Read Time5
Minute, 17 Second
प्रेम शंकर मिश्रा, लखनऊ: यूपी के उपचुनाव से लेकर महाराष्ट्र और झारखंड के आम चुनाव तक योगी का दिया नारा ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ चुनावी मुद्दा बना हुआ है। विपक्ष इसकी काट में नए नारे लेकर आ रहा है तो भाजपा के रणनीतिकार भी ‘एक हैं तो सेफ हैं..’ जैसे अपडेटेड वर्जन के साथ चुनावी मंच पर इसे विस्तार दे रहे हैं। चुनावी जमीन पर इस नारे की परख अभी और होनी है, लेकिन सियासत में नारे से ‘वारे-न्यारे’ होने का लंबा इतिहास है। नारों ने नैया पार भी लगाई भी है और मझधार में भी डाला है।पिछले एक-डेढ़ महीने से सियासत की धुरी बने ‘कटेंगे तो बटेंगे..’ नारे की सबसे खास बात यह है कि इसका इजाद एक गैर राजनीतिक कार्यक्रम में हुआ। 26 अगस्त को आगरा में दुर्गादास राठौर की प्रतिमा का अनावरण था। सीएम योगी आदित्यनाथ मुख्य अतिथि थे। बांग्लादेश की घटनाओं की नजीर देते हुए योगी ने मंच से कहा, ‘बंटेंगे तो कटेंगे, एक रहेंगे तो नेक रहेंगे…।’ इस पंचलाइन ने लोगों का ध्यान खींचा।
बाद में कुछ और मंचों पर सीएम ने यह बात दोहराई। एकाएक यह नारा राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया। इसके जवाब में सपा भी ‘पीडीए जोड़ेगी और जीतेगी’ और बसपा ‘जुड़ेंगे तो आगे बढ़ेंगे, सुरक्षित रहेंगे…’ का नारा लेकर आई है।
धारणा के खेवनहार
जानकारों का कहना है कि मुद्दों की जमीन कितनी भी मजबूत हो जब तक उन्हें सहज तरीके से नीचे तक नहीं पहुंचाया जाता वे प्रभावी नहीं हो पाते। नारे इस धारणा के सबसे बड़े खेवनहार होते हैं। इनकी एक भावनात्मक अपील होती है जो समर्थकों को एक सूत्र में पिरोती है। इसलिए, सियासी लड़ाई हो या दूसरे अभियान और आंदोलन नारे उसका नेतृत्व करते नजर आते हैं।
मौजूदा समय को ही लें विपक्ष जब जातीय गोलबंदी में लगा है तो संघ और भाजपा को भी लग रहा है कि ‘कटेंगे तो बटेंगे..’ के जरिए एका का संदेश अधिक प्रभावी है। लखनऊ विवि में मैनेजमेंट के प्रफेसर अजय प्रकाश कहते हैं कि हम किसी चीज को बार-बार सुनते हैं तो उससे कनेक्ट बन जाता है। इससे छवि गढ़ना आसान हो जाता है। सोशल मीडिया के जमाने में हैशटैग और वनलाइनर अनिवार्य तत्व हो गए हैं।
मनोविज्ञानी प्रो. अर्चना शुक्ला इसे संवाद के मनोविज्ञान से जोड़ती हैं। वह कहती हैं नारे या स्लोगन उस मुद्दे, विषय या ब्रैंड के बुलेट पॉइंट होते हैं। जो बात घंटों में कही जाती है, उसे सेकंड में इसके जरिए समझाया जा सकता है। यह पुरानी चिट्ठियों के उस सूत्र वाक्य की तरह होते हैं ‘कम लिखना ज्यादा समझना..।’
जब नारा बना सहारा
नारे जब ताने में बदल गए
बाद में कुछ और मंचों पर सीएम ने यह बात दोहराई। एकाएक यह नारा राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया। इसके जवाब में सपा भी ‘पीडीए जोड़ेगी और जीतेगी’ और बसपा ‘जुड़ेंगे तो आगे बढ़ेंगे, सुरक्षित रहेंगे…’ का नारा लेकर आई है।
धारणा के खेवनहार
जानकारों का कहना है कि मुद्दों की जमीन कितनी भी मजबूत हो जब तक उन्हें सहज तरीके से नीचे तक नहीं पहुंचाया जाता वे प्रभावी नहीं हो पाते। नारे इस धारणा के सबसे बड़े खेवनहार होते हैं। इनकी एक भावनात्मक अपील होती है जो समर्थकों को एक सूत्र में पिरोती है। इसलिए, सियासी लड़ाई हो या दूसरे अभियान और आंदोलन नारे उसका नेतृत्व करते नजर आते हैं।मौजूदा समय को ही लें विपक्ष जब जातीय गोलबंदी में लगा है तो संघ और भाजपा को भी लग रहा है कि ‘कटेंगे तो बटेंगे..’ के जरिए एका का संदेश अधिक प्रभावी है। लखनऊ विवि में मैनेजमेंट के प्रफेसर अजय प्रकाश कहते हैं कि हम किसी चीज को बार-बार सुनते हैं तो उससे कनेक्ट बन जाता है। इससे छवि गढ़ना आसान हो जाता है। सोशल मीडिया के जमाने में हैशटैग और वनलाइनर अनिवार्य तत्व हो गए हैं।
मनोविज्ञानी प्रो. अर्चना शुक्ला इसे संवाद के मनोविज्ञान से जोड़ती हैं। वह कहती हैं नारे या स्लोगन उस मुद्दे, विषय या ब्रैंड के बुलेट पॉइंट होते हैं। जो बात घंटों में कही जाती है, उसे सेकंड में इसके जरिए समझाया जा सकता है। यह पुरानी चिट्ठियों के उस सूत्र वाक्य की तरह होते हैं ‘कम लिखना ज्यादा समझना..।’
जब नारा बना सहारा
- 1965-66 : भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान तत्कालीन पीएम लाल बहादुर शास्त्री का दिया ‘जय जवान-जय किसान’ नारा लोगों की प्रेरणा बना। बाद में चुनाव में भी कांग्रेस की जमीन इससे तैयार हुई।
- 1971 : कांग्रेस के भीतर ही आंतरिक संघर्ष से जूझ रही इंदिरा गांधी के इमेज मेकओवर और चुनाव में बेहतर ‘टर्नओवर’ में ‘गरीबी हटाओ’ नारा हिट रहा। इंदिरा की इमोशनल अपील ‘विपक्ष कहता है इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ..’ काम कर गया।
- 1989-90 : राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस की चुनावी जमीन को विश्वनाथ प्रताप सिंह के आरोपों ने हिला दी थी। इस बीच ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है…’ नारा उत्तर भारत में वीपी की ब्रैंडिंग का हथियार बना।
- 1991-1993 : 90 के दशक में मंडल और कमंडल की लड़ाई में भी नारों ने नैरेटिव गढ़े। ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे..’ का मंदिर आंदोलन से जुड़ा नारा भाजपा के 91 के चुनावी कैंपन में भी छाया। '93 में जब मुलायम-कांशीराम साथ आए तो ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ ने जातीय गोलबंदी की जमीन बनाई।
- 1996-99 : केंद्र की सत्ता में जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही भाजपा की अगुआई उस समय अटल बिहारी वाजपेई कर रहे थे। उस समय चुनाव प्रचार की टैगलाइन भी ‘सबको देखा बारी-बारी, अबकी बार अटल बिहारी…’ ही बनी।
- 2014 : इस लोकसभा चुनाव में मोदी की ब्रैंडिंग पर केंद्रित भाजपा का चुनावी कैंपेन ‘अबकी बार मोदी सरकार’ के नारे के आस-पास ही बुना गया। तत्कालीन यूपीए सरकार की विफलताओं को पहली लाइन और समाधान के तौर पर मोदी की यह टैगलाइन जमीन पर कमाल कर गई। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं,’ ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' भी लोगों की जुबान पर खूब चढ़ा।
- 2019 : पहली बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने के बाद भाजपा 2019 में जब फिर चुनाव में आई तो उसके पास मोदी सरकार की उपलब्धियों की पूंजी थी। इसलिए, ‘मोदी है तो मुमकिन है..’ चुनावी आवाज बना।
नारे जब ताने में बदल गए
- 1989-90 : जब राजीव गांधी को बोफोर्स घोटाले में विश्वनाथ प्रताप सिंह घेर रहे थे, तो कांग्रेस ने जवाबी वार एक नए नारे के साथ किया, ‘फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।' यह नारा कांग्रेस के लिए ही बूमरैंग साबित हुआ।
- 2004 : सलाहकारों के फीडबैक से उत्साहित तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 का लोकसभा चुनाव समय से पहले करवा दिया था। चुनावी कैंपेन को ‘इंडिया शाइनिंग, … भारत उदय’ का रैपर पहनाया गया। लेकिन, जनता ने यह रैपर फाड़कर ताज कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन को दे दिया।
- 2007 : अमर सिंह की दोस्ती ने मुलायम सिंह यादव के ठेठ चुनावी प्रचार को भी ग्लैमर का जामा पहनाया। अमिताभ बच्चन यूपी के ब्रैंड अंबैसडर बने और उनकी आवाज में नारा गूंजने लगा ‘यूपी में दम है, क्योंकि यहां जुर्म कम है…।’ यह नारा नैरेटिव बदल तो नहीं पाया, लेकिन विपक्ष ने अपराध के आंकड़े गिनाकर इसी नारे के सहारे सत्ता पलट दी।
- 2017 : यूपी के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन हुआ। दोनों दलों के चुनावी प्रबंधकों ने ‘यूपी को ये साथ पसंद है…’ का नारा दिया, लेकिन, नारे और चेहरों दोनों को ही जनता ने नकार दिया।
- 2024 : लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता के लिए चुनाव में उतरी भाजपा ने ब्रैंड मोदी पर फिर दांव लगाया। ‘मोदी की गारंटी’ के साथ ही ‘अबकी बार, 400 पार..’ मुख्य चुनावी हथियार बना। लेकिन, भाजपा के ही कुछ चेहरों की बयानबाजी को आधार बनाकर विपक्ष ने संविधान बदलने का ऐसा नैरेटिव गढ़ा कि यह नारा यूपी सहित कुछ राज्यों में उम्मीद के बजाय आशंका बन गया। भाजपा सत्ता में आई लेकिन सहयोगियों के सहारे।
+91 120 4319808|9470846577
स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.