लेख- मैन्युफैक्चरिंग पर जोर, रोजगार बढ़ाने का यह क्या तरीका हुआ

स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर
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स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर
अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में एक बात कॉमन है। दोनों ही मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को सब्सिडी देने, उनमें निवेश करने के हिमायती हैं। वे मानते हैं कि इससे रोजगार के मौके बढ़ेंगे और उनके देश बनेंगे ग्रेट। क्या वाकई ऐसा होगा?

MAGA का ख्वाब: अमेरिका उच्च आय वाला देश है। वहां दशकों से GDP में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा घट रहा है। अमेरिकी लोग शिकायत करते हैं कि उनके देश से करोड़ों नौकरियों का चीन को निर्यात कर दिया गया है। यानी कई चीजें अमेरिका में बननी बंद हो गई हैं, उनका आयात चीन से किया जा रहा है। ट्रंप वे रोजगार वापस लाना चाहते हैं ताकि मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (MAGA) का उनका ख्वाब पूरा हो सके।

क्यों घटे रोजगार: माफ कीजिएगा, यह उलटे बांस बरेली है। बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति रहने के दौरान उनके आर्थिक सलाहकारों में शामिल रॉबर्ट लॉरेंस का यही कहना है। वह बताते हैं कि कई ऐतिहासिक बदलावों की वजह से विकसित देशों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार घटे हैं। इन वजहों में तकनीकी बदलाव, लोगों के खर्च करने की आदतों में बदलाव और व्यापार की दुनिया में आए चेंज शामिल हैं।

औद्योगिक क्रांति से पहले: 18वीं सदी तक दुनिया में 80% लोग खेती से जुड़े थे। तब अलग-अलग देशों के लोगों के बीच आय में असमानता भी कम थी। इसके बाद औद्योगिक क्रांति का दौर आया, जिससे प्रॉडक्टिविटी और इनकम में बढ़ोतरी हुई। अमेरिका में 1810 में 81% लोग खेती पर आश्रित थे जबकि 3% को मैन्युफैक्चरिंग और 16% को सर्विसेज सेक्टर में रोजगार मिला हुआ था।

ट्रंप फेल होंगे: 1950 तक खेती पर आश्रित लोगों की संख्या घटकर 12% रह गई। मैन्युफैक्चरिंग में यह बढ़कर 24% के शिखर पर और सर्विसेज में 64% हो गई। 2020 तक तीनों क्षेत्रों का रोजगार में योगदान क्रमशः 1.8%, 8%, और 91% हो गया। जब कोई देश अमीर होता है तो वहां यही ट्रेंड दिखता है। यह 'इकॉनमिक लॉ' है, जिसे बदलना ट्रंप के लिए भी मुमकिन नहीं।

मशीनों का प्रभाव: यह बात भी सही है कि मशीनों का प्रयोग बढ़ने से रोजगार में कमी आती है। अमेरिका में सिर्फ 1.8% आबादी खेती करती है। इससे इतनी पैदावार होती है कि अपनी जरूरत पूरी करने के बाद वह बड़े पैमानों पर कृषि उत्पादों का निर्यात भी करता है। पहले यह देखा गया है कि मशीनों की वजह से ही बड़े पैमाने पर लोगों ने खेती छोड़ी और अधिक प्रॉडक्टिव सेक्टर में गए, जहां उन्हें कहीं अधिक मेहनताना मिला।

कैसे हुआ बदलाव: शुरुआत में, उत्पादकता बढ़ने से कृषि उत्पादों के दाम गिरे और उससे दिहाड़ी में कमी आई। ऐसे में लोग खेती से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की ओर शिफ्ट हुए। ऐसी कंपनियों का साइज बढ़ा तो वे कम लागत पर उत्पादन करने में सक्षम हुईं। इससे डिमांड को बढ़ावा मिला, लिहाजा प्रॉडक्शन बढ़ा और संबंधित रोजगार भी। लेकिन जैसे-जैसे देश अमीर होते गए, सर्विसेज की तुलना में मैटीरियल गुड्स की मांग कहीं धीमी रफ्तार से बढ़ी।

ग्रोथ धीमी होगी: ट्रंप जब पिछली बार राष्ट्रपति बने थे, तब उन्होंने आयात शुल्क लगाया ताकि अमेरिका में स्टील और एल्युमीनियम क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा मिले। उनका तर्क था कि ये 'स्ट्रैटेजिक' इंडस्ट्रीज हैं। उनके बाद बाइडन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने 'स्ट्रैटेजिक' का दायरा बढ़ाकर इसमें सोलर पैनल, बैटरी, विंडमिल और इलेक्ट्रिक गाड़ियों को शामिल कर लिया। लगता है कि दूसरे टर्म में ट्रंप इस लिस्ट में और चीजें जोड़ सकते हैं। हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर भी अगर ऐसी नीतियां अपनाईं जाएं तो उसे संरक्षणवाद की कहा जाएगा। और इससे इकॉनमिक ग्रोथ सुस्त पड़ेगी, रोजगार में भी कमी आएगी।

एपल की कामयाबी: भारत में आज 43% आबादी खेती पर आश्रित है। इसका मतलब है कि उससे इंडस्ट्री और फिर सर्विसेज में लोगों के शिफ्ट होने में लंबा वक्त लगेगा। सच यह भी है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के पहले 10 वर्षों में रोजगार में वैसी बढ़ोतरी नहीं हुई, जिसका वादा किया गया था। सरकार की प्रॉडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव स्कीम की इकलौती कामयाबी आईफोन बनाने वाली कंपनी एपल रही है, जिससे 1.5 लाख प्रत्यक्ष रोजगार पैदा किए हैं। देखने में यह आंकड़ा भले ही अच्छा लगता हो, लेकिन भारत जैसे देश में जहां हर साल 1.2 करोड़ लोग रोजगार बाजार से जुड़ते हैं, उसके लिए यह काफी कम है।

छुट्टियां हैं ज्यादा: कई सरकारी योजनाओं के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में करोड़ों नए रोजगार क्यों नहीं पैदा किए जा सके? अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, इसके लिए श्रम कानून दोषी हैं, जो मजदूरों को निकालना मुश्किल बनाते हैं, लेकिन मेरे लिहाज से यह छोटी वजह है। इससे बड़ी वजह है छुट्टियां। भारत में नैशनल हॉलिडेज, एक महीने की पेड लीव, कैजुअल लीव, सिक लीव और मैटरनिटी लीव एंप्लॉयीज को मिलती हैं। इसका मतलब है कि कुछ वर्कर्स साल में 200 दिनों से भी कम काम करते हैं। फिर कंपनियों को ESI, ग्रैच्युटी देने के साथ प्रॉविडेंट फंड में योगदान, पेंशन फंड में योगदान करना पड़ता है। वे लीव ट्रैवेल अलाउंस भी देती हैं। इससे भारतीय वर्कर्स दूसरे देशों के वर्कर्स की तुलना में महंगे हो जाते हैं। भारतीय कंपनियां इससे बचने के लिए कैजुअल वर्कर्स को हायर करती हैं या छोटी कंपनियों को काम आउटसोर्स करती हैं, जो असंगठित क्षेत्र में होती हैं। ऐसे में अच्छे रोजगार नहीं पैदा होते, जिसकी लोगों को चाहत है।

ट्रेड यूनियन बाधा: छुट्टियों को साल में घटाकर 50 दिन करना एक शुरुआती कदम हो सकता है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस बारे में चर्चा तक नहीं हो रही। BJP और कांग्रेस दोनों के पास मजबूत ट्रेड यूनियन हैं, जो छुट्टियों में कटौती का विरोध करेंगी। इसलिए भारत में रोजगार बढ़ाने के लिए जो जरूरी रिफॉर्म्स हैं, वे राजनीतिक तौर पर संभव नहीं हैं।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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