हिंदुस्तान की आजादी से पहले इसका तेवर और कलेवर बिल्कुल जुदा था. देश का दिल यानी दिल्ली भी इससे अछूता कैसे रह जाता. ये वो दौर था जब दिल्ली पर मुग़लिया सल्तनत काबिज थी. लेकिन राजशाही का टेंटुआ फिरंगियों के हाथों में था. अंग्रेजों की मर्जी के बिना बादशाह रियासत से जुड़ा कोई भी फैसला न ले सकता था. तमाम पाबंदियों से इतर दिल्ली वाले सालाना जलसे का बेसब्री से इंतजार किया करते थे. वो जलसा, जिसकी जड़ें बादशाह अकबर सानी या फिर अकबर शाह द्वितीय (1808-1837) के जमाने में मिलती हैं.
बरसों पहले थम चुकी ये रवायत 'बहादुर शाह जफर और फूल वालों की सैर' किताब के जरिए एक बार फिर जीवंत हुई है. मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग की इस रोचक किताब से पाठकों को रूबरू कराने के लिए ज़ुबेर स़ैफी ने इसका लिप्यंतरण (transliteration) किया है, जिसे रेख्ता पब्लिकेशंस ने अपनी सूफीनामा सीरीज का हिस्सा बनाकर प्रकाशित किया है. 'फूल वालों की सैर' पर नवाबी दौर के पहुंचे हुए शायर दाग देहलवी ने क्या खूब लिखा है...
दिल्ली में फूल वालों की है एक सैर 'दाग'
बदले में हम ने देख ली सारे जहां की सैर
'फूल वालों की सैर' दिल्ली सल्तनत के इतिहास से जुड़ा मुगलकालीन रिवाज़ है. इसके शुरू होने का किस्सा भी कम रोचक नहीं है. दरअसल, उस जमाने में बादशाह अकबर सानी के शराबी और मुंहफट छोटे बेटे मिर्जा जहांगीर ने अंग्रेज अधिकारी स्टेन साहब के ऊपर गोली दाग दी. हालांकि, वे बच गए. लेकिन अंग्रेज अफसर के ऊपर गोली चलाने के जुर्म में मिर्जा जहांगीर गिरफ्तार हो गए. उन्हें इलाहाबाद भेज दिया गया. मुमताज बेगम अपने बेटे जहांगीर से बेहद प्यार करती थीं. नतीजतन उन्होंने मन्नत मांगी कि अगर जहांगीर रिहा हो जाएं तो वह नंगे पैर महरौली में ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह जाएंगी. चादर चढ़ाएंगी.
मुराद पूरी हुई. अब मुमताज महल को मन्नत पूरी करनी थी, लिहाजा, दिल्ली से महरौली तक फूल वालों ने राह में फूल बिछा दिए. दिल्ली से महरौली तक बेगम का जाना जुलूस में तब्दील हो गया, तमाम लोग शरीक हुए. फूलों का एक पंखा भी जुलूस में शामिल किया गया. सात दिनों तक महरौली में जश्न मना. खुशी के इस पल को संजोने के लिए दिल्लीवासियों ने बादशाह से इसे रिवाज की शक्ल देने की दरख़्वास्त की और हर साल भादो में फूल वालों की सैर निकालना मुकर्रर हुआ.
बाद में सालाना जुलूस में दो पंखे जाने लगे. एक मुसलमानों के लिए दरगाह पर तो दूसरा हिंदुओं के लिए महरौली के योग माया मंदिर पर. योगमाया श्रीकृष्ण की बड़ी बहन, जिन्हें महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है. कहा जाता है कि इस मंदिर को पांडवों ने बनवाया था. बहादुर शाह जफर के नाम इस सैर को ऊंचाइयों तक पहुंचाने का खिताब है. लेखक ने भी किताब में बहादुर शाह जफर के समय की फूल वालों की सैर का नक्शा खींचा है.
इतिहास में दफन हो चुकी इस रवायत को किताब 'बहादुर शाह जफर और फूल वालों की सैर' में बेहद संजीदगी से पेश किया गया है. किताब पढ़ते-पढ़ते लगता है मानो लेखक पाठकों का हाथ थामकर उन्हें अपने साथ 'फूल वालों की सैर' पर ले जा रहा है. किताब में इस बात का भी जिक्र है कि किस तरह मुगल काल में उस्तादों के उस्ताद 'तैराकी के मेले' और 'कनकव्वों (पतंगबाजी) की बाजियों' में भी हाथ आजमाते थे. यहां इन्हें बेहद खूबसूरती से बयां किया गया है. मुगलिया काल के शेर और शायरियों का होना इस किताब को खास बनाता है. जैसे...
हुक्का जो है हुजूर-ए-मु'अल्ला के हाथ में
गोया कि कहकशां है सुरैय्या के हाथ में
किताब में बताया गया है कि बादशाह जब अपनी बेगमों के साथ लाल किले से क़ुतुब मीनार के लिए रवाना होते तो पूरा लाव-लश्कर साथ होता था. ख्वासें, छोकरियां, लौडियां और सुरैतियां भी काफिले का हिस्सा होतीं. बेगमें और शहजादियां डोली, नेमें, मियानें, पालकियां, चौ-पहले, चंडोल और सुखपाल पर सवार होती थीं. काफिले की सुरक्षा के लिए सिर्फ सैनिक नहीं. बल्कि, उर्दा-बेगनियां, गुरुजनें और तुर्क सवार भी साथ होते थे.
तुर्क सवार और हब्स तुर्किस्तान से आते थे और गुरजनें (औरतें) गुरजिस्तान से आती थीं. उर्दा-बेगनियां जो बेगमों और शहजादियों की हिफाजत में तैनात रहती थीं, उन औरतों के नाम और पहनावा मर्दों जैसा होता था. काफिला ज्यादातर रात के समय ही आगे बढ़ता था. सबसे आगे मशालें और तेल की कुप्पियां हाथ में लिए मशालची होते थे. एक ऐसा समय भी आता था, जब पूरे कुतुब मीनार पर दिल्ली वालों का कब्जा हो जाया करता था और कुछ दिन दिल्ली वासी कुतुब मीनार पर ही डेरा डाले रहते थे. किताब के जरिए 'फूल वालों की सैर' करने के साथ-साथ मुगल काल के अंतिम पहलू को जिया जा सकता है.
पुस्तकः बहादुर शाह जफर और फूल वालों की सैर
लेखक: मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग
भाषाः हिंदी
लिप्यंतरण: ज़ुबैर सैफ़ी
विधा: ऐतिहासिक
प्रकाशक: रेख्त़ा पब्लिकेशंस
पृष्ठ संख्याः 71
मूल्यः ₹199
+91 120 4319808|9470846577
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