सोची-समझी रणनीति या मजबूरी... दिल्ली चुनाव में बिना CM फेस क्यों उतरने की तैयारी में BJP?

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दिल्ली देश की राजधानी है. देश की सत्ता पर साल 2014 से ही लगातार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उसकी अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) काबिज है लेकिन दिल्ली का दुर्ग भेदने में वह असफल रही है. बीजेपी ने दिल्ली में एक के बाद एक कई फॉर्मूले आजमाए लेकिन 1998 के चुनाव से लेकर अब तक, केंद्र शासित प्रदेश में कमल नहीं खिल सका है. मोदी लहर में विजय रथ पर सवार बीजेपी जब पूर्वोत्तर से उत्तर तक एक के बाद एक राज्यों में जीत का परचम लहराती जा रही ही थी, तब भी दिल्ली उसके लिए अजेय बना रहा.

साल 2013, 2015 और 2020 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी को मात ही मिली. पार्टी के अंदर से चेहरा देने की बात हो, किसी बाहरी को सीएम दावेदार बनाना हो या बिना सीएम चेहरे के ही मैदान में उतरना, बीजेपी ने हर दांव आजमाया लेकिन नतीजे अनुकूल नहीं रहे. दिल्ली फिर से विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ी है और बीजेपी ने इस बार के चुनाव में बगैर सीएम फेस के उतरने का फैसला ले लिया है. बीजेपी के इस फैसले को पिछले चुनावों में हर दांव फेल होने के बाद अब फिर से अपने आजमाए नुस्खे को ही अमल में लाने की रणनीति पर लौटने की तरह देखा जा रहा है.

बगैर चेहरे के लड़ने का फैसला क्यों?

बिना सीएम चेहरे के लड़ने का फैसला बीजेपी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. हालांकि, 2020 के चुनाव में भी पार्टी मुख्यमंत्री फेस प्रोजेक्ट किए बगैर ही चुनाव में उतरी थी और करारी शिकस्त झेलनी पड़ी थी. ऐसे में पिछले चुनाव के फॉर्मूले को ही दोहराने के पीछे क्या रणनीति हो सकती है, बात इसे लेकर भी हो रही है. दरअसल, बीजेपी को लगता है कि उनके पास इस समय दिल्ली की राजनीति में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो अपने दम पर ही दिल्ली में केजरीवाल की चुनौती का सामना कर पाए. पार्टी की रणनीति कोई चेहरा प्रोजेक्ट करने की बजाय चुनावी जंग में पीएम मोदी का चेहरा ही आगे रखने की है.

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बीजेपी के नेताओं को भी लगता है कि केजरीवाल के मुकाबले कोई चेहरा आगे करने से बेहतर है पीएम मोदी के नाम और उनके काम को आगे रखना. जानकारी के मुताबिक पार्टी में इस बात को लेकर भी मंथन हुआ कि दूसरे राज्य से लाकर किसी बड़े चेहरे को सीएम प्रोजेक्ट कर दिया जाए जैसा 1998 में कांग्रेस ने किया था. कांग्रेस ने तब शीला दीक्षित को सीएम फेस घोषित कर दिया था लेकिन संबंधित नेता की दिल्ली के बीजेपी कार्यकर्ताओं के साथ कैमिस्ट्री कैसी रहेगी, इसे लेकर असमंजस ने इस तरह की संभावनाओं को खत्म कर दिया.

पिछले चुनावों में कैसी रही बीजेपी की रणनीति?

सुषमा स्वराज (1998)- चुनाव से महज कुछ महीनों पहले ही सुषमा स्वराज को बीजेपी ने दिल्ली का सीएम बनाया था. 1998 के चुनाव में बीजेपी की सीएम सुषमा के सामने कांग्रेस ने शीला दीक्षित को सीएम फेस घोषित कर दिया. साल 1993 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद सुषमा तीसरी सीएम थीं. पार्टी को लगता था कि सुषमा स्वराज तेज तर्रार हैं, प्रखर वक्ता हैं और महिला के तौर पर कांग्रेस की शीला दीक्षित को कड़ी चुनौती देने में सक्षम हैं लेकिन पासा उल्टा पड़ गया. प्याज की कीमतों में वृद्धि के कारण असंतोष पार्टी की रणनीति पर भारी पड़ गई और सुषमा का बतौर सीएम छोटा सा कार्यकाल विधानसभा चुनाव में हार के साथ ही खत्म हो गया.

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मदन लाल खुराना (2003)- जैन हवाला डायरी केस में मदन लाल खुराना की कुर्सी 1996 में चली गई लेकिन दिल्ली बीजेपी में तब के सबसे बड़े नेता को देश की राजधानी की सियासत से दूर रखना काफी मुश्किल था. दिल्ली में बीजेपी की सरकार तो चली गई लेकिन मदन लाल खुराना 1998 और फिर 1999 में सांसद बने और केंद्रीय मंत्री भी. हालांकि, केंद्रीय मंत्री पद से उन्होने 1999 में ही इस्तीफा दे दिया था लेकिन बीजेपी जानती थी कि खुराना की एक पहचान 'दिल्ली के शेर' की भी है और उनके बिना दिल्ली में फिर से जीत का परचम लहराना मुश्किल होगा. 2003 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने खुराना को बतौर सीएम फेस आगे कर दिया लेकिन दिल्ली बीजेपी में गुटबाजी तब तक हावी हो चुकी थी. खुराना भी शीला दीक्षित की अगुवाई में लगातार दूसरी बार सरकार बनाने से कांग्रेस को नहीं रोक सके.

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विजय कुमार मल्होत्रा (2008)- शीला दीक्षित जब 2008 में तीसरी बार सीएम पद की दावेदारी कर रहीं थीं, दिल्ली बीजेपी एक ऐसे चेहरे की तलाश कर रही थी जो उन्हें टक्कर दे सके. इसके लिए जरूरी था कि दिल्ली बीजेपी में बड़ा कद रखने वाले किसी ऐसे नेता को आगे किया जाए जिसके पीछे पूरी पार्टी यूनिट खड़ी हो जाए. यह तलाश आकर रुकी 78 साल के विजय कुमार मल्होत्रा के नाम पर. मल्होत्रा तब बीजेपी से लोकसभा सदस्य थे और दिल्ली की राजनीति में तजुर्बे के साथ ही उनका कद भी ऊंचा था. शीला दीक्षित ने इस चुनाव में दिल्ली की अनधिकृत कॉलनियों को नियमित करने का दांव चल दिया और वीके मल्होत्रा का नाम भी दिल्ली चुनाव में बीजेपी के पराजित सीएम उम्मीदवारों की लिस्ट में दर्ज हो गया जिसमें पहले से ही मदन लाल खुराना और सुषमा स्वराज के नाम थे.

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डॉक्टर हर्षवर्धन (2013)- पेशे से चिकित्सक और दिल्ली बीजेपी के वरिष्ठ नेता डॉक्टर हर्षवर्धन को 2013 के चुनाव में बतौर सीएम फेस पार्टी ने प्रोजेक्ट किया था. ये चुनाव दिल्ली की चुनावी राजनीति में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का डेब्यू भी था. कॉमनवेल्थ घोटाले से नाम जुड़ने के कारण शीला दीक्षित की छवि को नुकसान पहुंचा था और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकले केजरीवाल और उनकी पार्टी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था. बीजेपी 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन बहुमत के लिए जरूरी 36 के जादुई आंकड़े से चार सीट पीछे रह गई. हर्षवर्धन ने बिना बहुमत के सरकार बनाने से इनकार कर दिया और कांग्रेस के सहयोग से केजरीवाल ने सरकार बना ली जो 49 दिन ही चल सकी.

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किरण बेदी (2015)- बीजेपी के सामने अब कांग्रेस या शीला दीक्षित की बजाय आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के रूप में नई चुनौती थी. बीजेपी ने इस चुनाव में अपने संगठन से बेहतर समझा केजरीवाल के ही किसी सहयोगी को सीएम फेस प्रोजेक्ट कर देना. पार्टी ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में केजरीवाल के साथ रहीं पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी को बतौर मुख्यमंत्री फेस प्रोजेक्ट कर दिया यह दांव भी नहीं चला. किरण बेदी की सियासत में एंट्री सुपर फ्लॉप रही. किरण बेदी खुद बीजेपी के गढ़ माने जाने वाले कृष्णा नगर से चुनाव हार गईं. बीजेपी को दिल्ली के इतिहास की सबसे करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा और पार्टी महज तीन सीटों पर ही सिमट गई.

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बिना सीएम चेहरे के 2020 में उतरी बीजेपी

दिल्ली के पिछले यानी 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पहले के चुनावों में किए गए प्रयोगों से हट कर एक नया प्रयोग किया. बीजेपी ने दिल्ली चुनाव में सीएम फेस प्रोजेक्ट किए बगैर उतरने का फैसला किया और सामूहिक नेतृत्व में चुनावी रण जीतने के बाद सीएम पर फैसले की बात हुई. बीजेपी को उम्मीद थी कि जिस तरह 2019 में पीएम नरेंद्र मोदी को सामने रख कर लोकसभा चुनाव में पार्टी ने देशभर में 300 से ज्यादा सीटें जीतीं और दिल्ली की सातों सीटों पर क्लीन स्वीप किया, उसी तरीके से दिल्ली चुनाव का मोर्चा भी फतह हो जाएगा.

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'तब शाहीन बाग में सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रोटेस्ट चल रहा था और ध्रुवीकरण से बीजेपी को लाभ होने के अनुमान भी जताए जा रहे थे. ये चुनाव जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के एक साल के भीतर ही हो रहे थे, ऐसे में बीजेपी नेताओं को इसका लाभ भी चुनावों में मिलने की उम्मीद थी लेकिन केजरीवाल के सॉफ्ट हिंदुत्व ने इन सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. केजरीवाल ने बीजेपी के हार्ड हिंदुत्व को सॉफ्ट हिंदुत्व से चुनौती दी और हनुमान चालीसा पाठ जैसे फैसलों से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को दिल्ली की सत्ता से दूर रखने में सफल रहे.

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तो इस बार 2020 से कैसे बदलेगा मामला?

साल 2020 में भरोसा मोदी लहर और ध्रुवीकरण पर ज्यादा था और बीजेपी अति आत्मविश्वास से भरी थी. पिछली बार की ग़लतियों से बीजेपी ने सबक लिया है और पार्टी को लगता है कि भ्रष्टाचार के मामलों में नाम आने की वजह से केजरीवाल की छवि को भी नुकसान पहुंचा है. कहा ये भी जा रहा है कि भले ही बीजेपी इस बार सीएम फेस प्रोजेक्ट किए बगैर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में है, पार्टी पूर्व सांसद प्रवेश वर्मा, रमेश बिधूड़ी, मीनाक्षी लेखी समेत तमाम वरिष्ठ नेताओं को चुनाव मैदान में उतार सकती है. दिल्ली बीजेपी के नेताओं को उम्मीद है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से आए अरविंदर सिंह लवली, राजकुमार चौहान और कैलाश गहलोत जैसा नेता भी दिल्ली चुनाव में पार्टी के लिए कारगर साबित हो सकते हैं.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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