राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय समन्वय बैठकपहली बार केरल के पलक्कड़ में 31 अगस्त से 2 सितंबर तक आयोजित की जा रही है. अगले साल संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं. तीन दिवसीय सम्मेलन में इस बार सबसे खास जोर विपक्ष की जातिवादी राजनीति का तोड़ निकालने पर होगी. पर जिस तरह आरएसएस के हाथ खींचने से भारतीय जनता पार्टी अपनी तीसरी पारी में कमजोर हुई है उसे देखते हुए कहा जा रहा है कि संघ अब केंद्र में और महत्वपूर्ण भूमिका चाहता है. द हिंदू अखबारकी मानें तो संघ परिवार आने वाले वर्षों में अपने से संबंद्ध लगभग 35 संगठनों की समाज में बढ़ी हुई हिस्सेदारी चाहता है. जिसके लिए एक रोडमैप तैयार करने की ख्वाहिश है.
इस सम्मेलन में आरएसएस की ओर से प्रमुख मोहन भागवत, महासचिव दत्तात्रेय होसबले, सभी छह संयुक्त महासचिव और अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी भाग लेंगे, जबकि बीजेपी की टीम में पार्टी प्रमुख जे पी नड्डा, महासचिव बी एल संतोष और संयुक्त महासचिव शिव प्रकाश समेत अन्य लोगों के शामिल होने की उम्मीद है.
कास्ट पॉलिटिक्स की तोड़ निकालेगा संघ
इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि अब आरएसएस भी अपनी पहुंच को बढ़ाने के लिए विभिन्न स्वतंत्र हिंदू संगठनों और दबाव समूहों के साथ मजबूत संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है. विहिप को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और झुग्गी बस्तियों की आबादी के बीच सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने का काम सौंपा गया है, खासकर दिवाली से पहले.
संघ कई वर्षों से संघर्ष कर रहा है कि सामाजिक समरसता अभियान सेजातिगत विभाजन खत्म हो.हिंदुओं में न केवल एकता हो बल्कि वो दिखाई भी दे.पर हाल के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को लगे झटकेके बाद इस पर फिर से ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की जा रही है. खासकर उत्तर प्रदेश में मिली करारी हार के पीछे मुख्यतः यह माना गया कि दलितों ने बीजेपी से दूरी बना ली थी. औरपार्टी 240 सीटोंतक सिमट गईं और लोकसभा में बहुमत से वंचित हो गई.
सामाजिक समरसता अभियान आमतौर पर आरएसएस शाखा स्तर के कार्यकर्ताओं के द्वारा दलितों के लिए मंदिरों और कुओं तक पहुंच सुनिश्चित करने से जुड़ा होता है. सामुदायिक भोज भी आम होते हैं, जहां आरएसएस कार्यकर्ता दलित समुदाय के लोगों के साथ बैठकर भोजन साझा करते हैं.
पर अब समस्या और गंभीर हो गई है.इतने भर से काम नहीं चलने वाला है. दलितों और पिछड़ों के साथ भोज से ही अब काम नहीं चलने वाला है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार जातिगत जनगणना की बात कर रहे है्ं. इसके साथ ही राहुल गांधी लगातार कह रहे हैं कि दलितों और पिछड़ों को कितनी भागीदारी मिल रही है. जनता इस बात को जानती है कि 2004 से 2014 तक कांग्रेस की ही केंद्र में सरकार रही और दलितों और पिछड़ों की हिस्सेदारी और जाति जनगणना के लिए कुछ नहीं हुआ. फिर भी राहुल गांधी की बातें लोगों को लुभा रही हैं. शायद यही कारण है कि अभी हाल ही में रेलवे बोर्ड का चेयरमैन एक दलित अफसर को नियुक्त किया गया है.
आमतौर पर आरएसएस ने भी आरक्षण को लेकर अपने विचारों को लचीलाबनाया है. संघ प्रमुख मोहन भागवत के पिछले कई बयान इसके गवाह हैं पर अब भी आरएसएस की छवि आम लोगों में आरक्षण विरोधी के रूप में दर्ज है. संघ और बीजेपी को यह भी सोचना होगा कि इस छवि से कैसे छुटकारा पाया जाए.
आरएसएस अब बढ़ी भूमिका चाहताहै
वर्तमान में, भाजपा केंद्रीय नेतृत्व अपने वैचारिक अभिभावक संगठन के साथ संबंधों में सुधार कर रहा है.लोकसभा चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तर भारत के राज्यों में ताबड़तोड़ बैठकें कर रहा है. उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक संघ की समन्वय बैठकें संपन्न हुई हैं. कुछ दिन पहले ही संघ प्रमुख मोहन भागवत की यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से बंद दरवाजे के पीछे मुलाकात हुई थी. उसके बाद भी जब यूपी में संगठन बनाम सरकार विवाद के नाम पर विवाद बढ़ा तो कई राउंड की बैठकें संघ के साथ सरकार और संगठन की हुईं हैं.
आगामी दिनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में संघ महत्वपूर्ण भूमिका चाहता है. शायद यही कारण है कि हरियाणा में लगातार समन्वय बैठकें हुईं हैं. टिकट वितरण से लेकर चुनाव अभियान और दूसरे दलों से आने वाले लोगों , राजनेताओं के संबंधियों को टिकट देने आदि के मुद्दे पर लगातार संघ के नेताओं से परामर्श लिया जा रहा है.
हाल ही में पूर्व भाजपा राष्ट्रीय महासचिव राम माधव की जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों के प्रभारी के रूप में नियुक्ति भी इसका एक संकेत है.राम माधव को 2020 में भाजपा महासचिव पद से हटा दिया गया था जब नए पार्टी अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने अपनी टीम का पुनर्गठन किया था. इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि अब उनकी वापसी यह भी दर्शाती है कि आरएसएस का संदेश है कि संगठन का भाजपा की चुनावी महत्वाकांक्षाओं और पार्टी के ढांचे पर भविष्य में प्रभाव रहेगा.
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