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लखनऊ: 2024 के लोकसभा चुनाव ने सड़क से सदन तक सियासत और समीकरणों की तस्वीर बदली है। सोमवार को नई लोकसभा के पहले दिन भी बदलाव की यह तस्वीर मुखर नजर आई। यूपी से सर्वाधिक सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जब संसद की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, तो उनके एक हाथ में संविधान था, तो दूसरे हाथ में फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद का हाथ था। सदन के भीतर भी अखिलेश ने इस केमेस्ट्री को बरकरार रखा। पहली बार संसद पहुंचे अवधेश प्रसाद अखिलेश यादव के एजेंडे में यूं ही इतने अहम नहीं है।सपा को यूपी में 37 सीटें मिली हैं। इसमें पांच सीटों पर सैफई परिवार के चेहरे जीते हैं। इसमें अखिलेश यादव के साथ उनकी पत्नी डिंपल यादव, उनके चचेरे भाई अक्षय यादव, धर्मेंद्र यादव और आदित्य यादव शामिल हैं। बाकी 32 चेहरों में कई ऐसे हैं, जो पहले भी संसद पहुंच चुके हैं, लेकिन जब अखिलेश सांसदों के साथ संसद की ओर बढ़े, तो उनके एक बगल में पार्टी की प्रमुख महासचिव एवं राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव थे, तो दूसरी ओर अयोध्या विधानसभा को समाहित करती फैजाबाद लोकसभा से जीते पार्टी के दलित चेहरे अवधेश प्रसाद थे। अखिलेश ने अवधेश का हाथ थाम रखा था। नौ बार के विधायक अवधेश प्रसाद पहली बार संसद पहुंचे हैं, इसलिए संसद की सीढ़ी चढ़ने से पहले जब उन्होंने झुक कर प्रणाम किया, उस दौरान भी अखिलेश वहां ठिठके और फिर साथ आगे ले गए।
आगे की सीट वहां भी संग अवधेश
सपा ने इस बार अखिलेश की अगुआई में अपनी स्थापना के बाद सबसे अधिक सीटें जीती हैं। 37 सांसदों के साथ वह लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी और विपक्ष में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है, इसलिए अखिलेश विपक्ष की दीर्घा में पहली सीट पर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के बगल में बैठे नजर आए, लेकिन अखिलेश के साथ ही एक और शख्स को भी वहां जगह मिली। यह शख्स अवधेश प्रसाद थे। अवधेश विधानसभा में भी अखिलेश के बगल में बैठते थे, लेकिन यहां उन्हें यह जगह वरिष्ठ सदस्य होने के नाते मिली थी, लेकिन लोकसभा में भी अवधेश का हाथ और साथ साधकर अखिलेश PDA की गणित में D यानी दलित वोटरों को समान भागीदारी का संदेश देते दिखे। यह कवायद यूपी में भविष्य की संभावनाओं के लिए भी अहम है।
एजेंडे में इसलिए अहम अवधेश
यादव-मुस्लिम कोर वोट बैंक की पार्टी माने जाने वाली सपा के राजनीतिक DNA को अखिलेश यादव PDA की रणनीति से बदलने में सफल रहे हैं। संगठन से लेकर टिकटों के वितरण में गैर-यादव ओबीसी और दलितों की भागीदारी बढ़ाकर अखिलेश ने साफ किया कि भागीदारी महज नारा नहीं उनकी मंशा है। अवधेश प्रसाद पर पार्टी का बढ़ा फोकस इसी एजेंडे का हिस्सा है। सार्वजनिक कार्यक्रमों से लेकर सदन तक अवधेश को विशेष अहमियत दी जा रही है। अयोध्या में उनके स्वागत से लेकर सम्मान तक की खबरें पार्टी के प्रदेश कार्यालय से पहली बार जारी की गई हैं। दरअसल, अवधेश प्रसाद केवल दलित सियासत के लिहाज से अहम नहीं है, बल्कि फैजाबाद (अयोध्या) का सांसद होने के नाते 'कमंडल' पर भारी पड़े 'मंडल' का प्रतीक भी हैं। उनकी जीत को भाजपा के सबसे बड़े कोर एजेंडे की हार के तौर पर देखा जा रहा है, इसलिए सपा उनके जरिए वोटों की गणित के साथ ही परसेप्शन की केमेस्ट्री साधने में लगी है।
आगे की सीट वहां भी संग अवधेश
सपा ने इस बार अखिलेश की अगुआई में अपनी स्थापना के बाद सबसे अधिक सीटें जीती हैं। 37 सांसदों के साथ वह लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी और विपक्ष में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है, इसलिए अखिलेश विपक्ष की दीर्घा में पहली सीट पर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के बगल में बैठे नजर आए, लेकिन अखिलेश के साथ ही एक और शख्स को भी वहां जगह मिली। यह शख्स अवधेश प्रसाद थे। अवधेश विधानसभा में भी अखिलेश के बगल में बैठते थे, लेकिन यहां उन्हें यह जगह वरिष्ठ सदस्य होने के नाते मिली थी, लेकिन लोकसभा में भी अवधेश का हाथ और साथ साधकर अखिलेश PDA की गणित में D यानी दलित वोटरों को समान भागीदारी का संदेश देते दिखे। यह कवायद यूपी में भविष्य की संभावनाओं के लिए भी अहम है।एजेंडे में इसलिए अहम अवधेश
यादव-मुस्लिम कोर वोट बैंक की पार्टी माने जाने वाली सपा के राजनीतिक DNA को अखिलेश यादव PDA की रणनीति से बदलने में सफल रहे हैं। संगठन से लेकर टिकटों के वितरण में गैर-यादव ओबीसी और दलितों की भागीदारी बढ़ाकर अखिलेश ने साफ किया कि भागीदारी महज नारा नहीं उनकी मंशा है। अवधेश प्रसाद पर पार्टी का बढ़ा फोकस इसी एजेंडे का हिस्सा है। सार्वजनिक कार्यक्रमों से लेकर सदन तक अवधेश को विशेष अहमियत दी जा रही है। अयोध्या में उनके स्वागत से लेकर सम्मान तक की खबरें पार्टी के प्रदेश कार्यालय से पहली बार जारी की गई हैं। दरअसल, अवधेश प्रसाद केवल दलित सियासत के लिहाज से अहम नहीं है, बल्कि फैजाबाद (अयोध्या) का सांसद होने के नाते 'कमंडल' पर भारी पड़े 'मंडल' का प्रतीक भी हैं। उनकी जीत को भाजपा के सबसे बड़े कोर एजेंडे की हार के तौर पर देखा जा रहा है, इसलिए सपा उनके जरिए वोटों की गणित के साथ ही परसेप्शन की केमेस्ट्री साधने में लगी है।साथ से बात बनाने पर नजर
2019 में बसपा के साथ गठबंधन के बाद भी अखिलेश यादव जितना दलित वोट अपने पाले में नहीं कर पाए थे, इस बार उससे अधिक वोट सपा ने बसपा के मुखर के विरोध के बाद भी हासिल किए। सपा ने यूपी में दलितों के लिए आरक्षित 17 सीटों में 14 पर उम्मीदवार उतारे थे। इसमें 50% यानी 7 सीटों पर सपा को जीत मिली। फैजाबाद की अनारक्षित सीट पर सपा ने दलित चेहरे के तौर पर अवधेश प्रसाद को उतारा। यहां भी सपा ने भाजपा के गढ़ को ध्वस्त कर दिया। पहली बार लोकसभा में सपा से 8 दलित सांसद पहुंचे हैं। इससे पहले 2004 में मुलायम सिंह यादव की अगुआई में 6 दलित सपा के टिकट पर लोकसभा पहुंचे थे। अखिलेश चाहते कि पार्टी के साथ जुड़ा यह वोटर महज 'परिस्थितिजन्य' न होकर स्थायी साझीदार बने। 2027 में यूपी की सत्ता में पहुंचने का ख्वाब पूरा करने के लिए भी यह अहम है, इसलिए साथ और साझेदारी का संदेश साधने के हर मौके का इस्तेमाल किया जा रहा है।
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