साहित्य आज तक के तीसरे दिन एक खास सत्र रखा गया. जहां 'सिनेमा, साहित्य और रंगमंच' तीनों की मशहूर हस्तियों ने आपस में शिरकत की. एक्टर और लेखक अतुल तिवारी, अखिलेंद्र मिश्रा के साथ नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के डायेक्टर-एक्टर चितरंजन त्रिपाठी गेस्ट बनकर आए.
अखिलेंद्र से पूछा गया कि साहित्य, रंगमंच और सिनेमा का आपस में क्या नाता है? जवाब में एक्टर ने कहा- भगवान शिव के डमरू से निकले 14 सूत्र, इन सूत्रों से निकली कई सारी विद्याएं, कलाएं, भाषाएं, विधाएं. उसी विधा में से एक ये है नाटक, उसी का तकनीकी विस्तार सिनेमा है. जिसका आधार साहित्य है. साहित्य हो, रंगमंच हो या सिनेमा हो, तीनों का आधार एक ही है. तीनों में दो परिस्थितियों की मुलाकात होती है. पाठक, चरित्र दोनों की अलग-अलग परिस्थिति होती है. नाटक और दर्शक की परिस्थिति अलग है. ये दो परिस्थितियों का मिलन है.
आज का सिनेमा और रंगमंच दो खेमों में बंट गए हैं क्या?
जवाब में अतुल तिवारी बोले- पता नहीं कौन सा खेमा है. सब एक परिवार की तरह है. आज NSD के लोग अपना प्रभाव डालने में लगे हैं. कोई दोनों में कोई खास अंतर नहीं हुआ है. लेकिन एक बात ये भी है कि बहुत सारा टैलेंट जो NSD थियेटर के लिए तैयार करता है, वो सिनेमा में चला जाता है. बहुत कम लोग होते हैं जैसे नसीरुद्दीन शाह, जो थियेटर के लिए लगातार समय निकालते हैं. कम लोग थियेटर और सिनेमा को बराबर तवज्जो दे पाते हैं.
क्या कलाकार में अब वो गहराई नहीं है?
चितरंजन त्रिपाठी बोले- सबकी अपनी आजादी है. गहराई कौन परिभाषित करेगा. आज ऑप्शन बहुत है. जब आप मार्केट इकॉनमी की बात करते हैं तो सब कुछ स्वाभाविक है. हर चीज मार्केट रिलेटेड है. पहले मार्केट का इतना रोल नहीं था शायद. सिनेमा-थियेटर में कुछ भी अलग नहीं है. समाज ही पूरा नाटक है तो सिनेमा उसे कैसेअलग करेगा. रंगमंच कभी बंद नहीं होगा. चाहे AI, BI आ जाए. कुछ नहीं होने वाला है.
क्या क्रिएटिविटी-आजादी के नाम पर इतिहास से छेड़छाड़ होनी चाहिए?
अखिलेंद्र ने कहा- भारतसंगीत, कथाओं का देश है. आज सिनेमा से ये दोनों चीजें गायब हैं. वो जमाना चला गया जब हम दिमाग पर जोर नहीं डालते थे, कोई भी गाना गुनगुनाने लगते थे. क्योंकि उसका संगीत इतना कमाल होता था. आज पिछले 20 सालों में कितने गाने किसको याद है. वही हालत कहानियों की हो गई है. क्योंकि कट-पेस्ट कर रहे हैं. सीक्वल बन रहे हैं. कहानियां हैं ही नहीं. अब टीवी से भी कहानियां गायब हो गईं. अब ओटीटी आ गया है. वहां पर लोगों के दिमाग में जितनी विभस्ता थी वो सब दिखने लगी है. लेकिन कहानियां गायब हैं. किसी भी भाषा में इतना सारा साहित्य भरा हुआ है. वो इंतजार कर रहा है कब सिनेमा वाले सिनेमा बनाएंगे. ये तब हुआ जब भारतीय फिल्म उद्योग का नाम बॉलीवुड पड़ा.
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