ईरान-म्यांमार से जुड़ी कंपनी में नौकरी, यहीं पहला प्यार...झारखंड के जयपाल मुंडा को नेहरू-सुभाष क्यों देते थे तवज्जो

नई दिल्ली: जयपाल सिंह मुंडा एक ऐसी हस्ती हैं, जिन्होंने संविधान सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गजों के सामने मजबूती से आदिवासियों का पक्ष रखा। वे मानते थे कि उन्हें अपने लिए नहीं, बल्कि उन लाखों आ

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नई दिल्ली: जयपाल सिंह मुंडा एक ऐसी हस्ती हैं, जिन्होंने संविधान सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गजों के सामने मजबूती से आदिवासियों का पक्ष रखा। वे मानते थे कि उन्हें अपने लिए नहीं, बल्कि उन लाखों आदिवासियों के लिए बोलना है, जो इस धरती के असली वारिस हैं। वह ताल ठोंककर खुद को जंगली कहते थे। उन्होंने आदिवासियों के लिए लड़ाई लड़ी, जिसे सुभाष चंद्र बोस ने भी मान्यता दी। बोस ने अलग झारखंड के लिए उन्हें समर्थन देते हुए कहा था कि वह अपना आंदोलन स्वतंत्रता मिलने तक रोक सकते हैं, क्योंकि अभी तो देश को आजाद कराना है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी जयपाल मुंड को बहुत मानते थे। जानते हैं झारखंड के इस नायक की कहानी।

ईसाई मिशनरियों ने मुंडा को पढ़ने के लिए रांची भेजा

जयपाल सिंह मुंडा 3 जनवरी 1903 को पहानटोली, तकरा, रांची में एक आदिवासी परिवार में जन्मे थे। उनसे पहले ही तकरा पूरी तरह से एंग्लिकन कम्युनियन के ईसाई धर्म में बदल गया। उनके परिवार को भी क्रिस्टन समुदाय में परिवर्तित कर दिया गया। जयपाल सिंह मुंडा ने खुद कहा है कि मुझे एक टीचर हिंदी और गणित पढ़ाते थे और थैंक्यू, गुड मॉर्निंग और गुड बाय जैसे अंग्रेजी शब्दों को बोलना सिखाया। बचपन में पशुओं को चराने वाले जयपाल सिंह को सेंट पॉल स्कूल, रांची में भेजा गया। बाद में वह कलकत्ता और बॉम्बे चले गए।

दो गोरी लड़कियों को कुली के रूप में काम करता देख हुए हैरान

जयपाल सिंह को एक बिशप नाइट ने ऑक्सफोर्ड भेजा। वह पढ़ने के लिए इंग्लैंड चले गए। जहां उन्होंने पहली बार दो गोरी लड़कियों को कुली के रूप में देखा तो हैरान रह गए। जयपाल सिंह मुंडा एकमात्र एशियाई थे जो ऑक्सफोर्ड के छात्रावास में रह रहे थे। उन्होंने वहां से अर्थशास्त्र में एमए किया और स्वर्ण पदक हासिल किया। यहां उनका जीवन बहुत सामान्य था, लेकिन आईसीएस में चयन के बाद उनका जीवन बदल गया। उन्हें बचपन से ही खेल पसंद था।
JAIPAL SINGH MUNDA


जब हॉकी टीम में पाई एंट्री और मिला ब्लू अवॉर्ड

बिपिन जोजो और बोधि एसआर की संपादित किताब 'द प्रॉब्लमेटिक्स ऑफ ट्राइबल इंटीग्रेशन' के अनुसार, जयपाल सिंह को मिस्टर टर्नर ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी हॉकी टीम में प्रवेश कराया था। वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी हॉकी टीम के सबसे बहुमुखी खिलाड़ी थे। यूनिवर्सिटी हॉकी टीम में ब्लू पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय छात्र बने। 1928 में जब वह इंग्लैंड में थे तब जयपाल सिंह को 1928 के ओलंपिक खेलों के लिए भारतीय हॉकी टीम की कप्तानी करने के लिए कहा गया था। उनकी कप्तानी में भारतीय टीम ने लीग चरण में 17 मैच खेले, जिनमें से 16 जीते और एक ड्रॉ रहा। उस ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक जीता था।

आईसीएस में चुने गए, मेजर ध्यानचंद से प्रभावित

जब वह हॉकी खेल रहे थे, तभी उनका चयन इंडियन सिविल सर्विस के लिए हो गया। जयपाल सिंह मुंडा मेजर ध्यानचंद और शौकत अली से बेहद प्रभावित थे। मुंडा ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि ओलंपिक में तब सबसे ज्यादा खुशी मिली, जब हमारी टीम ने इंग्लैंड को हराया, क्योंकि भारत तब ब्रिटेन का उपनिवेश था। यह एक तरह से आजादी का बिगुल था।

लॉर्ड इर्विन ने मुंडा को जब भेजा पर्सनल बधाई संदेश

मुंडा के अनुसार, जब मैं लंदन से जीत का सेहरा बांधकर लौटा तो पूरी दुनिया हमारे बारे में जान चुकी थी। भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इर्विन ने पर्सनली एक बधाई मैसेज भिजवाया था। इस जीत के बाद ही मुंडा ने आईसीएस की नौकरी छोड़ दी। ओलंपिक के आखिरी मैच में मुंडा को नस्लीय टिप्पणी झेलनी पड़ी। इसके बारे में मेजर ध्यानचंद ने अपनी ऑटोबायोग्राफी गोल में जिक्र किया है।
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ओलंपिक के बाद जॉइन किया बर्मा ऑयल कंपनी

जयपाल मुंडा इतने टैलेंटेड थे कि उन्हें जल्द ही बर्मा जिसे अब म्यांमार कहा जाता है, की ऑयल कंपनी में एक ऊंचे पद पर नौकरी मिल गई। औपनिवेशिक दौर में इतनी बड़ी नौकरी पाने वाले वह पहले भारतीय थे। वह कलकत्ता में कंपनी के हेड ऑफिस में काम करने लगे, जहां ईरान की ऑयल कंपनी का भी ऑफिस था।

बर्मा की कंपनी में काम करने के दौरान मिला पहला प्यार

जयपाल सिंह मुंडा अक्सर अपनी नौकरी की तुलना अपने दोस्तों से करते रहते थे और खूब इंटरेस्ट लेकर अपने दोस्तों से आईसीएस की सैलरी की तुलना अपनी जॉब से करते रहते थे। यहीं पर काम करने के दौरान उनकी एक बार छुट्टियों के दौरान दार्जिलिंग में तारा मजूमदार से मुलाकात हुई, जो व्योमेश चंद्र बनर्जी की पौत्री थीं। ये व्योमेश चंद्र बनर्जी वही थे, जिन्होंने 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना की थी। टैलेंटेड मुंडा को देखकर तारा उनके प्यार में पड़ गईं। जल्द ही दोनों ने शादी कर ली। इसके बाद वह अफ्रीका के एक कॉलेज में प्रोफेसर बन गए।

जब एक रियासत के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने बुलावा भेजा

कुछ वर्षों के बाद मुंडा को अफ्रीका के अचिमोटा कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। वहां उन्होंने अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान पढ़ाया। उन्होंने अफ्रीका में भी कई पुरस्कार जीते। कुछ समय बाद उन्हें तत्कालीन शिक्षा मंत्री गिरिजा शंकर बाजपेयी ने एक नियुक्ति पत्र भेजा और उन्हें राजकुमार कॉलेज, रायपुर में प्रिंसिपल के पद की पेशकश की। मुंडा ने लिखा कि इस नियुक्ति पत्र से सबसे ज्यादा खुश तारा हुईं, क्योंकि इससे भारत लौटने की राह आसान हो गई।

राजकुमार कॉलेज में पढ़ते थे शाही परिवार के बच्चे

राजकुमार कॉलेज में केवल शाही परिवार के लोग ही पढ़ा करते थे। मुंडा के लिए यह बेहतरीन नौकरी थी। मगर, कुछ साल बाद ही उन्हें फिर से नस्लीय भेदभाव झेलना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अपना तबादला तब एक और रियासत बीकानेर के एक कॉलेज में करा लिया। बाद में ब्रिटिश हुकूमत के दौर में उन्हें बीकानेर में विदेश और रेलवे मंत्री बना दिया गया।

ईमानदारी की कीमत नौकरी गंवाकर पाई

जयपाल सिंह मुंडा बीकानेर में ईमानदारी और लगन से काम करते रहे। उन्होंने कई लोगों के भ्रष्टाचार को उजागर किया। इसके बाद उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। आखिरकार उन्हें तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अपने यहां नौकरी पर रख लिया। जहां वह हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह को पढ़ाने लगे।

आखिरकार राजनीति में आए और अलग झारखंड की वकालत की

अश्विनी कुमार पंकज की किताब-'जयपाल सिंह मुंडा का जीवन और संघर्ष' के अनुसार जयपाल सिंह ने आखिरकार फैसला किया कि वह आदिवासियों के अलग राज्य के लिए लड़ेंगे। 1939 से 1946 तक वह लड़ाई लड़ते रहे। दरअसल, तब जयपाल सिंह ने 1938 में अपने गोरे मित्रों बिहार के तत्कालीन गवर्नर मॉरिस हैलेट, चीफ सेक्रेटरी रॉबर्ट रसेल से मुलाकात कर अलग झारखंड की मांग को लेकर अपनी मंशा जाहिर की। उन्होंने आदिवासी सभा का नाम बदलकर आदिवासी महासभा कर दिया। 1939 में उन्होंने इसकी बैठक बुलाई। सिंहभूम और रांची में हुए ड्रिस्ट्रक्ट बोर्ड इलेक्शन जीत लिया। रांची की 25 में से 16 और सिंहभूम की 24 में से 22 सीटें जीतीं। इससे कांग्रेस सकते में आ गई।

जब संविधान सभा में चुने गए तो कइयों को चुप कराया

1946 में मुंडा बिहार से संविधान सभा के लिए चुने गए। वह संविधान सभा के लिए चुने गए कुछ स्वतंत्र उम्मीदवारों में से एक थे, एक ऐसा मंच जिसका उपयोग वह अपनी चिंताओं को व्यक्त करने और पूरे भारत में आदिवासी लोगों के हितों को बढ़ावा देने के लिए करते थे। वह खुद को जंगली कहते थे। वह कहते थे कि हम आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं और बाकी लोग बाहरी हैं। विधानसभा में उनका हस्तक्षेप अधिकतर आदिवासी व्यक्तियों के हितों तक ही सीमित था। उन्हें आदर से झारखंड के आदिवासी 'मरंग गोमके' यानी सर्वोच्च नेता कहा करते थे।
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1952 के चुनावों में आदिवासियों ने हासिल की जीत

सिंह आजादी के बाद भी आदिवासी अधिकारों के लिए काम करते रहे। आदिवासी महासभा झारखंड पार्टी के रूप में लौटी और 1952 के चुनावों में खड़ी हुई और बिहार विधान सभा में 33 सीटें जीतीं। पार्टी की लोकप्रियता में गिरावट के कारण उन्होंने 1963 में इसका कांग्रेस में विलय कर दिया। इसके लिए जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें संदेश भी भेजा था कि वह आदवासी आंदोलन को कांग्रेस में रहकर भी जारी रख सकते हैं।

मुंडा की मौत के 30 साल बाद बना झारखंड

सक्रिय हॉकी से सेवानिवृत्ति के बाद, उन्होंने बंगाल हॉकी एसोसिएशन के सचिव और भारतीय खेल परिषद के सदस्य के रूप में कार्य किया। जयपाल सिंह मुंडा का 20 मार्च 1970 को दिल्ली में निधन हो गया। झारखंड सरकार ने रांची में बने भव्य गेम्स कॉम्प्लेक्स और गेम्स विलेज का नाम 'द सिंह मुंडा गेम्स कॉम्प्लेक्स' रखा। मुंडा की मृत्यु के तीस साल बाद 2000 में बिहार से एक अलग राज्य झारखंड बना।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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