दिल्ली का प्रदूषण बड़ी समस्या है जिसे यमुना में साफ देखा जा सकता है, लेकिन ठीकरा तो पराली जलाने वाले किसानों के सिर पर मढ़ दिया जाता है - लेकिन जब वे किसान पलट कर पूछते हैं कि उनके यहां यमुना में प्रदूषण क्यों नहीं है, तो जवाब नहीं सूझता.
दिल्ली की पराली की समस्या वाकई इतनी बड़ी है या दिल्ली वाले कुछ ज्यादा ही एग्रेसिव हो जाते हैं इस सवाल के जवाब में किसान तक लेकर आया है विशेष प्रस्तुति पराली का
सवाल उठता है की दिल्ली से कहीं दूर पंजाब और हरियाणा के खेतों में जलाई जाने वाली पराली आखिर 'क्लीन दिल्ली, ग्रीन दिल्ली' के स्लोगन पर क्यों भारी पड़ जाती है? क्या दिल्ली में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे प्रदूषण का लेवल बढ़ जाता हो? और अगर बीमारी की जड़ दिल्ली में ही है, तो मर्ज का इलाज इधर उधर क्यों ढूंढ़ा जाता है?
क्या दिल्ली में प्रदूषण का असली गुनहगार पराली ही है?
ये सही है कि पड़ोसी राज्यों में पराली जलाये जाने की वजह से दिल्ली में प्रदूषण का स्तर कुछ दिनों के लिए बढ़ जाता है, लेकिन क्या सिर्फ पराली जलाना ही समस्या की एकमात्र वजह है? अगर दिल्ली के लोग और सरकार पराली जलाये जाने से खफा हैं, तो पराली जलाने वाले किसान उनसे ज्यादा खफा हैं.
सोनीपत के किसान पुष्पेंद्र सिंह चौहान की दलील है, किसान को जो समस्या के रूप में दिखाया जा रहा है... उसके पीछे देखने की जरूरत है... कौन सी ताकत है, देश की ताकतें हैं... विदेश की ताकते हैं... किसान समस्या नहीं है, किसान तो समाधान है... कल को आप ये भी कहेंगे की किसान के यहां तो रोटी बन रही है, चूल्हे पर... किसान अगर किसी वजह से मजबूरी में अपनी अगली खेती को तैयार करने के अगर घंटे भर के लिए धुआं दे दिया तो मान लिया गया, वो पूरे साल जो हरियाली भी दे रहा है पूरी दुनिया को... उस पर किसी का ध्यान नहीं है.
पुष्पेंद्र सिंह चौहान कहते हैं, जो पूरा सिस्टम जो प्रदूषण फैला रहा है, इस देश में... चाहे वो गाड़ियां, फैक्ट्रियां हैं उस पर किसी का ध्यान नहीं है... सारे मिलकर किसान के पीछे लग गये हैं.
और वैसे ही एक अन्य किसान संजीव कुमार का भी बड़ा ही वाजिब तर्क है, 'हमारे यहां यमुना को देखिये... कहीं जरा सा भी नहीं मिलेगा... आप दिल्ली में जाइए... क्या हाल कर रखा है.'
दिल्ली के प्रदूषण में पराली का बहुत मामूली रोल है
किसानों की दलील अपनी जगह है, लेकिन दिल्ली वालों का गुस्सा भी जायज है - लेकिन असली जिम्मेदार कौन है?
सवाल ये है कि क्या पराली जलाना बंद हो जाये तो दिल्ली में प्रदूषण की समस्या खत्म हो जाएगी? सवाल का जवाब हां या ना में भी मिल सकता है, लेकिन कुछ तथ्य ऐसे भी हैं जिनके जरिये समस्या की तह तक पहुंचा जा सकता है, और तब शायद समाधान भी खोजा जा सके.
1. देश में पराली जलाये जाने का काम दशकों से चला आ रहा है, लेकिन उसे असली खलनायक बीते कुछ साल से ही बताया जा रहा है. दिल्ली के प्रदूषण के लिए पराली को खलनायक साबित करने का सिलसिला 2016 के बाद से शुरू हुआ है - जिसकी खास राजनीतिक वजह भी समझी जा सकती है. 2015 से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है, और 2022 से तो पंजाब में भी वही अरविंद केजरीवाल कीपार्टी सत्ता में है, और भगवंत मान मुख्यमंत्री.
2. दिल्ली के प्रदूषण के बहुत सारे कारण हैं, जिनमें शामिल हैं गाड़ियां जिनसे 28 फीसदी प्रदूषण होता है. दिल्ली में इंडस्ट्री से 30 फीसदी, धूल की वजह से 17 फीसदी और अन्य कारणों से 21 फीसदी प्रदूषण होता है - लेकिन पराली जलाये जाने के कारण तो प्रदूषण में महज 4 फीसदी ही इजाफा होता है.
3. दिल्ली में साल 2000 में 34 लाख गाड़ियां थीं, जो 2020 में बढ़कर 1.18 करोड़ तक पहुंच गई यानी दिल्ली में दो दशक के अंदर गाड़ियों की संख्या में चार गुना बढ़ोतरी हुई है. एक बड़ा कारण दिल्ली की बढ़ती आबादी और उससे जुड़े तमाम फैक्टर भी हैं. 2001 में दिल्ली की जनसंख्या 1.38 करोड़ थी और 2020 तक बढ़कर ये 2.03 करोड़ तक पहुंच गई.
4. दिल्ली के प्रदूषण का स्तर ज्यादा ऊपर या नीचे नहीं होता, हर रोज उतना ही प्रदूषण पैदा होता है. लेकिन, AQI यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स कभी कम कभी ज्यादा होता रहता है, जिसके दो कारण माने जाते हैं. एक, हवा में नमी और दूसरा हवा का रुख.
5. गर्मियों में वातावरण में नमी कम होने की वजह से हवा हल्की होती है, और पॉल्यूटेंट हवा के साथ बह जाते हैं. सर्दियों में नमी की वजह से हवा और भारी हो जाती है जिससे पोल्यूटेंट का जमावड़ा हो जाता है, और हवा भारी हो जाती है.
लेकिन ये भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि किसी दिन दिल्ली में AQI कम है, तो इसका मतलब यह नहीं की उस दिन पॉल्यूशन कम रहा, कम एक्यूआई का मतलब सिर्फ इतना ही है कि तब मौसम मेहरबान रहा होगा.
6. सर्दियों में हवा वैसे भी भारी होती है, ऊपर से दिल्ली में ज्यादा प्रदूषण की वजह से और भी ज्यादा भारी हो जाती है और नतीजा ये होता है कि आसमान में एक दीवार सी बन जाती है. जब पंजाब और हरियाणा की पराली का धुआं दिल्ली पहुंचता है, तो दिल्ली की आसमानी दीवार उसे रोक देती है, और दिल्ली की फिजां और भी खराब हो जाती है.
दिल्ली का प्रदूषण बढ़ाने में पराली की सिर्फ 4 फीसदी भागीदारी है, लेकिन अक्टूबर-नवंबर में ऐसा भी होता है कि किसी-किसी दिन ये 30 फीसदी तक भी पहुंच जाता है - क्योंकि यही वो वक्त होता है जब खेतों में पराली सबसे ज्यादा जलाई जाती है.
7. खेतों में पराली के बने रहने की एक वजह कंबाइन मशीन भी लगती है. 1995 में कंबाइन मशीन की एंट्री के बाद से ये मामला ज्यादा खराब हुआ है. असल में, कंबाइन मशीन फसल तो काट लेती है, लेकिन पराली को खेतों में ही छोड़ देती है.
हैप्पी सीडर और सुपर सीडर जैसी मशीनें भी बनी हैं, लेकिन ये मशीनें काफी महंगी मिलती हैं, जिन्हें खरीद पाना हर किसान के लिए संभव नहीं हो पाता. कंबाइन के बहुत बाद आई ये मशीनें बीज की बुवाई के साथ साथ पराली के भी टुकड़े टुकड़े कर खेतों में मिला देती है.
प्रदूषण तो दिल्ली की अपनी खेती और फसल है
देखें तो दिल्ली में हाई पॉल्यूशन, दरअसल, घर की खेती लगती है, क्योंकि दिल्ली की गाड़ियां, दिल्ली की आबादी, दिल्ली के कारखाने और दिल्ली में होने वाले कंस्ट्रक्शन के काम - ये सारी चीजें तो दिल्ली के अपने हिस्से में ही आती हैं - और इस लिहाज से देखा जाये, तो दिल्ली के प्रदूषण में बाकी चीजों के मुकाबले पराली की बहुत ही मामूली भूमिका है.
दिल्ली में प्रदूषण के लिए जितना शोर पराली के नाम पर मचाया जाता है, वो बिलकुल सही है क्योंकि दिल्ली की हवा को और ये और भी गंदा बनाती है - लेकिन पूरे साल में ये तो करीब 10 दिन के लिए बिन बुलाया मेहमान है, जबकि साल के बाकी 355 दिन दिल्ली अपना प्रदूषण अपने गोद में लिए घूमती रहती है.
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