ज़हरीली होती नदियों से ख़तरे में पड़ सकती हैं हिंदुस्तान की सदियों पुरानी परंपराएं

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अलग-अलग तो हमारा कोई वजूद नहीं
नदी की ज़ात है पानी हमारी ज़ात नदी
नदी हमारे लिए इश्क़ है मुकम्मल इश्क़
मियां तुम्हारे लिए होगी वारदात नदी

- इरशाद ख़ान सिकंदर

'नदी' लफ़्ज़ सुनते ही ज़िंदगी का एहसास होता है. ज़मीन और फ़लक के बीच की दुनिया का वजूद दिमाग़ में आता है. याद आती हैं सदियों पुरानी मान्यताएं, परंपराएं और सभ्यताएं. मिस्र (नील नदी) और सिंधु घाटी सभ्यता (सिंधु नदी) से लेकर मेसोपोटामिया (दजला और फ़रात) और चीन की सभ्यता (ह्वान) तक, बिना नदियों के इनका कोई वजूद ही नहीं मुमकिन था. मौजूदा वक़्त में भी दिल्ली (यमुना), लंदन (थेम्स), न्यू यॉर्क (हडसन), पेरिस (सीन), वाशिंगटन डीसी (पोटोमैक), एम्सटर्डम (एम्सेल) और अंकारा (नील नदी) जैसे दुनिया के बड़े शहर नदियों के किनारे ही मौजूद हैं.

पृथ्वी की सतह का क़रीब 71 फ़ीसदी हिस्सा पानी से ढका हुआ है, जो ज़्यादातर महासागरों के रूप में है. 68 फ़ीसदी से ज़्यादा पीने लायक पानी बर्फ़ की परतों और ग्लेशियरों में समाया हुआ है. वहीं, सिर्फ़ 30 फ़ीसदी भूजल में पाया जाता है. पृथ्वी पर मौजूद पानी का 99 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्सा इंसानों और कई अन्य जीवों के लिए इस्तेमाल करने लायक नहीं है. फ्रेश वॉटर का सिर्फ़ 0.3 प्रतिशत ही झीलों, नदियों और दलदलों के सतही पानी में पाया जाता है. इससे यह समझना बेहद आसान हो जाता है कि नदियां इंसानी ज़िंदगी के लिए कितना बड़ा वरदान हैं. नदियों के ज़रिए मिलने वाला पानी खेती, पीने, ट्रांसपोर्टेशन और बिजली उत्पादन के अलावा कई ज़रूरतो में काम आता है.

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नदियां पहाड़ों, ग्लेशियरों, झीलों और झरनों से छोटी बच्ची की तरह निकलकर बीहड़ इलाक़ों को चीरते, बंजर ज़मीनों में जान फूंकते, बल खाते और लहराते हुए सागर में विलीन हो जाती हैं. लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि एक नदी के निकलने और विलीन हो जाने तक के इस सफ़र के दरमियान इंसानी दिमाग़ का क्या क़िरदार है. क्या नदियां अपनी मंज़िल तक वही शुद्धता लेकर जा पाती हैं, जिस स्वच्छता के साथ निकलती हैं? क्या नदियों के जल में मौजूद मिनरल्स का सही इस्तेमाल हो पाता है? क्या हम जीवनदायिनी नदियों के साथ इंसाफ़ कर पाते हैं या करना चाहते हैं?

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प्रयागराज में महाकुंभ मेला 2025 से पहले संगम का नज़ारा (तस्वीर: PTI)

हिंदुस्तान के अंदर नदियों को इस क़दर पवित्र माना गया कि इसे 'मां' का दर्जा दिया गया, कई मौक़ों पर नदियों की पूजा भी की जाती है. लेकिन मौजूदा वक़्त में भारत की नदियां नाला बनती जा रही हैं. नदियों का पानी काला पड़ता जा रहा है. तमाम रोगों को भगाने के लिए पहचाना जाने वाला जड़ी-बूटियों से परिपूर्ण जल, अब बीमारियों का सबब बन सकता है. हालात इस क़दर ख़राब होते जा रहे हैं कि अब नदियों के पानी में निभाई जाने वाली परंपराएं आर्टिफिशियल तालाब तक पहुंच चुकी हैं. इसके पीछे की वजहें तलाशने निकलिए तो, आम अवाम से लेकर सरकार तक की लापरवाही नज़र आएगी. लेकिन हल तलाशने के नाम पर कुछ चेहरों की कोशिश और सियासी दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में कुछ वादे ही नज़र आते हैं.

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मुंह फेरेंगे कब तक?

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से गुज़रने वाली यमुना की हालत पिछले क़रीब ढाई दशकों से लगातार ख़राब होती जा रही है. शहर में प्रवेश करते वक़्त और शहर से निकलते वक़्त अलग-अलग स्थिति में होती है. दिल्ली के पल्ला इलाक़े से नदी शहर में दाख़िल होती है, इस वक़्त पानी में न तो कोई झाग नज़र आती है और न ही बद्बू महसूस होती है. लेकिन जब यमुना नदी शहर से बाहर निकलती है, तब तक इसका प्रदूषण कई गुना बढ़ जाता है. नवंबर-दिसंबर के आसपास यमुना की सतह पर झाग की एक मोटी परत छा जाती है.

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नई दिल्ली के कालिंदी कुंज में यमुना नदी में झाग (तस्वीर: PTI)

ऐसे में 'दिल्ली की यमुना' में अगर कोई डुबकी लगा ले, तो हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ सकता है. 'बिना नाक पर हाथ रखे' डीएनडी फ्लाईवे और कालिंदी कुंज ब्रिज क्रॉस करने का कॉम्पटीशन करवा दिया जाए, तो लोग इसमें शामिल तक नहीं होना चाहेंगे. यमुना पुल पार करते वक़्त कार के अंदर बैठा हर इंसान चाहता है कि सारे कांच चढ़ा दिए जाएं.

लेकिन सवाल ये है कि हम इस तरह से कब तक मुंह फेरते रहेंगे? भारत के क़रीब हर बड़े शहर नदियों के किनारे बसे हुए हैं. ऐसे में अगर नदियां इस तरह से प्रदूषित रहेंगी, तो देश क्या होगा? देश के उस तबक़े का क्या होगा, जो नदियों में आस्था के साथ डुबकी लगाता है और इसका जल दवा की तरह इस्तेमाल करता है? उन बाशिंदों का क्या होगा, जिनकी ज़िंदगी सिर्फ़ नदियों से चल रही है? उन तमाम मान्यताओं का क्या होगा, जिनकी वजह से हिंदुस्तान की तहज़ीब को सारी दुनिया में पहचाना जाता है?

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World Bank के मुताबिक़, भारत में जल प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य लागत देश की जीडीपी का क़रीब 3 फीसदी है, जो सालाना आधार पर लगभग 6.7 से 8.7 बिलियन डॉलर है.

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नदियों में शहरों का 'कचरा'

नदियों के लिए ख़ास अहमियत रखने वाली 'संगम नगरी' प्रयागराज (इलाहाबाद) से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक, ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे, जहां शहर के गंदे पानी वाले नाले सीधे नदियों में प्रवाहित कर दिए जाते हैं. इन नालों के ज़रिए शहर का अपशिष्ट जल, कारखानों का ज़हरीला कचरा और इसके साथ ही गीले कूड़े का ढेर सीधे नदी में समा जाता है. नदियों के किनारे कई ऐसी जगहें भी देखने को मिलती हैं, जहां पर कूड़ों का ढेर लगा होता है, जो नदी के प्रदूषण को बढ़ाने में मदद करता है. नदियों के किनारे जमे कूड़ों को हटाने के लिए भी बुलडोज़र की मदद ली जा सकती है.

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नई दिल्ली में यमुना नदी में तैरते कचरे (तस्वीर: PTI)

दिल्ली के अंदर 22 किलोमीटर की दूरी नापने वाली यमुना के रास्ते में क़रीब हर 1.2 किलोमीटर पर एक बड़ा नाला आता है, जिससे इसके प्रदूषण में इज़ाफ़ा होता है. प्रदूषण की वजहें और भी हैं लेकिन नाले भी लगातार पानी की क्वालिटी को ख़राब करते हैं. नजफ़गढ़ का नाला शहर के 18 नालों में से पहला और सबसे बड़ा प्रदूषणकारी ड्रेन है, जो दिल्ली के ज़्यादातर सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट और अन्य ज़हरीले कचरों को यमुना नदी में बहाकर लाता है. दिल्ली शहर का क़रीब आधे से ज़्यादा गंदा पानी इस नाले के ज़रिए यमुना में जाता है.

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वहीं, पिछले दिनों नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने कहा, "अगर प्रयागराज में गंगा में सीवेज के बहाव को रोकने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए गए, तो महाकुंभ मेले में आने वाले करोड़ों तीर्थयात्रियों के स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा."

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प्रयागराज कुंभ मेला 2019 (तस्वीर: PTI)

सोचने पर मजबूर करते आंकड़े

थिंक टैंक Centre for Science and Environment की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में उत्पन्न शहरी अपशिष्ट और सीवेज का सिर्फ़ 28 फीसदी पानी ही ट्रीटमेंट का हिस्सा बनता है. बाक़ी बचा जल सीधे नदियों, झीलों और ज़मीन में बहा दिया जाता है. यानी 72 फ़ीसदी शहरी अपशिष्ट जल नदियों, झीलों और ज़मीन में बिना किए ट्रीटमेंट के छोड़ दिया जाता है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर पूरे ख़राब पानी का ट्रीटमेंट करके फिर से उपयोग में लाया जाए, तो भारत का शहरी जल संकट कम हो सकता है.

दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) द्वारा हाल के दिनों साझा किए गए आंकड़ों के मुताबिक़, दिल्ली के 37 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स (STPs) में से आधे से ज़्यादा यानी 19 केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के मानकों को नहीं पूरा करते हैं.

Wildlife Institute of India के मुताबिक़, भारत की नदियां दुनिया के 18 फीसदी यूनीक जलीय जीवों और पौधों का पोषण करती हैं. लेकिन सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड का कहना है कि साल 2022 में भारत की 605 नदियों में से आधे से कुछ ज़्यादा प्रदूषित पाई गईं. ऐसे में यह पॉल्यूशन न केवल घरेलू सार्वजनिक स्वास्थ्य और जैव विविधता के लिए ख़तरा है, बल्कि जल निकायों में अपशिष्ट रिसाव के वैश्विक बोझ को भी बढ़ा रहा है.

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इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस (IIASA) की एक स्टडी का अनुमान है कि साल 2020 में, भारत से नगरपालिका के ठोस कचरे ने दुनिया की नदियों में 10 फ़ीसदी अपशिष्ट रिसाव में योगदान दिया."

साल 2019 में क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा किए गए एक आकलन में पाया गया कि गंगा के किनारे बसे 70 फ़ीसदी से ज़्यादा शहर अपने कचरे को सीधे नदी में बहा रहे हैं, क्योंकि उनके पास उचित नगरपालिका अपशिष्ट संयंत्र नहीं हैं. सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की कमी और अनुचित अपशिष्ट निपटान तंत्र की वजह से 38 हज़ार मिलियन लीटर से ज़्यादा अपशिष्ट जल भारत की नदियों में जाता है.

IIASA की स्टडी के मुताबिक़, मौजूदा वक़्त में दुनिया भर में फैले नगरपालिका कचरे का 17 फ़ीसदी भारत में है.

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करोड़ों रुपए के प्रोजेक्ट्स, फिर भी क्यों काली पड़ रहीं नदियां?

नमामि गंगे, यमुना एक्शन प्लान, नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्लान, नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा के अलावा अलग-अलग राज्यों में भी कई प्रोजेक्ट्स सरकारों द्वारा नदियों की सफ़ाई करने के लिए चलाए गए.

पर्यावरण विभाग ने विधानसभा में उठाए गए एक सवाल का जवाब देते हुए बताया था कि यमुना नदी के दिल्ली हिस्से की सफाई के लिए 2017 से 2021 तक पांच साल में क़रीब 6,856.91 करोड़ रुपये खर्च किए गए.

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दिसंबर, 2022 में नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (NMCG) ने बताया था, "केंद्र सरकार ने 2014 से अक्टूबर 2022 तक गंगा की सफाई पर 13 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च किए हैं." NMCG ने ये फंड उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और उत्तराखंड से गुज़रने वाली गंगा की सफ़ाई के लिए जारी किया था, जिसमें सबसे ज़्यादा ख़र्च यूपी को प्राप्त हुआ था.

देश और सिस्टम के सामने सवाल है कि तमाम परियोजनाओं और करोड़ों रुपए ख़र्च किए जाने के बाद भी नदियां क्यों कराह रही हैं? हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि दिल्ली की यमुना का पानी न पीने लायक है, न नहाने लायक और न ही छूने लायक बचा है. लोग अपने खेतों में नदी का पानी प्रवाहित करने से बच रहे हैं. यमुना में मछलियों का आना बिल्कुल कम होता जा रहा है. ज़िम्मेदारी लेने आगे कौन आएगा? कई साल से चल रही परियोजनाओं के बाद भी ज़मीन पर असर क्यों नहीं दिखता है? नदियों का पानी नालों और गटर जैसा काला क्यों नज़र आ रहा है?

समाज का रुख़ मोड़ने वाली पॉलिटिकिल पार्टियां, राजनेता, सरकारें, चुनावी वादे, सियासी दावे, परियोजनाएं, मशीनरी, टेक्नोलॉजी और भी बहुत कुछ. हिंदुस्तान की जनता के पास सब कुछ तो है, फिर भी स्वच्छ जल वाली नदियां क्यों कम होती जा रही हैं? क्यों कोई शख़्स चिलचिलाती धूप वाली गर्मी से परेशान होकर यूं ही नदियों में डुबकी लगाने की हिम्मत नहीं कर पाता है? वाटर ट्रीटमेंट प्लांट क्यों कारगर नहीं साबित हो रहे हैं?

ज़हरीली होती नदियों के विज़ुअल्स देखने और इनके आस-पास से गुज़रते वक़्त सिर्फ़ आश्चर्य चकित होकर इसे थोड़े वक़्त में भुला देने से काम नहीं चलेगा. फ़ैसला लेना और सिस्टम प्रोवाइड करवाना बेशक सरकारों का काम है लेकिन सरकारों के साथ ही जनता को भी जागरूक होने की ज़रूरत महसूस होनी चाहिए. जब सियासी दलों के प्रतिनिधि चुनावी मौसम में वोट के लिए हाथ फैलाते हैं, तो उन्हें शर्मिंदा होना चाहिए और जनता को भी पूछना चाहिए कि नदियों की हालत दिन-प्रतिदिन ख़राब क्यों होती जा रही है. वर्ना हिंदुस्तान की सदियों पुरानी मान्यताओं और परंपराओं को ख़तरे में पड़ते देखना पड़ेगा. नदियों के किनारे होने वाले कुंभ जैसे त्योहारों के मौक़ों पर एहतियात बरतने की ज़रूरत हावी होती रहेगी. दिल्ली-उत्तर प्रदेश के बॉर्डर कालिंदी कुंज बैराज के पास यमुना में ज़हरीली झाग जैसा नज़ारा देखने को मिलता रहेगा और अन्य शहरों से भी ऐसे विज़ुअल्स आने की आशंकाएं बढ़ती रहेंगी.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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