पुराने अह्द के क़िस्से सुनाता रहता है
बचा हुआ है जो बूढ़ा शजर हमारी तरफ़
~ ताहिर फ़राज़
आपकी आंखों के सामने दिल्ली के चांदनी चौक इलाक़े की एक तस्वीर है, तस्वीर में लाल पत्थर से बना रास्ता है, रास्ते के बगल फुटपाथ पर खड़ी कार है, कार की छत पर दिख रहा है यकायक ढह गया पुराने पेड़ का एक हिस्सा है और आस-पास खड़े लोग. क्या इस नज़ारे को देखकर चौंकने जैसा कुछ है? जवाब है- नहीं और इस 'नहीं' के पीछे की क्या वजह है, वो आपको मैं बताऊंगा. इस तस्वीर को देखने के बाद सबसे पहले आपके दिमाग़ में जो ख़याल आ रहा है, शायद वैसी मैं भी सोचने लगा था कि चमचमाती कार की तो वाट लग गई, ग़लत हुआ... ऐसा नहीं होना चाहिए था. मैंने बिना कुछ सोचे इस तस्वीर को पहले अपनी आंखों में और फिर कैमरे में क़ैद कर लिया. उसके बाद काफ़ी देर तक सोचता रहा कि इस पेड़ के गिरने और कार मालिक का नुक़सान होने की मौजूदा पिक्चर आख़िर किसकी ग़लती की नतीजा है.
- पेड़ की ग़लती थी क्योंकि वो कार के ऊपर गिर गया?
- कार मालिक की ग़लती थी क्योंकि उसके पास कार थी?
- ग़लत जगह कार पार्क की गई थी?
- ट्रैफ़िक मैनेजमेंट सिस्टम की लापरवाही थी?
- लोकल प्रशासन की ग़ैर-ज़िम्मेदारी?
- या फिर कई साल से लोगों को तमाम तरह की सुविधा दे रहा वो बूढ़ा दरख़्त ही ग़लत जगह पर था?
दिमाग़ में यही सब बातें गूंज ही रही थीं कि उस पेड़ के तने के चारों तरफ़ बने हुए चबूतरे पर मेरी नज़र पड़ी और मैं पेड़ के हालात के बारे में सोचने लगा. इतने में मुझे एक ख़याल आया और मैं अंदर ही अंदर मुस्कुराने लगा कि कहीं उस पेड़ को याद तो नहीं था कि चबूतरा बनवाने का कॉन्ट्रैक्ट लेने वाला ठेकेदार भी कार से ही मुआयना करने आया करता था?
ऐसी हालत में कैसे ज़िदा रहेंगे पेड़?
लाल क़िले के सामने करोड़ों रुपए ख़र्च करके रिनोवेशन किए जाने के बाद बनाई गई चांदनी चौक की नई रोड पर लाल बलुआ पत्थर की टाइल्स लगी हैं, इसके किनारे फूलों के रंग-बिरंगे गमले दिखते हैं, थके हुए पैरों के लिए पत्थर की ही बेंचेज़ बनाई गई हैं. इलेक्ट्रिक वायर अंडरग्राउंडेड हैं, इसके साथ ही पूरी उम्मीद है कि नीचे से गटर भी गुज़रा हो. लाल पत्थर वाली सड़क के दोनों तरफ़ फुटपाथ है और इसी फुटपाथ पर ही है उस वृक्ष का ढांचा, जिसकी वजह से कार क्षतिग्रस्त हो गई. उस पेड़ के तने के नीचे बना दिया गया है टाइल्स वाला चबूतरा. अब हमें साफ-सुथरे ऑक्सीजन की सप्लाई करने वाला ये शजर ख़ुद कैसे सांस ले पाएगा? शायद इसी का नतीजा हुआ कि हरियाली की जगह सिर्फ़ ढांचा बचा और लड़खड़ाते हुए, बन गया कार मालिक की परेशानी का सबब.
बदलवा पर कंट्रोल?
दुनिया हर रोज़ बदल रही है. जिन चीज़ों से हमारी दिनचर्या जुड़ी होती है, उनमें हो रहे बदलाव हमें फ़ौरन नज़र आते हैं लेकिन वक़्त के साथ ज़र्रे-ज़र्रे में बदलाव होता है. हमारी ज़िंदगी में कई सारे बदलवा ऐसे भी हैं, जिन पर हमारी नज़र अचानक पड़ती है और हम चौंक उठते हैं. बदलाव ख़ास तौर से दो तरह के होते हैं- प्राकृतिक और मानव निर्मित. इंसानी फ़ितरत ने ज़रूरत के हिसाब के दोनों तरह के बदलावों को जब चाहा मुफ़ीद समझा और जब दिल किया इससे पहले ग़ैर लगा दिया और बोल दिया गया कि फ़ला चीज़ ग़ैर-मुफ़ीद है, इसकी ज़रूरत नहीं है, तो इसको ख़त्म कर दिया जाए या फिर अपने हाल पर छोड़ दिया जाए. यानी हमने अच्छे और बुरे बदलवा की परिभाषा बना ली और जो बदलवा हमें ज़रूरत के मुताबिक अच्छा लगा, उस पर हमने अपना कंट्रोल जमाने की कोशिश शुरू कर दी. लेकिन क्या प्रकृति के थपेड़ों के सामने खड़े होकर हम हर तरह के बदलाव पर अपनी मर्ज़ी चला सकते हैं?
एक तस्वीर में सिमटता 'दुनिया का मक़सद'
हमने माज़ी में दुनियावी ज़रूरतों के लिए इस तरह के खेल खूब खेले और ये सिलसिला रुका नहीं है, हम इस रास्ते पर चलते जा रहे हैं और ज़ोरों से चल रहे हैं. लेकिन इसके पीछे हम क्या छोड़ रहे हैं, इसका ख़याल कुछ पल के लिए ही आता है. और ख़याल इस तरह आता है कि वो एक तस्वीर भर में सिमटकर रह जाता है.
टेक्नोलॉजी से लैस चमकदार दुनिया के लिए रेस्टोरेशन, रिनोवेशन और आधुनिकता के जाल में फंसकर हम कथित तौर पर कामयाब तो दिखने की कोशिश कर लेते हैं लेकिन सवाल ये है कि क्या असल में कामयाब हैं? अगर हैं, तो क्या इस कामयाबी में सुकून मिल रहा है? जब कोई प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए जंगल के जंगल ख़त्म कर दिए जा रहे हैं, किसी शहर को धूलमुक्त करने के मक़सद से पक्की सड़कें बनाते वक़्त रास्ते में आने वाले पेड़ काट दिए जा रहे हैं, किसी मार्केट के तथाकथित रिनोवेशन में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हैं, तो इसका ख़ामियाज़ा भी हमें याद रखना चाहिए.
हमें अब अपने आस-पास रिहायशी इलाक़ों में भारी पेड़ नहीं नज़र आते. हम फ़्लैट की बालकनी और घरों के आंगन के गमलों में लगे छोटे-छोटे पौधों से ऑक्सीजन मिलने की उम्मीद वाली हद तक आ चुके हैं. हमें अब खुले में सांस लेने की आदत शायद नहीं रही, उसके लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है. आब-ओ-हवा इतनी ख़राब हो गई है कि हम चेहरे पर मास्क लगाए ही जा रहे हैं, कार का कांच चढ़ाए ही जा रहे हैं और प्रकृति का दिया गंवाए ही जा रहे हैं.
सवाल उठाते आंकड़े
Nature Sustainability जर्नल के मुताबिक, डेनमार्क की कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स द्वारा सैटेलाइट इमेजरी के जरिए किए गए रिसर्च में कहा गया कि 2019 से 2022 तक सिर्फ तीन साल में भारत ने एग्रीकल्चरल लैंड्स में करीब 58 लाख पूर्ण विकसित (भारी) पेड़ों को खो दिया है. 2010-2011 के दौरान सैटेलाइट के जरिए देखे गए ऐसे पेड़ों में से 11 फीसदी 2018 से 2022 तक रिव्यू किए जाने पर दिखाई नहीं दिए, जिससे रिसर्चर्स ने निष्कर्ष निकाला कि ये पेड़ गायब हो गए हैं.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के रिज एरिया में पेड़ों के काटे जाने का मामला सुप्रीम कोर्ट में है. कोर्ट ने दिल्ली सरकार से 400 से ज़्यादा पेड़ों की कटाई पर मंजूरी देने के लिए सवाल भी उठाया था.
इसी साल जून में छपी TOI की एक रिपोर्टके मुताबिक, यूपी सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) को बताया था कि गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर में फैले 111 किलोमीटर लंबे कांवड़ मार्ग परियोजना के लिए 33 हजार से ज्यादा पूर्ण विकसित पेड़ों को काटा जाएगा. रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने राज्य सरकार को तीन जिलों में परियोजना के लिए 1.1 लाख पेड़-पौधे काटने की अनुमति दी थी. इसके बाद स्वतः संज्ञान लेते हुए ट्रिब्यूनल ने प्रधान वन संरक्षक, मंत्रालय, लोक निर्माण विभाग और तीनों जिलों के डीएम से काटे जाने वाले पेड़ों का ब्यौरा मांगा था.
यह भी पढ़ें: दिल्ली में यमुना किनारे… नेचर, ख़ूबसूरती और सुकून का मुकम्मल पैकेज है ‘बांसेरा पार्क’
आम अवाम या फिर सरकार किसी के भी द्वारा लिए गए फ़ैसलों से अगर प्रकृति को नुक़सान पहुंचता है, तो ये साफ़-सुथरी हवा मिलने की उम्मीद करने वालों की दुनिया के लिए फ़िक्र की बात है. चांदनी चौक इलाक़े में कार पर पुराने दरख़्त गिरने जैसी तमाम तरह की घटनाओं को देखकर चुपचाप गुज़र नहीं जाना चाहिए. ऐसे नज़ारे देखने के बाद हमें सोचना चाहिए कि हम किस तरह की दुनिया बनाने की दिशा आगे बढ़ रहे हैं?
+91 120 4319808|9470846577
स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.