जो जीता वही सिकंदर... मोदी 3.0 में नहीं है कोई बड़ी चुनौती, जानिए कैसे फूटेगा विपक्ष का यह बुलबुला

लेखक : स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हार पर उदारवादियों का खुश होना शायद एक हफ्ते के लिए ठीक था। उसके बाद, उन्हें इस कहावत का सामना करना होगा, 'जो जीता, वही सिकंदर' यानी जो जीतता है, वही ताकतवर है। बॉक्सिंग की भाषा में

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लेखक : स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हार पर उदारवादियों का खुश होना शायद एक हफ्ते के लिए ठीक था। उसके बाद, उन्हें इस कहावत का सामना करना होगा, 'जो जीता, वही सिकंदर' यानी जो जीतता है, वही ताकतवर है। बॉक्सिंग की भाषा में कहें तो कोई भी ये याद नहीं रखता कि किसकी आंख काली हुई, केवल यह याद रखता है कि कौन जीता। जीत का अंतर मायने नहीं रखता। निष्कर्ष यह है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर अभी कोई गंभीर खतरा नहीं है। एक लिबरल ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी है कि गठबंधन दो साल में टूट जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि बीजेपी को सत्ता में काबिज रहने के लिए चंद्रबाबू नायडू (टीडीपी) और नीतीश कुमार (जेडीयू) जैसे सहयोगियों की जरूरत है। यह एक इच्छाधारी सोच है। नायडू और नीतीश को लेकर ये माना जाता है कि वो राजनीतिक अवसरवादी हैं जिन्होंने कभी बीजेपी के साथ गठबंधन किया है और कभी उसे छोड़ा भी है। ऐसा लगता है कि उनके पास कोई वैचारिक दुविधा नहीं है, केवल स्वार्थ है।

नई सरकार में नीतीश-नायडू बेहद अहम

ऐसे में आज की बात करें तो क्या इनमें से किसी को भी इंडिया ब्लॉक में जाने से फायदा होगा? असंभव है, और अगर ऐसा होता भी है, तो भी इंडिया ब्लॉक बहुमत से दूर रहेगा। अगर वह छोटी पार्टियों से कुछ और सीटें भी जुटा ले, तो भी ऐसा गठबंधन बहुत कमजोर होगा और उसे तोड़ना आसान होगा। बीजेपी दलबदलुओं को अपने पाले में लाने और बहुमत जुटाने में माहिर है। इसके पिछले रिकॉर्ड पर नजर डालें। 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में, यह बहुमत से चूक गई और जेडीयू-कांग्रेस की सरकार बनी। लेकिन बीजेपी ने सत्तारूढ़ गठबंधन के 17 विधायकों को इस्तीफा देने के लिए 'मना' लिया। बस फिर क्या था वो सबसे बड़ी पार्टी बन गई और सत्ता में आ गई।

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बहुमत से दूर बीजेपी, फिर भी नहीं टेशन

उस समय इस बात की चर्चा थी कि इसमें बहुत ज्यादा पैसे का खेल हो सकता है। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ। शिवसेना ने अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने के लिए बीजेपी से गठबंधन तोड़ दिया। लेकिन फिर बीजेपी ने शिवसेना के अधिकांश विधायकों को दलबदल करने के लिए 'मना' लिया। ऐसा कहा गया कि पाला बदलने वालों को कथित तौर पर आरोपों से छूट मिलने का फायदा हुआ, जिनका वे सामना कर रहे थे। क्या बीजेपी की कुछ सीटें हारने से उसकी राजनीतिक शैली बदल जाएगी? उदारवादियों की इच्छा के बावजूद इसके आसार कम ही है। आखिरकार, बीजेपी की टीम पूरी तरह से काम कर रही है। यूएपीए जैसे गैर-जमानती कानून, जिसके बारे में विपक्ष और समाज का दावा है कि उसका इस्तेमाल हथियार के तौर पर किया जा रहा है। अभी भी उसका यूज किया जा सकता है।

इस प्लान से आगे बढ़ेगी बीजेपी

नीतीश कुमार या नायडू से ऐसी किसी भी रणनीति पर आपत्ति की उम्मीद न करें। वास्तव में, वे अपने स्थानीय विरोधियों के खिलाफ ऐसे तरीकों के इस्तेमाल का स्वागत कर सकते हैं। दोनों के अपने-अपने एजेंडे हैं जो बीजेपी के खिलाफ हैं। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इससे बीजेपी के साथ उनके मतभेद हो सकते हैं। नीतीश अति पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय जाति जनगणना चाहते हैं, जिसका बीजेपी विरोध करती है। आंध्र प्रदेश में, नायडू ने पहले पिछड़े मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में 4 फीसदी कोटा देने वाला कानून बनाया था। यह भाजपा की विश्वास प्रणाली के खिलाफ है, जो इस्लाम या किसी अन्य धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध करती है। क्या इससे दरार पैदा होगी? फिर से, संभावना नहीं ही है।

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पहले भी बदले अंदाज में आ चुकी है नजर

बीजेपी वैचारिक रूप से उतनी कठोर और हिंदुत्व पर अड़ी हुई नहीं है, जितना कुछ लोग इसे दिखाना चाहते हैं। उनका रुख जरूरत पड़ने पर अवसरवादी और लचीला हो सकता है। गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने जैसे हिंदुत्व के दिलों में बसने वाले मुद्दे पर, बीजेपी ने कुछ राज्यों में अलग रुख लिया। गोवा और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में सत्ता में आने पर पार्टी ने इस तरह की कार्रवाई से परहेज किया, जहां ईसाई, गोमांस खाने वाली आबादी काफी ज्यादा है। कारण यह बताया गया कि वोटर्स गोमांस की आपूर्ति पर प्रतिबंध से नाखुश होंगे, जो किसी भी अन्य वजहों की तरह गैर-वैचारिक कारण है। हाल ही में एक कॉलम में मैंने लिखा था कि किस तरह योगी सरकार ने यूपी में गौरक्षकों पर लगाम लगाई और भैंस के मांस के निर्यात को फिर से पटरी पर लेकर आए।


मोदी 3.0 में नजर आएंगे मामूली बदलाव

सहयोगियों के साथ मतभेदों के मामले में, नीतीश कुमार ने पहले ही अपने राज्य में जाति जनगणना करवाई है। इसमें स्थानीय बीजेपी की ओर से समर्थित अत्यंत पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का आदेश दिया है। नायडू ने अपने मतभेदों के बावजूद बीजेपी के साथ हाथ मिलाया है और उन्हें अपना 4 फीसदी मुस्लिम कोटा रखने की अनुमति दी जाएगी। ये मुद्दे बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन के लिए कोई खतरा नहीं हैं। इसलिए, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के पूरे पांच साल चलने की उम्मीद करें, जब तक कि मोदी खुद यह महसूस न करें कि वे मध्यावधि चुनाव कराने और अपने दम पर पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के लिए मजबूत आधार पर हैं। इस दौरान सहयोगियों पर निर्भरता के बावजूद राजनीतिक शैली में केवल मामूली बदलावों की उम्मीद करें। मीडिया बहुलवाद को बढ़ावा मिल सकता है क्योंकि बीजेपी अब जानती है कि उसे अपनी लोकप्रियता के बारे में कुछ चापलूसों की तरफ से गुमराह किया गया था। सांप्रदायिकता के बीच कभी-कभार हलचल की उम्मीद करें। हालांकि, राजनीति में इस दौरान कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं होगा।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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