कांग्रेस हारकर तो डरेगी ही, बीजेपी को जीतकर भी क्यों डरना चाहिए, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर का संदेश समझिए

लेखक: उदय चंद्रा
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजे बताते हैं कि देश में सियासी रस्साकशी अभी जारी है। वहीं, चालाक होते जा रहे मतदाता सभी पार्टियों और गठबंधनों को मजबूर कर रहे हैं कि उनकी मांगों को गंभीरता से लिया जाए, वरना उन्हें हार के ल

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लेखक: उदय चंद्रा
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजे बताते हैं कि देश में सियासी रस्साकशी अभी जारी है। वहीं, चालाक होते जा रहे मतदाता सभी पार्टियों और गठबंधनों को मजबूर कर रहे हैं कि उनकी मांगों को गंभीरता से लिया जाए, वरना उन्हें हार के लिए तैयार रहना होगा।
जाहिर तौर पर, भारतीय जनता पार्टी के पास हरियाणा में हैटट्रिक लगाने के बाद जश्न मनाने की वजह है। सभी एग्जिट पोल को धता बताते हुए यह नतीजा पूर्व मुख्यमंत्री खट्टर और प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी को कम करके हासिल किया गया। बीजेपी ने मुख्यमंत्री सैनी के नेतृत्व में एक क्षेत्रीय दल के रूप में प्रभावी ढंग से चुनाव लड़ा। मध्य हरियाणा में गैर-जाट वोटों को एकजुट किया और पूर्व और दक्षिण में अपने गढ़ों को बरकरार रखा। कुल वोटों के 1% से भी कम अंतर के बावजूद, बीजेपी ने कांग्रेस से 11 सीटें ज्यादा जीतीं।

कांटे का दंगल
मई में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को बीजेपी पर वोटों के मामले में 1.5% की बढ़त हासिल थी, इसलिए वह राज्य में सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने में नाकाम रही। ज्यादातर जानकार कांग्रेस में अंदरूनी कलह और जाट मतदाताओं पर अत्यधिक निर्भरता को हार का कारण बताते हैं। यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है। वैसे कई मौजूदा विधायकों को टिकट देने से इनकार करने के बाद बीजेपी भी तो अंदरूनी कलह से मुक्त कहां थी।

हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस दोनों को मई में हुए लोकसभा चुनावों की तुलना में वोटों में 5% से अधिक की गिरावट का अनुभव हुआ। राज्य में किसी भी राष्ट्रीय दल को 40% लोकप्रिय वोट नहीं मिले। दूसरे शब्दों में, 20% से अधिक लोकप्रिय वोट निर्दलीय सहित अन्य छोटे दलों को गए।

अब ये 20 प्रतिशत वोटर कौन थे जो निर्णायक साबित हुए, उनका सोशल प्रोफाइल क्या था, इसके बारे में तो कुछ भी दावे से नहीं कहा जा सकता। हां, यह मान लेना जरूर सुरक्षित है कि कम से कम कुछ दलित मतदाताओं ने गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी उम्मीदवारों को चुना। यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि क्या कुमारी सैलजा, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की अगुवाई की थी, उन्हें इस शरद ऋतु में विधानसभा में जीत दिला सकती थीं।

कश्मीर की गूगली
जम्मू-कश्मीर ने भी एक दिलचस्प और शायद आश्चर्यजनक फैसला दिया। एक दशक बाद वहां राज्य विधानसभा का चुनाव हुआ। लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करने और परिसीमन के बाद जम्मू में अब 43 सीटें हैं और कश्मीर घाटी में 47 सीटें हैं। उपराज्यपाल 5 और विधायक मनोनीत कर सकते हैं। इसका मतलब है कि सिद्धांत रूप में घाटी से एक भी सीट जीते बिना 48 का बहुमत हासिल किया जा सकता है। परिसीमन का मतलब यह भी था कि पहली बार 7 अनुसूचित जाति और 9 अनुसूचित जनजाति विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आए। अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित सीटों ने घाटी में कश्मीरी मुस्लिम प्रतिनिधित्व को प्रभावी ढंग से सीमित कर दिया।

सभी 9 अनुसूचित जनजाति निर्वाचन क्षेत्र में I.N.D.I.A. गठबंधन ने जीत हासिल की। उसे बहुमत के आंकड़े से एक अधिक 49 सीटें मिलीं। लेकिन जीत में भी आत्मनिरीक्षण करने का कारण है। जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस ने चुनाव लड़ी गईं 56 में से 42 सीटें जीतीं, लेकिन कांग्रेस 38 सीटों में से सिर्फ 6 ही जीत सकी। विशेष रूप से जम्मू में, कांग्रेस कोई सेंध लगाने में नाकाम रही क्योंकि बीजेपी ने इस क्षेत्र में सफाया कर दिया। कुल मिलाकर, सीपीएम समेत विजेता गठबंधन का वोट शेयर 36% था, जबकि बीजेपी को मुख्य रूप से जम्मू में 25.6% वोट मिले। इससे पता चलता है कि इस विधानसभा चुनाव में लगभग 40% वोट 7 विजयी निर्दलीय उम्मीदवारों समेत अन्य को गए।

डिमांडिंग वोटर
अगर हरियाणा का हर पांचवां वोटर और जम्मू-कश्मीर का लगभग हर दूसरा वोटर गैर-एनडीए, गैर-I.N.D.I.A उम्मीदवारों को राज्य विधानसभाओं में अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनते हैं, तो हमें यह पूछना चाहिए कि इस प्रवृत्ति का क्या अर्थ है। क्या मतदाता व्यक्तिगत और सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए दो मुख्य राष्ट्रीय दलों से परे देख रहे हैं? क्या वोटों का व्यापक प्रसार, विशेषकर जम्मू-कश्मीर में, सरल जीत-हार के समीकरणों के नीचे एक खंडित जनादेश का सुझाव देता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या मतदाता पार्टियों और उनके नेताओं को संदेश दे रहे हैं?

इन सवालों के जवाब के लिए हमें चुनाव के बाद के मतदाता सर्वेक्षणों पर गौर करने की जरूरत है। लेकिन यह स्पष्ट है कि पिछले एक दशक में व्यक्तित्व केंद्रित राजनीति का चलन एक अधिक बहुलवादी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त कर रहा है जिसमें AAP भी NOTA से कम कुल वोटों के बावजूद, जम्मू-कश्मीर में एक सीट जीत सकती है। बड़े राष्ट्रीय दलों के खिलाफ भी निर्दलीय उम्मीदवारों के पास सफलता का मौका है। साथ ही, राजनीतिक दलों की आड़ में चल रहीं ओल्ड फैमिली फर्मों को चिंता करने की जरूरत है। मुफ्ती और चौटाला को चिंता करने की जरूरत है। उनका राजनीतिक भविष्य अब धूमिल दिख रहा है क्योंकि मतदाता व्यक्तित्व से परे प्रदर्शन की ओर बढ़ रहे हैं।

पार्टियों को लाइन पर ला रहे मतदाता
जैसे-जैसे मतदाता चालाक होते जा रहे हैं, NDA और I.N.D.I.A दोनों गठबंधनों के लिए चुनौती बढ़ गई है। महाराष्ट्र और झारखंड में चुनावी बिगुल बजने वाला है। हर वोट मायने रखता है। किसी भी विधानसभा क्षेत्र, किसी भी यानी किसी भी सीट को किसी के लिए भी सुरक्षित नहीं माना जा सकता है। आकर्षक व्यक्तित्व और एक से बढ़कर एक होने वालीं बयानबाजियां अतीत की तरह अब काम नहीं आएंगी। सामाजिक-आर्थिक कल्याण और लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के लिए मतदाताओं की ठोस मांगें हैं। जो कोई भी इन दोहरी मांगों को पूरा करता है, उसे विधायी निकायों में प्रवेश करने का मौका मिलता है। पूरे भारत में राजनीतिक सत्ता हासिल करने का मतलब अब केवल गद्दी या तख्त ही नहीं, बल्कि जिम्मेदारी से ज्यादा होता जा रहा है।

अगर भाजपा महाराष्ट्र में महायुती के भाग्य को लेकर चिंतित है, तो कांग्रेस नेताओं को भी सहयोगियों के साथ भविष्य की सीट-बंटवारे की व्यवस्था को लेकर रातों की नींद हराम करनी होगी। हमारा लोकतंत्र आखिरकार जनहित में काम करने के संकेत दे रहा है। चौंकाने वाली जीत और शर्मिंदा नेता एक जानकार मतदाता वर्ग की ओर इशारा करते हैं। हमारे नेताओं के लिए 2047 तक विकसित भारत पार्क में टहलने से ज्यादा रोलरकोस्टर सवारी साबित हो सकता है।

(लेखक कतर की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं)

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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