रूस को उबारा, अब मेरी बारी... भारत की कौन सी ताकत देख LAC पर समझौते को तैयार हुआ चीन?

यूं तो चीन डोकलाम में भी मुंह की खा चुका था, फिर भी पूर्व लद्दाख में भारत के साथ दो-दो हाथ करने की ठानी। नतीजा फिर वही हुआ। आज चीन पीछे हटकर वहीं जाने को तैयार हो गया है जहां 2020 में अतिक्रमण के प्रयासों से पहले था। लेकिन सवाल है कि चीनी राष्ट्

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यूं तो चीन डोकलाम में भी मुंह की खा चुका था, फिर भी पूर्व लद्दाख में भारत के साथ दो-दो हाथ करने की ठानी। नतीजा फिर वही हुआ। आज चीन पीछे हटकर वहीं जाने को तैयार हो गया है जहां 2020 में अतिक्रमण के प्रयासों से पहले था। लेकिन सवाल है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का शासन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में ऐसा क्या देखा कि उसने तात्कालिक तौर पर ही सही, चीन-भारत में दोस्ती को ही बेहतर समझा? चीन मामलों के जानकार और लेखक शैबाल दासगुप्ता ने हमारे सहयोगी अखबार द इकनॉमिक टाइम्स के लिए लिखे एक लेख में यह विस्तार से बताया है। नीचे उनके लेख का संपादित अंश है...
सोमवार को भारत-चीन वार्ता के बाद से एक महत्वपूर्ण सवाल उठ रहा है- आखिर ऐसी कौन सी बात है जिससे शी जिनपिंग 2020 में पूर्वी लद्दाख में हुए सीमा विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रेरित हुए? इसका सीधा सा जवाब है, चीन को भारत से बहुत उम्मीदें हैं जिन्हें वह पूरा करना चाहता है।

बुधवार को कजान में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मौके पर नरेंद्र मोदी-शी जिनपिंग की मुलाकात एक-दूसरे के छिपे हुए डर और महत्वाकांक्षाओं को समझने के लिए बेहद उपयोगी साबित हुई। जैसे ही बैठक शुरू हुई मोदी सीधे मुद्दे पर आ गए, 'हम पांच साल बाद औपचारिक बैठक कर रहे हैं। हमारा मानना है कि भारत-चीन संबंध न केवल हमारे लोगों के लिए बल्कि वैश्विक शांति, स्थिरता और प्रगति के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।'

बैठक के बाद विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने कहा कि दोनों नेताओं ने सोमवार को हुई सीमा गश्ती समझौते का समर्थन किया है। यह बयान महत्वपूर्ण है क्योंकि समझौते को लागू करने के लिए शी की ओर से पीएलए की पश्चिमी थिएटर कमान को सख्त आदेश की आवश्यकता होगी जो भारतीय सीमा से संबंधित है।

पीएलए ने पहले ही लद्दाख सीमा के पास कुछ बुनियादी ढांचे का निर्माण कर लिया है। यहां सैन्य स्टेशनों का भी निर्माण हुआ है जिसमें 11 विवादित गश्ती स्टेशन शामिल हैं। आमतौर पर सैन्य कमान को किसी विशिष्ट सीमा स्थान से सेना वापस बुलाने के लिए राजी करना मुश्किल होता है। नई दिल्ली को उम्मीद है कि शी विवादित क्षेत्रों से बलों को वापस बुलाने की प्रक्रिया में तेजी लाएंगे।

पूर्व राजनयिक पी स्टोबदान ने मुझे बताया, 'चीन में बहुत सारे निर्णय सैन्य कमांडरों के स्तर पर होते हैं, न कि केवल राजनयिकों के।' उन्होंने कहा, 'सेना का हालात को देखने का अपना नजरिया होता है। मुझे नहीं लगता कि पीएलए पर यह भरोसा किया जा सकता है कि वह भारतीय सीमा पर अपना आक्रामक रवैया छोड़ देगी।'

शी भारत से क्या उम्मीद करते हैं यह चीनी विशेषज्ञों के बयानों से स्पष्ट है। कुछ ने कहा है कि भारत को चीन के साथ व्यापार और व्यावसायिक संबंधों को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए क्योंकि अब उसके पास 'चीन के खतरे जैसा बहाना' मौजूद नहीं है।

यह समझना चाहिए कि भारत ने शांति प्रक्रिया के लिए पहल तब की जब एक अंतर-मंत्रालयी समूह ने चीन, हॉन्गकॉन्ग और अन्य क्षेत्रों में स्थित चीनी कंपनियों के निवेश प्रस्तावों को मंजूरी दी। 2020 में पीएलए सैनिकों के गलवान आक्रमण के बाद चीनी निवेशों पर लगाए गए सरकारी प्रतिबंधों में यह पहली बड़ी ढील थी।


सोमवार को बॉर्डर पेट्रोलिंग अरेंजमेंट ने भारत में काफी उत्साह पैदा किया। सीमा विवाद को जीडीपी के मामले में तीसरा सबसे बड़ा देश बनने की भारतीय आकांक्षाओं में सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखा जाता है। उधर, चीनी अधिकारियों और मीडिया ने समझौते को लेकर उत्साह दिखाने से परहेज किया।

समझौते के एक दिन बाद चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन जियान ने कहा, 'हाल के दिनों में चीन और भारत राजनयिक और सैन्य माध्यमों से करीबी संपर्क के बाद सीमा क्षेत्र से संबंधित मुद्दों पर समाधान पर पहुंचे हैं। चीन हुई प्रगति की सराहना करता है और इन प्रस्तावों के सही कार्यान्वयन के लिए भारत के साथ काम करना जारी रखेगा।' उन्होंने समझौते के बारे में कोई जानकारी नहीं दी, साथ ही सैनिकों को वापस बुलाने और 2020 के गलवान हमलों से पहले की स्थिति में वापस जाने जैसे मुद्दों को भी छोड़ दिया।

किसी भी मुद्दे पर चीनी सरकार क्या सोचती है, यह जानने का एक तरीका यह सुनना है कि वह अपने घरेलू दर्शकों को क्या बता रहा है, और उनसे क्या छिपा रहा है। यह देखा जाना बाकी है कि कजान में शी-मोदी बैठक के बारे में आने वाले दिनों में शी सरकार चीनियों को क्या बताएगी।

यह सुनिश्चित करने के लिए महामारी के बाद से शी की इज्जत को बट्टा लगा है क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था अभी भी संकट में है और उसके नागरिक बढ़ती बेरोजगारी और एक बड़े आवास संकट का खामियाजा भुगत रहे हैं। ऐसे वक्त में चीन के नागरिक अपने सरकार की कूटनीतिक सफलताओं को स्वीकार करे, इस पर जोर नहीं दिया जा सकता है। इस लिहाज से शी की स्थिति ठीक नहीं है।

बड़ा सवाल यह है कि क्या शी को मोदी के समर्थन की जरूरत है ताकि चीन पर अमेरिका के नेतृत्व वाले आर्थिक प्रतिबंधों के प्रभाव को कमजोर करने वाले उपाय शुरू किए जा सकें। वॉशिंगटन ने चीनी कंपनियों पर व्यापक प्रतिबंध लगाए हैं जिनसे शी के लिए दुनिया भर से महत्वपूर्ण नई तकनीकों के किसी भी कार्यक्रम को लागू करना मुश्किल हो गया है।

मोदी ने ब्रिक्स के अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया कि वह समूह के देशों को कवर करने वाली वैकल्पिक भुगतान प्रणाली (पेमेंट सिस्टम) के पक्ष में हैं। यह शी के कानों को बहुत सुहाया होगा। चीन और रूस डॉलर पर वैश्विक निर्भरता में भारी कमी चाहते हैं।

अपनी ओर से अमेरिका यह दिखावा करने की पूरी कोशिश कर रहा है कि वह ब्रिक्स में अमेरिकी विरोधी उपायों पर हो रहे मंथन को लेकर चिंतित नहीं है। वाइट हाउस के प्रेस सचिव कैरिन जीन-पियरे ने कहा, 'हम ब्रिक्स को किसी तरह के भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी (जियोपॉलिटिकल रायवल) के रूप में उभरते हुए नहीं देख रहे हैं। अमेरिका या किसी और के लिए इसे हम इस नजरिए से नहीं देखते हैं।'


भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो कैसे अमेरिकी हितों को चुनौती दिए बिना ब्रिक्स क्लब में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखे। उस संदर्भ में चीन, रूस और भारत सहित ब्रिक्स के सभी सदस्य अमेरिका में चल रहे राष्ट्रपति पद चुनावों को करीब से देख रहे हैं।

बीजिंग ओवल ऑफिस में डोनाल्ड ट्रम्प की संभावित वापसी को लेकर विशेष रूप से चिंतित है। ट्रम्प ने चीनी कंपनियों के खिलाफ दोगुने टैरिफ और अन्य बाधा डालने वाले उपायों की कसम खाई है। यही कारण है कि चीन को अमेरिका के हमले का मुकाबला करने के लिए भारत और अन्य देशों के समर्थन की आवश्यकता है।

युक्रेन युद्ध में भारत ने अमेरिका समेत पूरे पश्चिम की आकांक्षाओं को धता बताते हुए रूस से तेल खरीदकर अपनी ताकत दिखा चुका है। यही वजह है कि चीन को भारत पर ऐतबार हो गया है। उसे लगता है कि रिश्ते सुधरे तो जिस तरह युद्ध में भारत ने रूस को संकट से उबारा, वैसे ही उसका साथ भी निश्चित रूप से दे सकता है। रूस से तेल खरीद के फैसले से वॉशिंगटन नई दिल्ली से खुश नहीं था, लेकिन बीजिंग मुस्कुरा रहा था। उसे भारत की ताकत में अपने संकट का समाधान का रास्ता जो नजर आ रहा है।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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