व्यंग्य- लाहौर की हवा में बरूद ही बरूद है...

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लाहौर से सटे चांद गांव में लंबे अरसे बाद खुशियां लौटी थीं. लोग एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे. जश्न का माहौल था. बच्चे अकारण कच्ची गलियों में दौड़ रहे थे. पुरुषों को खुश देखकर महिलाएं भी खुश थीं...एक आदर्श पितृसत्तात्मक समाज.

कुछ परिवारों ने तो पटाखेबाजी और आतिशबाजी तक का इंतजाम कर रखा था. ये खुशियों की इंतिहा थी. बदहाली से जूझ रहे इस गांव में लंबे अरसे बाद खुशियां लौटी थीं और ये खुशियां लेकर आए थे पुतानी.

पुतानी, दरअसल कल रात ही शहर से लौटे थे. करीब छह महीने पहले वो स्कैमर बनने और पैसे कमाने गांव से लाहौर गए थे. शहर में उन्हें कोई खास काम नहीं मिला. उन्हें पता चला कि आजकल स्कैम इंडस्ट्री में कारोबार सिर्फ ओटीपी निकलवाने तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि इन दिनों डिजिटल अरेस्ट का ही ज्यादा क्रेज है. चूंकि पुतानी ने कभी स्कूल जैसी तानाशाही और एकरूपता सिखाने वाली संस्था का मुंह तक नहीं देखा था इसलिए छह महीने तक बेहुनर स्कैमर के रूप में कॉलर ट्यून लगाकर उल्टा हर महीने अपने 29 रुपये कटवाने के बाद पुतानी ने गांव का रुख किया.

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रात को गांव पहुंचे पुतानी ने सबको बताया 'शाहर में सबकुछ दूरूस्त है. फैक्ट्री में हाड़ताल बुलाई है'. आम बातचीत में भी अब पुतानी स्थानीय मुद्दों के बजाय अंतरराष्ट्रीय विषयों पर भोले गांव वालों को संबोधित करते.

किसी जिज्ञासू ने जब उनसे पड़ोसी मुल्क का हाल पूछा तो पुतानी ने बस में कंडक्टर और यात्रियों के बीच नींद में सुनी एक चर्चा का इस्तेमाल किया.

पुतानी ने कहा, 'आप लोग जाश्न मनाएं. हिंदुस्तानी हामसे बोत पीछे हैं अब'. सबने पूछा कैसे, पुतानी ने बताया, 'आप लोग नी जानते. शाहर में इसके खूब चार्चे हैं. हमने उनको AQI में बोत पीछे छोड़ दिया है'.

गांव वालों को खुशी महसूस तो हुई लेकिन उल्लास पर जिज्ञासा भारी थी. 'ये AQI क्या है?' किसी ने पूछा तो पुतानी ने जवाब दिया, 'खुदा के वास्ते आप लोग मातलब में न उलझें. बस ये जान लें कि हम 1900 हैं और वो 300-400 ही पहुंचे हैं. गोरे तो सो भी नहीं पहुंचे.'

"दुनिया में ग़ालिब वो अकेला शायर है जो समझ में ना आए तो दोगुना मज़ा देता है." इन आंकड़ों ने गांववालों को यह तसल्ली दी कि AQI क्या है, यह उन्हें समझ में नहीं आएगा लेकिन हिंदुस्तानियों से आगे निकलने का यह अवसर उत्सव के लिए काफी है. उस रोज चांद गांव ने 1900 AQI का जश्न पटाखेबाजी से मनाया.

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ऐसा नहीं था कि AQI के साथ यह दुर्व्यवहार सिर्फ लाहौर में हो रहा था या पहली बार हो रहा था. तमाम चेतावनियों और प्रतिबंधों के बाद भी भारत में हर साल अक्टूबर-नवंबर पर AQI की आंखें नम हो ही जाती हैं.

इस साल तो लाहौर में 1900 AQI पहुंच गया जो जानलेवा था लेकिन पाकिस्तान सरकार ने तत्परता दिखाई और तत्काल इसके लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया तब जाकर अवाम ने 1900 AQI में केमिकल की सांस ली.

लेकिन ऐसा नहीं था कि चांद गांव की सिर्फ हवा ही खराब थी. प्रदूषण के मामले में यह गांव काफी संपन्न था. ध्वनि से लेकर मृदा तक, जल से लेकर हवा तक... हर तरह के प्रदूषण इस गांव में उपलब्ध थे. वो बात अलग कि कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था. क्योंकि पूरे गांव के स्वास्थ्य का जिम्मा डॉक्टर सिद्दीकी के ऊपर था.

तकरीबन 50 साल के डॉक्टर सिद्दीकी वास्तव में कोई डॉक्टर नहीं थे. दरअसल जवानी के दिनों में वो बहुत बीमार रहते थे और आए दिन दवा लेने के लिए डॉक्टर के चक्कर लगाया करते थे. कोई पूछता, 'अरे सिद्दीकी साब कहां?' वो कहते, 'डॉक्टर के यहां जा रहे हैं'. बस ऐसे ही उनका नाम डॉक्टर सिद्दीकी पड़ गया.

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यूं तो गांव में कोई प्रदूषण को गंभीरता से लेता नहीं था. ऊपर से प्रदूषण संबंधी बीमारियों या तकलीफों को लेकर डॉक्टर सिद्दीकी के पास वही तर्क थे जो आमतौर पर डॉक्टरों के पास होते हैं. कोई खांसता हुआ उनके पास जाता तो वो कहते 'हवा में बरूद ही बरूद है, खयाल रखें'.

पानी की किल्लत होती तो तारा सिंह के हैंडपंपकांड का जिक्र कर देते. हालांकि आजतक उनसे किसी ने ध्वनि या मृदा प्रदूषण के बारे में पूछा तो नहीं था लेकिन अगर कोई पूछता तो बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के धमाकों को जिम्मेदार ठहरा देते और मुल्क की मिट्टी पर कोई शेर चिपका देते.

अनवर मकसूद ने एक बार कहा था कि पाकिस्तान नमक पैदा करने वाले देशों में दूसरे नंबर पर है, लेकिन नमकहराम पैदा करने वाले देशों में पहले नंबर पर.

ऐसा नहीं था कि प्रदूषण को लेकर सभी का रवैया गैर गंभीर ही था. उधर शहर में कुछ लोगों ने इस मअसले का हल निकाल लिया था. जब भी आबोहवा पर चर्चा होती वो कहते, 'पाकस्तान में अब कुछ नहीं रखा भाईजान, दुबई चालें दुबई... साफ आबोहवा है उस तार्फ'.

स्वच्छ हवा के लिए शहर से गांव या और बड़े शहर जाने की योजनाएं प्रदूषण पर चर्चा में आपको एक दर्जा ऊपर उठा देती हैं. मुल्क का एक वर्ग प्रदूषण से बचने की संभावनाएं पलायन में खोज रहा था.

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lahore

लाहौर खांस रहा था... इस मुगालते में चांद गांव को खांसी आ गई कि AQI में हिंदुस्तानियों से आगे निकलना जश्न मनाने की एक वजह है. पुतानी भी खांस रहे थे और डॉक्टर सिद्दीकी भी. स्वेटर बुनती महिलाएं भी खांस रही थीं.

नमाजी खांसते हुए नमाज पढ़ रहे थे और खांसते हुए ही वज़ू कर रहे हैं, प्रेमपत्र लिखताहुआ प्रेमी मुस्कुरा नहीं खांस रहा था, लड़की ने खांसते हुए अपने निकाह में 'कुबूल है' बोला. बच्चे खांसते हुए सबक याद कर रहे थे. जिस पीढ़ी ने हवा को मैला किया उसके बच्चे खांसते हुए बड़े हो रहे थे.

लाहौर खांस रहा था लेकिन वो खांसी किसी को सुनाई नहीं दे रही थी. मुश्ताक़ अहमद युसूफ़ी लिखते हैं कि इस्लाम के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी बकरों ने दी है. जब बकरे भी खांसने लगे तब इंसानों को समझ में आया कि मामला अब हाथ से निकल चुका है.

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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