35 साल में कैसे 360 डिग्री घूमी महाराष्ट्र की राजनीति? विधानसभा चुनाव में हो गया इतना बड़ा खेला, समझें

अभिमन्यु शितोले-रवि रावत, मुंबई: मुंबई के पांव पखारने वाले अरब सागर के क्षितिज पर 80 के दशक का सूरज धीरे धीरे अस्त हो रहा था और एक नए तरह की राजनीतिक लहरें उफान पर थी। कांग्रेस की सफेद खद्दरधारी सेकुलर राजनीति का सामना पहली बार धर्मरथ पर सवार ति

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अभिमन्यु शितोले-रवि रावत, मुंबई: मुंबई के पांव पखारने वाले अरब सागर के क्षितिज पर 80 के दशक का सूरज धीरे धीरे अस्त हो रहा था और एक नए तरह की राजनीतिक लहरें उफान पर थी। कांग्रेस की सफेद खद्दरधारी सेकुलर राजनीति का सामना पहली बार धर्मरथ पर सवार तिलकधारी भगवा राजनीति से हो रहा था, जिसकी झंडाबरदार बीजेपी थी। मुंबई में भी स्थानीय भूमिपुत्रों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर शिवसेना के रूप एक नई ताकत जन्म ले चुकी थी, जो आक्रामक थी। बाद में इन्हीं बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर महाराष्ट्र की राजनीति का नया अध्याय लिखा। इन 35 सालों में महाराष्ट्र की राजनीति 360 डिग्री घूम चुकी है। आज नतीजों के दिन एक नजर डालते है 1990 के बाद लगातार बदलते महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य पर:-
शिवसेना एक लोकल ताकत
सर्वविदित है कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में मराठी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए बालासाहेब ने 1966 में शिवसेना बनाई। 1967 में शिवसेना ने पहला चुनाव ठाणे म्यूनिसिपैलिटी का लड़ा और वहां 17 सीटें जीती। 1968 में मुंबई म्यूनिसिपैलिटी का चुनाव लड़ा और वहां 42 सीटें जीतीं। इसके बाद लगातार शिवसेना मुंबई और ठाणे की लोकल राजनीति में एक ताकत बनी रही।

14 साल बाद बीजेपी का जन्म
शिवसेना की स्थापना के 14 साल बाद 1980 में बीजेपी का जन्म हुआ और 1984 में बीजेपी ने मुंबई में शिवसेना की ताकत को यूज करने के लिए शिवसेना से गठबंधन किया। इस गठबंधन को वैचारिक मजबूती देने का काम हिंदुत्ववादी सोच ने किया। इसका फायदा दोनों को हुआ। 1985 में शिवसेना पहली बार मुंबई महानगरपालिका में कब्जा जमाने में कामयाब रही।

रथ यात्रा और 1990 का चुनाव
1990 में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली, जिसमें पूरे देश में एक नया राजनीतिक ध्रुवीकरण तैयार किया। हिंदुत्व के इस नए राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच 1990 का महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव शिवसेना- बीजेपी ने मिलकर लड़ा। शिवसेना के मनोहर जोशी महाराष्ट्र विधानसभा में नेता विपक्ष बनाए गए। इस बीच मंडल आयोग की रिपोर्ट आई। बालासाहेब ठाकरे ने इसका विरोध किया। मगर उनके करीबी छगन भुजबल को यह पसंद नहीं आया, उन्होंने बगावत कर दी। भुजबल के साथ शिवसेना के 18 विधायक टूटे। भुजबल की बगावत से शिवसेना विधायकों की संख्या घटी तो विधानसभा का नेता प्रतिपक्ष का पद बीजेपी के खाते में चला गया।

दंगे बाद 1995 का चुनाव और सता परिवर्तन
मुंबई में 1992 के दंगे और 1993 के धारावाहिक बम ब्लास्टों के दो साल बाद हुए 1995 के विधानसभा चुनावों ने महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन करा दिया। कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकली और पहली बार महाराष्ट्र में गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में शिवसेना बीजेपी गठबंधन वाली शिवशाही सरकार अस्तित्व में आई। शिवसेना ने 73 सीटों पर जीत दर्ज की थी। बीजेपी के खाते में 65 सीटें आईं। चुनाव से पहले ही बालासाहेब ठाकरे ने तय कर दिया था कि जिस पार्टी की सीट अधिक होंगी, मुख्यमंत्री उसी का होगा। सो शिवसेना के मनोहर जोशी और नारायणे राणे इस दौरान मुख्यमंत्री बने। यह सरकार 1999 तक चली।

1999 के चुनाव में बहुत कुछ बदल गया
1990 का दशक आते आते कांग्रेस राजनीति में अपना आधिपत्य खोने लगी थी। ऐसे में 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनने पर सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा जोरशोर से उठा। इसी मुद्दे पर पवार ने कांग्रेस छोड़ दी और जून 1999 में अपनी नई पार्टी एनसीपी का बना ली। लेकिन महाराष्ट्र में चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा और शिवसेना बीजेपी की सत्ता को उखाड़ कर महाराष्ट्र में एक बार फिर कांग्रेस की सत्ता स्थापित करवा दी।

शिवसेना-बीजेपी को 15 साल का वनवास
1999 में सत्ता से बाहर होने के बाद शिवसेना बीजेपी को 15 साल तक सत्ता का वनवास भोगना पड़ा। राज्य की सत्ता पर कांग्रेस और एनसीपी काबिज रही। शरद पवार केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार में मंत्री बने रहे। महाराष्ट्र पर भी उनकी पकड़ मजबूत बनी रही। शिवसेना बीजेपी विपक्ष में ही बैठे रहे।

बालासाहेब का निधन
2012 में शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे का निधन हो गया। 2011 के अन्ना आंदोलन ने कांग्रेस के खिलाफ जोरदार माहौल खड़ा कर दिया था। कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार की सत्ता से विदाई तय हो गई थी। इसी समय बीजेपी में भी नई शक्तियों का उदय हो रहा था। बालासाहेब के निधन के बाद उद्धव के साथ बीजेपी के बीजेपी के रिश्तों में भी दरारें आने लगी थीं। मुंडे-महाजन और अटल-आडवाणी वाला समय लगभग बीत चुका था। बीजेपी का नया नेतृत्व हुंकार भर रहा था। वह बार बार हर बात के लिए मातोश्री जाना तौहीन समझ रहा था। वह शिवसेना को बड़ा भाई मनाने के बजाए अपनी दम पर कुलांचे भरना चाहता था।

आखिर टूट गया 25 साल का रिश्ता
2014 के चुनाव आ चुके थे। शिवसेना बीजेपी के बीच रिश्तों में तनाव तो था, लेकिन रिश्ता ऐन चुनाव से पहले टूट जाएगा इसका अंदाजा नहीं था। दोनों पार्टियों के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर चर्चा चल रही थी। शिवसेना हमेशा बीजेपी से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती आ रहीं थी। बीजेपी इस बार कुछ सीटें ज्यादा मांग रही थी। उद्धव ठाकरे देने को तैयार नहीं थे। बीजेपी की मंशा अपनी ताकत को आजमाने की थी सो उसने ऐन चुनाव से पहले एक दिन अचानक शिवसेना के साथ अपने 25 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया।

आया 2014 का चुनाव
2014 का चुनाव शिवसेना और बीजेपी अलग अलग लड़ीं। इससे पहले लोकसभा चुनाव हो चुके थे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार केंद्र में बन चुकी थी। मोदी लहर का बोलबाला था। इसका फायदा महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने पर बीजेपी को हुआ। बीजेपी के 122 विधायक चुनकर आए, लेकिन बहुमत नहीं मिला। शिवसेना के 63 विधायक जीते थे इसलिए बहुमत बनाने और सरकार में आने के लिए बीजेपी को वापस शिवसेना के पास जाना पड़ा। चुनाव से पहले टूटा शिवसेना बीजेपी का गठबंधन सत्ता के लिए एकबार फिर जुड़ तो गया लेकिन उसमें वो पहले वाली कशिश नहीं थी, न ही हिंदुत्व वाला आकर्षण था। अगर कुछ था तो सिर्फ सत्ता का जोड़। खैर जैसे तैसे पांच साल निकल गए और फिर 2019 का चुनाव आ गया।

2017 का सेटलमेंट
शिवसेना और बीजेपी के बीच 2014 से रिश्तों में जो दरार आई थी वह 2017 के बीएमसी चुनाव में और चौड़ी हो गई। दोनों ही पार्टियों ने 25 साल बाद अलग-अलग बीएमसी का चुनाव लड़ा। शिवसेना को बीजेपी से सिर्फ दो सीट ज्यादा मिलीं थी। शिवसेना के लिए खतरे की घंटी थी। लेकिन बीजेपी ने 2019 के चुनावों को ध्यान में रखते हुए शिवसेना को बीएमसी की सत्ता पर काबिज होने दिया। बीजेपी 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पहले उद्धव ठाकरे को नाराज नहीं करना चाहती थी सो उसने बीएमसी की सत्ता का सेटलमेंट कर लिया।

2019 का चुनाव हाथ मिले दिल नहीं
2019 में पहले लोकसभा और फिर विधानसभा का चुनाव शिवसेना बीजेपी ने मिलकर लड़ा। दोनों को ही सफलता मिली, लेकिन दिल नहीं मिले। बीजेपी ने केंद्र में न तो शिवसेना को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया और न ही सम्मानजनक मंत्रालय। फिर विधानसभा चुनाव हुआ। उद्धव ठाकरे ने ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद बांटने का मुद्दा उठाया। उनका दावा है कि चुनाव से पहले बीजेपी नेता अमित शाह ने सत्ता के समान बंटवारे के तहत ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद शिवसेना को देने का वादा किया था। लेकिन बीजेपी का दावा है कि ऐसा कोई वादा नहीं किया। 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के 105 और शिवसेना ने 56 विधायक जीते थे, लेकिन मुख्यमंत्री पद के मुद्दे पर शिवसेना बीजेपी ऐसे उलझे की पर्याप्त बहुमत होने के बाद भी सरकार बनाने का दावा पेश ही नहीं कर पाए।

छूटा साथ, पकड़ा हाथ
2014 में बीजेपी द्वारा गठबंधन तोड़े जाने से उद्धव ठाकरे पहले से ही आहत थे। लेकिन चुनाव बाद बीजेपी को साथ देकर उन्होंने रिश्ता वापस जोड़ा था, परंतु 2019 में बीजेपी द्वारा जब ढाई ढाई साल मुख्यमंत्री पद बांटने से इनकार कर दिया तब उद्धव ने बीजेपी का साथ छोड़, नया हाथ ढूंढना शुरू किया।

राष्ट्रपति शासन से बढ़ा अविश्वास
उद्धव और बीजेपी के बीच मुख्यमंत्री पद के बंटवारे को लेकर तनाव तो था ही इसी बीच महाराष्ट्र में सत्ता न बनते देख राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इससे अविश्वास बढ़ा। महाराष्ट्र के गैर भाजपाई दलों की यह धारणा बनी की सरकार बनाने में असमर्थ बीजेपी राष्ट्रपति के जरिए महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज होना चाहती है

सुबह सुबह की शपथ
फिर एक दिन अचानक महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटा लिया जाता है। वह दिन 23 नवंबर 2019 का था। सुबह सुबह का समय था। टीवी की स्क्रीन पर अकल्पनीय किंतु सत्य दृश्य चल रहा था।अजित पवार राजभवन में देवेंद्र फडणवीस के साथ शपथ लेते दिख रहे थे। बीजेपी ने उद्धव को छोड़ एनसीपी के साथ सरकार बना ली थी। उद्धव के लिए यह हजम होने वाली बात नहीं थी। वह समझ गए कि बीजेपी 'तुम नहीं तो कोई और सही' का संदेश दे रही है।

फिर बिगड़ी बात
अगर फडणवीस और अजित पवार की सरकार पांच साल चल गई होती, तो महाराष्ट्र की राजनीति में इतनी महाभारत नहीं होती जितनी पिछले पांच साल में हुई है। लेकिन शरद पवार के विरोध के कारण तीन दिन में ही अजित पवार को वापस आना पड़ा और सुबह सुबह शपथ लेने वाली बीजेपी- एनसीपी की सरकार गिर गई।

महा विकास आघाड़ी का उदय
एनसीपी के अजित पवार को साथ लेकर बीजेपी की सरकार बनाने के दांव ने बीजेपी शिवसेना सरकार बनने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था। अजित पवार और देवेंद्र फडणवीस की सरकार को अपने विरोध से तीन दिन में गिरा देने वाले शरद पवार पर महाराष्ट्र को वैकल्पिक सरकार देने का नैतिक और राजनीतिक दबाव था, वरना फिर से राष्ट्रपति शासन लगने का अंदेशा था। वैकल्पिक सरकार एक ही सूरत में बन सकती थी कि शिवसेना के 56, शरद पवार के 54 और कांग्रेस के 44 विधायक एक साथ आएं और बहुमत की सरकार बनाएं। लेकिन कांग्रेस को शिवसेना के साथ और शिवसेना को कांग्रेस के साथ सत्ता में लाना बहुत मुश्किल काम था। यह काम सिर्फ शरद पवार कर सकते थे। कांग्रेस और उद्धव को भी हर हाल में सत्ता चाहिए थी इसलिए तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों ने उनसे यह काम करवा दिया और महा विकास आघाड़ी अस्तित्व में आई।

उद्धव बने सीएम
उद्धव के सीएम बनने का किस्सा भी बड़ा रोचक है। महा विकास आघाड़ी बन तो गई थी। लेकिन इसकी सरकार का मुखिया कौन होगा, इसको लेकर बात बिगड़ सकती थी। क्योंकि कांग्रेस में उस समय दो-दो पूर्व मुख्यमंत्री और एनसीपी के दो पूर्व उप मुख्यमंत्री समेत कई पूर्व मंत्री मौजूद थे। ऐसे में शरद पवार ने सबसे ज्यादा 56 विधायकों वाली शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने का दांव खेला। शिवसेना से सिर्फ 2 कम यानी 54 विधायकों वाली एनसीपी को उपमुख्यमंत्री और 44 विधायकों वाली कांग्रेस को कई महत्वपूर्ण मंत्रालय दिए गए।

कोरोना का संकट
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महा विकास आघाड़ी की सरकार बनने के कुछ समय बाद ही पूरी दुनिया कोरोना महामारी से त्रस्त हो गई। देश में लॉक डाउन लगाना पड़ा। लोगों को महामारी से बचाने के लिए उद्धव सरकार ने युद्ध स्तर पर काम किया। परिणाम स्वरूप अन्य राज्यों और अन्य देशों की तुलना में मुंबई और महाराष्ट्र में कोरोना से बहुत अधिक मौतें नहीं हुई।

कोरोना संकट के बाद
कोरोना का संकट छंटा तो 2022 आ चुका था। कोरोना काल में बढ़ी उद्धव ठाकरे की लोकप्रियता से दूसरे खेमे में छटपटाहट थी। इसी बीच उद्धव ठाकरे की खराब सेहत, एंटीलिया कांड, फिर नवाब मलिक केस ने माहौल बिगाड़ा। नेताओं पर ईडी के छापों की दहशत फैली। कई शरणागत हुए। फिर शुरू हुआ उद्धव ठाकरे सरकार को गिराने का राजनीतिक खेल।

शिवसेना टूटी
इस खेल के नायक बने शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे। उन्होंने न सिर्फ 40 विधायकों के साथ पहले सूरत फिर गुवाहाटी चले गए। शिंदे ने बीजेपी के सहयोग से बगावत कर उद्धव ठाकरे की न सिर्फ सरकार गिराई बल्कि उद्धव से शिवसेना पार्टी का नाम, चुनाव चिह्न भी छीन लिया और बीजेपी की मदद से खुद मुख्यमंत्री बन गए।

एनसीपी भी टूटी
शिवसेना टूटी ठीक उसी तर्ज पर कुछ महीने बाद शरद पवार की एनसीपी भी टूट गई। शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने बगावत की और पार्टी के 38 विधायकों के साथ बीजेपी सरकार में शामिल हो गए। अपने साथ शरद पवार की पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न भी ले गए।

सहानुभूति का खेल
अपनों के हाथों अपना सब कुछ गंवाने के बाद शरद पवार और उद्धव ठाकरे एक ही राह के राहगीर बन गए। जहां उन्हें सब कुछ नए सिरे से खड़ा करना है। 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें शुरुआती सफलता मिली है, लेकिन दोनों की असली जमीन दिल्ली नहीं महाराष्ट्र है इसलिए दोनों के लिए विधानसभा चुनाव के नतीजे ज्यादा मायने रखते हैं।

2019 विधानसभा चुनाव परिणाम
पार्टीजीतेवोट %कुल वोट मिले
बीजेपी10525.75%1.41 cr
शिवसेना 5616.41%90 लाख
कांग्रेस4415.87%87.42 लाख
एनसीपी5416.72%92.16 लाख
मनसे0102.25%12.40 लाख
बविआ3
एमआईएम201.34% 7.36 लाख
सपा2
प्र.जनशक्ति02
माकपा010.37%
ज.सु.शक्ति01
क्रा. शे. पक्ष01
शेकाप01
रासप 0101
स्वाभिमानी01
निर्दलीय13
नोटा1.35%
2014 विधानसभा चुनाव परिणाम
पार्टीजीते% वोट मिले\वोट मिले
शिवसेना6319.35%
बीजेपी12227.81% 1,53,51,926
कांग्रेस4217.95%
एनसीपी4117.24%
मनसे013.10%
एमआईएम20.93%
निर्दलीय064.71%
अन्य11
2009 विधानसभा परिणाम
पार्टीजीतेवोट%
कांग्रेस8221%
एनसीपी6216.30%
शिवसेना4416.30%
बीजेपी4614%
मनसे135.70%
निर्दलीय+अन्य41
2004 विधानसभा परिणाम
पार्टीजीतेवोट%
एनसीपी7118.75%
कांग्रेस6917.95%
शिवसेना6219.97%
बीजेपी5413.67%
निर्दलीय19
अन्य3
1999 विधानसभा परिणाम
पार्टीजीतेवोट%
कांग्रेस75
एनसीपी58
शिवसेना69
बीजेपी56
अन्य30
विधानसभा 1995;
पार्टीजीते
कांग्रेस80
शिवसेना73
बीजेपी65
जनता दल11
शेकाप06
सीपीआई (एम)03
सपा03
निर्दलीय45
अन्य02
1990 विधानसभा परिणाम
पार्टीजीती% वोटवोट मिले
कांग्रेस14138.171,13,34,773
शिवसेना5215.9447,33,834
बीजेपी4210.7131,80,482
जनता दल2412.7237, 76,737
शेकाप82.427, 19,807
सीपीआई (एम)30.872, 58,433
सीपीआई20.742, 19,080
निर्दलीय14
अन्य03
मतदान का प्रतिशत
वर्षराज्यमुंबई
196260.3660.40
196764.8464.80%
197260.6360.60%
197867.5967.60%
198053.3053.30%
198550.1759.20%
199062.2662.30%
199571.6971.70%
199960.9560.90%
200463.4463.40%
200959.4059.50%
201460.40%52%
201961.40%50.70%

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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