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नई दिल्ली: ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती फारसी मूल के सुन्नी मुस्लिम दार्शनिक और धार्मिक विद्वान थे। उन्हें गरीब नवाज और सुल्तान-हिंद के नाम से भी जाना जाता था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 13वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में आए और राजस्थान के अजमेर में बस गए। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में सुन्नी इस्लाम के चिश्ती आदेश की स्थापना की और उसका प्रसार किया। यह एक रहस्यमय सूफी सिलसिला था। उनकी खानकाह अजमेर में है, जो ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह है। इस दरगाह की वास्तुकला इंडो-इस्लामिक है।
दरअसल, अजमेर दरगाह इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है।यूपी के संभल में स्थित जामा मस्जिद के बाद अब राजस्थान के अजमेर में दरगाह शरीफ का सर्वे हो सकता है। एक निचली अदालत ने हिंदू पक्ष की उस याचिका को स्वीकार कर लिया है, जिसमें अजमेर शरीफ दरगाह को हिंदू मंदिर बताया गया है। इसमें कहा गया है कि यहां पहले एक शिव मंदिर था। याचिका हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से दायर की गई थी। जानते हैं ख्वाजा की पूरी कहानी।
क्या है सूफी का मतलब, कहां से आया यह शब्द
'सूफी' शब्द अरबी के 'सफ' शब्द से लिया गया है जिसका मतलब है-ऊन से बने कपड़े पहनने वाला। इसका एक कारण यह है कि ऊनी कपड़ों को आमतौर पर फकीरों से जोड़कर देखा जाता था। इस शब्द का एक अन्य संभावित मूल 'सफा' है जिसका अरबी में अर्थ 'शुद्धता' भी है। वैसे भी अरब के लोग रेत भरी आंधी से बचने के लिए ऊनी कपड़े पहनते थे। सूफी सुलह-ए-कुल यानी शांति और सद्भावना में यकीन रखते हैं। उनके यहां की पीरी-मुर्शीदी की परंपरा भारत के गुरु-शिष्य परंपरा की तरह ही है।
सूफियों को कट्टर इस्लाम समर्थक नहीं स्वीकार करते
यह इस्लामी रहस्यवाद का एक रूप है जो वैराग्य पर जोर देता है। इसमें ईश्वर के प्रति समर्पण और भौतिकता से दूर रहने पर बल दिया गया है। सूफीवाद में बोध की भावना से ईश्वर की प्राप्ति के लिए आत्म अनुशासन को एक आवश्यक शर्त माना जाता है। रूढ़िवादी मुसलमानों के विपरीत जो कि बाहरी आचरण पर ज़ोर देते हैं, सूफियों ने आंतरिक शुद्धता पर ज़ोर दिया। सूफी मानते हैं कि मानवता की सेवा करना ईश्वर की सेवा के समान है।
क्या है सूफियों का सिद्धांत, कट्टरपंथी क्यों बरतते हैं दूरी
इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार, भारत में इस्लाम जब आया तो तलवारों से लैस मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ आया। ऐसे में इसे सहजता से स्वीकार करने में हिंदुस्तान की जनता को काफी मुश्किल हुई। इल्तुतमिश, बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुल्तानों ने जबरन धर्मांतरण की काफी कोशिश की, मगर ऐसा हो नहीं पाया। ऐसे में इस्लाम के ह्रदय के रूप में सूफी का जन्म हुआ, जो संगीत और नृत्य की बदौलत काफी कुछ भक्ति मार्ग से मिलता-जुलता था। ऐसे में तब जाकर हिंद-इस्लामी संस्कृति विकसित हुई।
अमेरिकी विद्वान ने बताई इस्लाम में संगीत की वजह
अमेरिकी विद्वान जॉन एस्पोसिटो के अनुसार, वह पहले प्रमुख इस्लामी रहस्यवादियों में से एक थे जिन्होंने औपचारिक रूप से अपने अनुयायियों को उनकी भक्ति, प्रार्थनाओं और भगवान के भजनों में संगीत के इस्तेमाल को शामिल करने की अनुमति दी थी। अरब आस्था उन स्वदेशी लोगों से अधिक संबंधित है जिन्होंने हाल ही में इस धर्म में प्रवेश किया है।
भारत में पॉपुलर हुए 4 तरह के सूफी सिलसिले
वैसे तो सूफी परंपरा या सिलसिले कई तरह के थे। मगर, भारत में 4 तरह के सिलसिले ज्यादा प्रचलित थे। ये थे-चिश्ती, सुहरावर्दी, नक्शबंदी और कादरी सिलसिले। इनमें भी चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिले ज्यादा पॉपुलर हुआ करते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती इसी चिश्तिया सिलसिले से थे। सफी लोग खानकाहों यानी एक तरह के आश्रम में रहते हैं, जहां उनके अनुयायियों का जमावड़ा रहता है। यहां संगीत यानी समां का आयोजन होता है, जिसमें कव्वाली पर झूम-झूमकर लोग ईश्वर से नाता जोड़ने की कोशिश करते हैं।
गोरी ने जब पृथ्वीराज को हराया, तब अजमेर रहने लगे चिश्ती
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने वर्ष 1192 ई. में अजमेर में रहने के साथ ही उस समय उपदेश देना शुरू किया, जब मुहम्मद गोरी (मुईज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम) ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली में अपना शासन कायम कर लिया था। आध्यात्मिक ज्ञान से भरपूर चिश्ती के शिक्षाप्रद प्रवचनों ने जल्द ही स्थानीय आबादी के साथ-साथ सुदूर इलाकों में राजाओं, रईसों, किसानों और गरीबों को आकर्षित किया। उनकी मृत्यु के बाद मुगल बादशाह हुमायूं ने वहां पर उनकी कब्र बनवा दी। अजमेर में उनकी दरगाह पर मुहम्मद बिन तुगलक, शेरशाह सूरी, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, दारा शिकोह और औरंगजेब जैसे शासकों ने जियारत की।
भारत में चिश्ती सिलसिला ख्वाजा गरीब नवाज ने कायम की थी
भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी। इस सिलसिले में ईश्वर के साथ एकात्मकता (वहदत अल-वुजुद) के सिद्धांत पर जोर दिया जाता है। इस सिलसिले के सदस्य शांतिप्रियता में यकीन रखते थे। उन्होंने सभी भौतिक वस्तुओं को ईश्वर के चिंतन से भटकाव की वजह बताकर खारिज कर दी थी। खुद मोइनुद्दीन चिश्ती ने मोहम्मद गोरी से किसी तरह का तोहफे लेने से मना कर दिया था।
चिश्ती सिलसिला धर्मनिरपेक्ष, शासन से रखता था दूरी
चिश्ती सिलसिले ने ईश्वर के नाम को जोर से बोलकर और मौन रहकर जपने यानी धिक्र जाहरी और धिक्र खाफी पर जोर दिया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शिष्यों जैसे-ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी, फरीदउद्दीन गंज-ए-शकर, निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन चिराग वगैरह ने चिश्ती की शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई।
सुहरावर्दी सिलसिला मुस्लिम शासकों से लेता था पैसे
शेख बहाउद्दीन जकारिया ने सूफीवाद के सुहरावर्दी संप्रदाय की स्थापना की थी। भारत में शेख शहाबुद्दीन सुहरावार्दी मकतूल ने इस सिलसिले को कायम किया था। चिश्ती सिलसिले के विपरीत सुहरावर्दी सिलसिले को मानने वालों ने सुल्तानों, राज्य के संरक्षण और अनुदान को स्वीकार किया। शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी और हमीदुद्दीन नागोरी इस संप्रदाय के अन्य लोकप्रिय संत थे। ये सिलसिला मुख्य रूप से पंजाब और सिंध के इलाके में ज्यादा पॉपुलर हुआ।
नक्शबंदी सिलसिला ज्यादा कट्टरपंथी संप्रदाय
नक्शबंदी सिलसिले की स्थापना ख्वाजा बहा-उल-दीन नक्शबंद ने की थी। भारत में इस सिलसिले की स्थापना ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी ने की थी। शुरुआत से ही इस सिलसिले के फकीरों ने शरियत के पालन पर जोर दिया। इस सिलसिले ने इस्लाम के प्रसार में ज्यादा अहम भूमिका निभाई।
कादिरिया सिलसिला मुगलों का समर्थक
कादिरिया सिलसिला पंजाब में लोकप्रिय था। इसकी स्थापना बगदाद के शेख अब्दुल कादिर गिलानी ने 14वीं शताब्दी में की थी। इस सिलसिले के अनुयायी मुगल बादशाह अकबर के शासन के पक्के समर्थक थे। मियां मीर भी पॉपुलर सूफी संत थे। यह संप्रदाय अरबी बोलने वाले देशों के साथ-साथ तुर्की, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान जैसे कई देशों में पॉपुलर है।
कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और कहां से आए थे
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक सूफी फकीर संत और दार्शनिक थे। उनका जन्म 1143 ई. में ईरान के सिस्तान क्षेत्र में हुआ था। यह वर्तमान में ईरान के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है, जो अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा से लगा हुआ है। चिश्ती ने अपने पिता के कारोबार को छोड़कर आध्यात्मिक जीवन को अपनाया। अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात प्रसिद्ध संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई। उन्होंने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य स्वीकार किया और उन्हें दीक्षा दी। 52 साल की उम्र में उन्हें शेख उस्मान से ख़िलाफत मिली। इसके बाद वे हज, मक्का और मदीना गए। वहां से वह मुल्तान होते हुए वह भारत आए और अजमेर में अपना ठिकाना बनाया।
अकबर से लेकर औरंगजेब तक आते थे जियारत करने
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मृत्यु 1236 ई. में हुई। उन्हें अजमेर में दफनाया गया। उनकी कब्र (दरगाह) ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ दरगाह के नाम से प्रसिद्ध है। यह उनके अनुयायियों के लिए बेहद पवित्र स्थान है। इल्तुतमिश, अकबर, रजिया सुल्तान, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब जैसे बादशाहों ने यहां आकर जियारत की थी। बड़ौदा के महाराजा ने दरगाह शरीफ के ऊपर एक सुंदर आवरण बनवाया था। मुगल बादशाह जहांगीर, शाहजहां और जहांआरा ने इसके जीर्णोद्धार में योगदान दिया।
दरअसल, अजमेर दरगाह इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है।यूपी के संभल में स्थित जामा मस्जिद के बाद अब राजस्थान के अजमेर में दरगाह शरीफ का सर्वे हो सकता है। एक निचली अदालत ने हिंदू पक्ष की उस याचिका को स्वीकार कर लिया है, जिसमें अजमेर शरीफ दरगाह को हिंदू मंदिर बताया गया है। इसमें कहा गया है कि यहां पहले एक शिव मंदिर था। याचिका हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से दायर की गई थी। जानते हैं ख्वाजा की पूरी कहानी।
क्या है सूफी का मतलब, कहां से आया यह शब्द
'सूफी' शब्द अरबी के 'सफ' शब्द से लिया गया है जिसका मतलब है-ऊन से बने कपड़े पहनने वाला। इसका एक कारण यह है कि ऊनी कपड़ों को आमतौर पर फकीरों से जोड़कर देखा जाता था। इस शब्द का एक अन्य संभावित मूल 'सफा' है जिसका अरबी में अर्थ 'शुद्धता' भी है। वैसे भी अरब के लोग रेत भरी आंधी से बचने के लिए ऊनी कपड़े पहनते थे। सूफी सुलह-ए-कुल यानी शांति और सद्भावना में यकीन रखते हैं। उनके यहां की पीरी-मुर्शीदी की परंपरा भारत के गुरु-शिष्य परंपरा की तरह ही है।सूफियों को कट्टर इस्लाम समर्थक नहीं स्वीकार करते
यह इस्लामी रहस्यवाद का एक रूप है जो वैराग्य पर जोर देता है। इसमें ईश्वर के प्रति समर्पण और भौतिकता से दूर रहने पर बल दिया गया है। सूफीवाद में बोध की भावना से ईश्वर की प्राप्ति के लिए आत्म अनुशासन को एक आवश्यक शर्त माना जाता है। रूढ़िवादी मुसलमानों के विपरीत जो कि बाहरी आचरण पर ज़ोर देते हैं, सूफियों ने आंतरिक शुद्धता पर ज़ोर दिया। सूफी मानते हैं कि मानवता की सेवा करना ईश्वर की सेवा के समान है।क्या है सूफियों का सिद्धांत, कट्टरपंथी क्यों बरतते हैं दूरी
इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार, भारत में इस्लाम जब आया तो तलवारों से लैस मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ आया। ऐसे में इसे सहजता से स्वीकार करने में हिंदुस्तान की जनता को काफी मुश्किल हुई। इल्तुतमिश, बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुल्तानों ने जबरन धर्मांतरण की काफी कोशिश की, मगर ऐसा हो नहीं पाया। ऐसे में इस्लाम के ह्रदय के रूप में सूफी का जन्म हुआ, जो संगीत और नृत्य की बदौलत काफी कुछ भक्ति मार्ग से मिलता-जुलता था। ऐसे में तब जाकर हिंद-इस्लामी संस्कृति विकसित हुई।अमेरिकी विद्वान ने बताई इस्लाम में संगीत की वजह
अमेरिकी विद्वान जॉन एस्पोसिटो के अनुसार, वह पहले प्रमुख इस्लामी रहस्यवादियों में से एक थे जिन्होंने औपचारिक रूप से अपने अनुयायियों को उनकी भक्ति, प्रार्थनाओं और भगवान के भजनों में संगीत के इस्तेमाल को शामिल करने की अनुमति दी थी। अरब आस्था उन स्वदेशी लोगों से अधिक संबंधित है जिन्होंने हाल ही में इस धर्म में प्रवेश किया है।भारत में पॉपुलर हुए 4 तरह के सूफी सिलसिले
वैसे तो सूफी परंपरा या सिलसिले कई तरह के थे। मगर, भारत में 4 तरह के सिलसिले ज्यादा प्रचलित थे। ये थे-चिश्ती, सुहरावर्दी, नक्शबंदी और कादरी सिलसिले। इनमें भी चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिले ज्यादा पॉपुलर हुआ करते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती इसी चिश्तिया सिलसिले से थे। सफी लोग खानकाहों यानी एक तरह के आश्रम में रहते हैं, जहां उनके अनुयायियों का जमावड़ा रहता है। यहां संगीत यानी समां का आयोजन होता है, जिसमें कव्वाली पर झूम-झूमकर लोग ईश्वर से नाता जोड़ने की कोशिश करते हैं।गोरी ने जब पृथ्वीराज को हराया, तब अजमेर रहने लगे चिश्ती
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने वर्ष 1192 ई. में अजमेर में रहने के साथ ही उस समय उपदेश देना शुरू किया, जब मुहम्मद गोरी (मुईज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम) ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली में अपना शासन कायम कर लिया था। आध्यात्मिक ज्ञान से भरपूर चिश्ती के शिक्षाप्रद प्रवचनों ने जल्द ही स्थानीय आबादी के साथ-साथ सुदूर इलाकों में राजाओं, रईसों, किसानों और गरीबों को आकर्षित किया। उनकी मृत्यु के बाद मुगल बादशाह हुमायूं ने वहां पर उनकी कब्र बनवा दी। अजमेर में उनकी दरगाह पर मुहम्मद बिन तुगलक, शेरशाह सूरी, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, दारा शिकोह और औरंगजेब जैसे शासकों ने जियारत की।भारत में चिश्ती सिलसिला ख्वाजा गरीब नवाज ने कायम की थी
भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी। इस सिलसिले में ईश्वर के साथ एकात्मकता (वहदत अल-वुजुद) के सिद्धांत पर जोर दिया जाता है। इस सिलसिले के सदस्य शांतिप्रियता में यकीन रखते थे। उन्होंने सभी भौतिक वस्तुओं को ईश्वर के चिंतन से भटकाव की वजह बताकर खारिज कर दी थी। खुद मोइनुद्दीन चिश्ती ने मोहम्मद गोरी से किसी तरह का तोहफे लेने से मना कर दिया था।चिश्ती सिलसिला धर्मनिरपेक्ष, शासन से रखता था दूरी
चिश्ती सिलसिले ने ईश्वर के नाम को जोर से बोलकर और मौन रहकर जपने यानी धिक्र जाहरी और धिक्र खाफी पर जोर दिया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शिष्यों जैसे-ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी, फरीदउद्दीन गंज-ए-शकर, निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन चिराग वगैरह ने चिश्ती की शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई।सुहरावर्दी सिलसिला मुस्लिम शासकों से लेता था पैसे
शेख बहाउद्दीन जकारिया ने सूफीवाद के सुहरावर्दी संप्रदाय की स्थापना की थी। भारत में शेख शहाबुद्दीन सुहरावार्दी मकतूल ने इस सिलसिले को कायम किया था। चिश्ती सिलसिले के विपरीत सुहरावर्दी सिलसिले को मानने वालों ने सुल्तानों, राज्य के संरक्षण और अनुदान को स्वीकार किया। शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी और हमीदुद्दीन नागोरी इस संप्रदाय के अन्य लोकप्रिय संत थे। ये सिलसिला मुख्य रूप से पंजाब और सिंध के इलाके में ज्यादा पॉपुलर हुआ।नक्शबंदी सिलसिला ज्यादा कट्टरपंथी संप्रदाय
नक्शबंदी सिलसिले की स्थापना ख्वाजा बहा-उल-दीन नक्शबंद ने की थी। भारत में इस सिलसिले की स्थापना ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी ने की थी। शुरुआत से ही इस सिलसिले के फकीरों ने शरियत के पालन पर जोर दिया। इस सिलसिले ने इस्लाम के प्रसार में ज्यादा अहम भूमिका निभाई।कादिरिया सिलसिला मुगलों का समर्थक
कादिरिया सिलसिला पंजाब में लोकप्रिय था। इसकी स्थापना बगदाद के शेख अब्दुल कादिर गिलानी ने 14वीं शताब्दी में की थी। इस सिलसिले के अनुयायी मुगल बादशाह अकबर के शासन के पक्के समर्थक थे। मियां मीर भी पॉपुलर सूफी संत थे। यह संप्रदाय अरबी बोलने वाले देशों के साथ-साथ तुर्की, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान जैसे कई देशों में पॉपुलर है।कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और कहां से आए थे
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक सूफी फकीर संत और दार्शनिक थे। उनका जन्म 1143 ई. में ईरान के सिस्तान क्षेत्र में हुआ था। यह वर्तमान में ईरान के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है, जो अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा से लगा हुआ है। चिश्ती ने अपने पिता के कारोबार को छोड़कर आध्यात्मिक जीवन को अपनाया। अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात प्रसिद्ध संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई। उन्होंने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य स्वीकार किया और उन्हें दीक्षा दी। 52 साल की उम्र में उन्हें शेख उस्मान से ख़िलाफत मिली। इसके बाद वे हज, मक्का और मदीना गए। वहां से वह मुल्तान होते हुए वह भारत आए और अजमेर में अपना ठिकाना बनाया।अकबर से लेकर औरंगजेब तक आते थे जियारत करने
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मृत्यु 1236 ई. में हुई। उन्हें अजमेर में दफनाया गया। उनकी कब्र (दरगाह) ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ दरगाह के नाम से प्रसिद्ध है। यह उनके अनुयायियों के लिए बेहद पवित्र स्थान है। इल्तुतमिश, अकबर, रजिया सुल्तान, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब जैसे बादशाहों ने यहां आकर जियारत की थी। बड़ौदा के महाराजा ने दरगाह शरीफ के ऊपर एक सुंदर आवरण बनवाया था। मुगल बादशाह जहांगीर, शाहजहां और जहांआरा ने इसके जीर्णोद्धार में योगदान दिया।हर साल मनाया जाता है उर्स, मृत्यु की सालगिरह पर जश्न
हर साल ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि को 'उर्स' नामक त्योहार मनाया जाता है। खास बात यह है कि मृत्यु की सालगिरह पर शोक मनाने की बजाय जश्न मनाया जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अनुयायियों का मानना है कि इस दिन मुर्शीद यानी शिष्य अपने ऊपर वाले यानी ईश्वर से फिर मिल जाता है।
+91 120 4319808|9470846577
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