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कोई हमसे बेहतर हो, तो उससे सीखना अपनी प्रगति की पूर्व शर्त होती है। लेकिन कोई हमसे हर क्षेत्र में बेहतर नहीं हो सकता, ये सत्य भी अकाट्य है। दूसरे शब्दों में कहें, तो जो हमसे किसी क्षेत्र में बेहतर है, पूरी गारंटी है कि वह कुछ क्षेत्र में बदतर भी होगा। बेहतर को ग्रहण करने और बदतर को छोड़ देने के गुण को हमारे यहां 'नीर-क्षीर विवेक' से परिभाषित किया गया है। मतलब, दूध और पानी में अंतर करने की समझ, ज्ञान और क्षमता। कहावत भी है- सार सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय। लेकिन यह नीर-क्षीर विवेक से सार-सार को गहकर, थोथा को उड़ा देने की क्षमता पैदा करना दुर्लभ है। आम प्रवृत्ति यही है कि जिसे बेहतर मान लिया, उसकी अच्छाई के साथ-साथ बुराई भी आंख मूंदकर सीख ली। पश्चिमी दुनिया के इसी अंधानुकरण का एक बेहद दुखदायी नमूना है- शिक्षण संस्थानों में रैगिंग की प्रथा।
आज अनिल नहीं रहा, उससे पहले कई अनिल रैगिंग की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि कई अनिल भविष्य में भी राक्षसी सीनियरों के हाथ शिकार होते रहेंगे। तरह-तरह की प्रताड़ना मिलेगी उन्हें और वो बिना किसी दोष के मारे जाते रहेंगे। रैगिंग के नाम पर कई बार ऐसी अमानवीय हरकतें होती हैं कि अपनी दुनिया में कभी ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाने वाले बच्चे गहरी पीड़ा में पहुंचकर खुद ही जान दे देते हैं। उन्हें जब अपनी समझ से इतर दुनिया का क्रूरतम चेहरा दिखता है तो वो इस कदर हैरान-परेशान होते हैं कि आगे कोई रास्ता ही नहीं सूझता है वो जीवन लीला समाप्त करने का फैसला कर लेते हैं।
सवाल है कि आखिर ऐसे निर्दोष, निर्विकार, निश्छल बच्चों में संसार के शुद्धतम स्वरूप के प्रति गहरी आस्था को बनाए रखने में हम कैसे चूक जाते हैं? आखिर, सरकार ने कानून बना दिया है, फिर भी? जवाब इसी सवाल में छिपा है- सरकार और कानून के दखल की जरूरत ही वहीं होती है जहां समाज विफल हो जाता है। क्या एक समाज के रूप में हम अपने बच्चों को यह बताने-समझाने में असफल नहीं रहे कि जिंदगियां कितनी अनमोल होती हैं? जो कॉलेजों-यूनिवर्सिटियों में सीनियर का तमगा पा लेते हैं, उनमें जिंदगी के प्रति इतनी बेरुखी कैसे पनप जाती है कि वो अपने ही रास्ते पर पहला कदम बढ़ा रहे किसी जूनियर के लिए जानलेवा टास्क तय कर देते हैं? क्या हमें अपने बच्चों के मन की गहराई में यह उतार नहीं देना चाहिए कि वो जब भी सीनियर बने, सक्षम बने, सबल बने तो जूनियर का सहारा बने, जरूरतमंद का सहारा बने, कमजोर का सुरक्षा कवच बने?
हम इस मायने भी शर्मिंदगी की हद तक असफल रहे हैं कि अपने बच्चों में जीवटता की परकाष्ठा तो क्या, परछाई भी पैदा नहीं कर पाते। आखिर अनिल ने बेहोश होकर गिरने तक रैगिंग का नियम क्यों बर्दाश्त किया? वह जिंदगी पर आफत आने तक सीनियरों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल क्यों नहीं फूंक सका? एक माता-पिता के रूप में क्या हमें अपने बच्चों को जीवटता का इतना अभ्यास नहीं करवाना चाहिए कि जब उसका दुनिया से सीधा-सीधा सामना हो, बिना किसी सहारे के, बिना किसी सुरक्षा के, बिना किसी संरक्षण में, तो वह कठिन से कठिन परिस्थिति में भी जीवन त्यागना तो दूर, इसके ख्याल से भी कोसों दूर रहे? अनिल जैसे नौनिहालों की मौत शासन-प्रशासन से ज्यादा माता-पिता के रूप में हमारी अत्यंत निराशाजनक निष्फलता का परिणाम है। हम अपने बच्चों को जिंदगी का सम्मान करना नहीं सिखा पा रहे।
रैगिंग में कई नौनिहालों की जान चली गई तो कई ने ऐसा गहरा मानसिक आघात झेला कि कॉलेज-यूनिवर्सिटी की नई जिंदगी में कदम रखने का उनका उत्साह ही जमींदोज हो गया। रैगिंग के जरिए हुई हत्या में ताजा नाम जुड़ा है- अनिल नटवरभाई मेथनिया का। गुजरात के पाटन स्थित मेडिकल कॉलेज में एडमिशन की खबर मिली होगी तो 18 वर्ष का वह नौजवान कितना खुश हुआ होगा। लेकिन क्या पता था उसे कि इस खुशी की गूंज में मौत दबे पांव उसका पीछा करने लगी है। डॉक्टर बनकर जिंदगियां बचाने का सपना यूं तीन घंटे की रैगिंग में दम तोड़ देगा, इसकी तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। लेकिन वो कहते हैं ना- नीयती को जो मंजूर है, वो होकर रहता है। नीयती ने अनिल के उन्हीं सीनियरों को हत्यारा बना दिया जिनसे बहुत कुछ सीखने-समझने की ललक उस नौनिहाल ने पाली होगी।आज अनिल नहीं रहा, उससे पहले कई अनिल रैगिंग की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि कई अनिल भविष्य में भी राक्षसी सीनियरों के हाथ शिकार होते रहेंगे। तरह-तरह की प्रताड़ना मिलेगी उन्हें और वो बिना किसी दोष के मारे जाते रहेंगे। रैगिंग के नाम पर कई बार ऐसी अमानवीय हरकतें होती हैं कि अपनी दुनिया में कभी ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाने वाले बच्चे गहरी पीड़ा में पहुंचकर खुद ही जान दे देते हैं। उन्हें जब अपनी समझ से इतर दुनिया का क्रूरतम चेहरा दिखता है तो वो इस कदर हैरान-परेशान होते हैं कि आगे कोई रास्ता ही नहीं सूझता है वो जीवन लीला समाप्त करने का फैसला कर लेते हैं।
सवाल है कि आखिर ऐसे निर्दोष, निर्विकार, निश्छल बच्चों में संसार के शुद्धतम स्वरूप के प्रति गहरी आस्था को बनाए रखने में हम कैसे चूक जाते हैं? आखिर, सरकार ने कानून बना दिया है, फिर भी? जवाब इसी सवाल में छिपा है- सरकार और कानून के दखल की जरूरत ही वहीं होती है जहां समाज विफल हो जाता है। क्या एक समाज के रूप में हम अपने बच्चों को यह बताने-समझाने में असफल नहीं रहे कि जिंदगियां कितनी अनमोल होती हैं? जो कॉलेजों-यूनिवर्सिटियों में सीनियर का तमगा पा लेते हैं, उनमें जिंदगी के प्रति इतनी बेरुखी कैसे पनप जाती है कि वो अपने ही रास्ते पर पहला कदम बढ़ा रहे किसी जूनियर के लिए जानलेवा टास्क तय कर देते हैं? क्या हमें अपने बच्चों के मन की गहराई में यह उतार नहीं देना चाहिए कि वो जब भी सीनियर बने, सक्षम बने, सबल बने तो जूनियर का सहारा बने, जरूरतमंद का सहारा बने, कमजोर का सुरक्षा कवच बने?
हम इस मायने भी शर्मिंदगी की हद तक असफल रहे हैं कि अपने बच्चों में जीवटता की परकाष्ठा तो क्या, परछाई भी पैदा नहीं कर पाते। आखिर अनिल ने बेहोश होकर गिरने तक रैगिंग का नियम क्यों बर्दाश्त किया? वह जिंदगी पर आफत आने तक सीनियरों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल क्यों नहीं फूंक सका? एक माता-पिता के रूप में क्या हमें अपने बच्चों को जीवटता का इतना अभ्यास नहीं करवाना चाहिए कि जब उसका दुनिया से सीधा-सीधा सामना हो, बिना किसी सहारे के, बिना किसी सुरक्षा के, बिना किसी संरक्षण में, तो वह कठिन से कठिन परिस्थिति में भी जीवन त्यागना तो दूर, इसके ख्याल से भी कोसों दूर रहे? अनिल जैसे नौनिहालों की मौत शासन-प्रशासन से ज्यादा माता-पिता के रूप में हमारी अत्यंत निराशाजनक निष्फलता का परिणाम है। हम अपने बच्चों को जिंदगी का सम्मान करना नहीं सिखा पा रहे।
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