो जिला बना रहे, जिसका हासिल कोई खूबसूरत इमारत या साफ नदी नहीं, बल्कि एक कांड होगा. हाथरस कांड 2020, जिसकी छाया शहर पर हमेशा डोलती रहेगी.

जाते हुए केस की एक झलक लेतेचलें…

सितंबर 2020 को यूपी के हाथरस के बूलगढ़ी गांव में एक दलित युवती के गैंगरेप और हत्या के आरोप में चार युवकों को जेल हुई, लेकिन पिछले मार्च इनमें से तीन को बरी कर दिया गया. सिर्फ एक आरोपी संदीप ठाकुर को गैर इरादतन हत्या (धारा-304) और एससी/एसटी एक्ट में दोषी मानते हुए उम्रकैद और 50 हजार का जुर्माना लगाया गया. इसके बाद से हाथरस का जिक्र सियासी शतरंज तक सीमित है.

मामले को रीकॉल करने के लिए हमने दोनों पक्षों से बात की. साथ ही पीड़ित और आरोपी पक्ष के वकीलों से भी जुड़े.

आरोपियों के वकील मुन्ना सिंह पुंढीर कहते हैं- रामू, रवि और लवकुश को निर्दोष मानते हुए कोर्ट ने बरी कर दिया. संदीप को गैर-इरादतन हत्या पर उम्रकैद की सजा मिली है. सीबीआई ने जो चार्जशीट दी थी, उसमें इनको 302 (हत्या), 376-ए, 376-डी (रेप) और 354 (रेप की नीयत से हमला) के तहत आरोपी बनाया गया था, साथ ही SC/ST एक्ट भी लगाया गया. लेकिन अदालत ने आरोपियों पर लगे गैंग रेप के चार्ज को हटा दिया.

ऐसा क्यों हुआ, इसके लिए कोर्ट की टिप्पणी पढ़ते हैं.

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अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि जब 14 सितंबर को पीड़िता को अस्पताल में भर्ती कराया गया तो न तो उसने और न ही उसकी मां ने यौन उत्पीड़न की बात बताई थी. सेक्सुअल असॉल्ट की चर्चा पहली बार अस्पताल में एडमिट करने के एक सप्ताह बाद 22 सितंबर को हुई. मेडिकल साक्ष्यों में भी यह साबित नहीं हो पाया.

कोर्ट ने यह भी कहा है पीड़िता के शरीर पर मिले जख्मों के निशान एक ही व्यक्ति के दिए गए हैं. जख्मों से ये पता नहीं चलता है कि पीड़िता पर कई लोगों ने हमला किया है.

uttar pradesh hathras allegedly gang rape murder of dalit woman 2020 eyewitness testimony photo- Reuters

मुन्ना सिंह कहते हैं- संदीप भी निर्दोष है. उसपर गैर-इरादतन हत्या का जो इलजाम है, उसका कोई मतलब नहीं. हमने अपील डाली हुई है लेकिन सीबीआई और पीड़ित पक्ष हियरिंग में नहीं आ रहे. कोर्ट भी सब जानती है. हमारा उससे यही सवाल है कि जब टाइम ड्यूरेशन एक था, घटनास्थल वही था. तो तीन बेगुनाह, और एक दोषी कैसे हो सकता है.

क्या बाइज्जत बरी होने पर आप अपने क्लाइंट्स के लिए कोई मुआवजा भी मांगेंगे?

मुआवजा कौन देता है, वो तो बर्बाद हो चुके. आप खुद कल्पना कीजिए कि किसी का जवान लड़का, किसी का पति जेल चला जाए तो क्या हो सकता है. वे बाहर आ चुके. अब बस, किसी तरह जिंदगी काट लें.

केस का कोई चश्मदीद नहीं था, फिर आरोप कैसे तय हुए?

यही तो बात है. आप लोगों ने परसेप्शन बना दिया और हल्ला मच गया. वो लोग जाति-जाति कर रहे हैं. जिस कास्ट से हैं वे, आज से हैं! पीड़ित परिवार के पिताजी के पिताजी, उनके पिताजी जाने कितनी पीढ़ियों से बसे हुए हैं. कभी जाति को लेकर कोई दिक्कत हुई. फिर अचानक क्या हुआ! लोग रस्सी को सांप बना देते हैं. यहां तो रस्सी तक नहीं थी, तब भी इतना बखेड़ा हो गया. अब राम मंदिर जैसी सुरक्षा मिली हुई है उनको. 10 रुपए की लौकी भी लेने जाएं तो गाड़ी और सुरक्षा साथ जाती है.

फोन पर ही पीड़ित पक्ष के वकील महमूद प्राचा से बात हुई.

इससे पहले केस को सीमा कुशवाह देख रही थीं, जो निर्भया केस से चर्चा में रहती आई थीं. पीड़ित परिवार का कहना है कि भारी दबाव और धमकियों की वजह से उन्हें केस छोड़ना पड़ा. इस बात की तस्दीक नए वकील प्राचा भी करते हैं. हालांकि वे यह बात अपने मुवक्किल के हवाले से करते हैं.

बकौल प्राचा- फैमिली का कहना है कि डिफेंस काउंसिल ने ही केस खराब कर दिया और अलग हो गईं. अब कोर्ट में हमारे तीन केस चल रहे हैं. पहली अपील तीन लोगों को छोड़ने के खिलाफ है. दूसरा केस लखनऊ कोर्ट में है, जिसमें पीड़िता को परिवार की मर्जी के बगैर रातोरात जलाने जैसे प्रशासनिक कदम पर बात है. तीसरे केस में परिवार की मांग पूरी करने में हो रही देरी पर सवाल उठाए हैं. अदालत ने 26 जुलाई 2022 को कहा था कि पीड़ित फैमिली को छह महीने के भीतर नौकरी और घर मिले. हम उन्हें दिल्ली या नोएडा में घर दिलवाने की कोशिश में हैं ताकि वे सुरक्षित जिंदगी जी सकें.

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संदीप और उनके बड़े भाई का आरोप है कि अधिकारियों ने उनसे हाथरस का घर और खेत हैंडओवर करने को कहा है, जिसके बाद ही सरकार उन्हें दूसरा मकान देने की सोचेगी. इस बात में कितनी सच्चाई है?

हां. ये सच है. हम उसके पेपर भी आपसे शेयर कर सकते हैं. हालांकि बाद में संपर्क के बाद भी हमें पेपर या दूसरे दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराए गए.

(इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन- राजेश सिंघल, हाथरस)

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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