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नई दिल्ली : जहांगीरपुरी- 999, पंजाबी बाग- 904, आरकेपुरम- 909, द्वारका सेक्टर 8- 999, बवाना- 962, सत्यवती कॉलेज- 999, अलीपुर- 973, नरेला- 954, आनंद विहार- 890, मुंडका- 898....। ये देश की राजधानी में एयर क्वॉलिटी इंडेक्स का हाल है। सोमवार के सुबह-सुबह का हाल। ये आंकड़े हैं दुनियाभर में हवा की गुणवत्ता पर निगाह रखने वाली अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट एक्यूआईसीएन डॉट ओआरजी के। एक्यूआई का आंकड़ा बता रहा कि दिल्ली की हवा अब हवा नहीं रह गई, जहरीली गैस है गैस। देश की राजधानी गैस चैंबर में तब्दील हो चुकी है। इस हवा में सांस लेने का मतलब है जैसे एक दिन में 30-30 सिगरेट पी रहे हैं। स्कूल बंद हैं। निर्माण बंद हैं। डीजल जेनरेटर बंद हैं। गाड़ियों पर भी पाबंदियां हैं। कई तरह की पाबंदियां हैं। ग्रैप 4 लागू है। पंजाब, हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों में पराली जलाना भी जारी है। पिछले कई वर्षों से हर साल का ये हाल है। सर्दियों का मतलब ही जानलेवा पलूशन बन गया है।एक्यूआई का लेवल अगर 50 तक है तो उसे अच्छा माना जाता है। 51- 100 का मतलब है न अच्छा, न खराब यानी औसत। 101-150 का मतलब है कि जोखिम वाले समूहों जैसे बुजुर्ग, बच्चे, पहले से बीमार लोगों, सांस की बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए नुकसान पहुंचाने वाला। 151-200 एक्यूआई का मतलब है बीमार कर देने वाली हवा। 201-300 एक्यूआई का मतलब है सभी के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाला। 300 से ऊपर एक्यूआई का मतलब है हेल्थ इमर्जेंसी की स्थिति। स्वास्थ्य के लिए खतरनाक स्थिति। लेकिन देश की राजधानी में एक्यूआई 999 पहुंच गया है। उस स्तर पर पहुंच गया है कि एक्यूआई मीटर जिसे नाप ही नहीं सकता। 999 वाले स्तर से भी ज्यादा जहरीली हवा हो गई तो भी एक्यूआई 999 ही दिखाएगा। अब अंदाजा लगाइए कि हवा कैसी है? मौत का गैस चैंबर। सांसें हैं तो जिंदगी है लेकिन यहां तो हर सांस में जहर घुल रही है।
ठंड के दिनों में दिल्ली-एनसीआर वालों की शायद ये नियति बन गई है। हर साल प्रदूषण से निपटने के नाम पर तमाम कदमों की रस्म अदायगी होती है लेकिन पलूशन है कि घटती नहीं। हां, अगर हवा तेज हो गई तो कुछ दिनों के लिए राहत जरूर मिल जाती है। हर सर्दियों में ये जैसे रस्म हो गया है- पटाखे पर प्रतिबंध से रस्म शुरू हो जाती है। लेकिन पराली जलाने पर रोक नहीं लग पाती। पराली को गलाकर खाद में तब्दील कर किसानों के लिए वरदान वाले कथित 'जादूई घोल' के करोड़ों के विज्ञापन दिखाए जाएंगे लेकिन पराली जलती रहेगी। कथित 'जादूई घोल' की 'जादूई तरकीब' हवा में हवा हुई तो अब विज्ञापन के रूप में उसका शोर नहीं दिखाई देता। ठीक वैसे ही जैसे कभी पंजाब और दिल्ली में जब अलग-अलग पार्टियों की सरकारें थीं तो दिल्ली के सीएम हर प्रेस कॉन्फ्रेंस में, हर बयान में पंजाब की स्टबल बर्निंग को जिम्मेदार ठहराया करते थे। लेकिन जब वहां भी उनकी ही पार्टी की सरकार बन गई तब जुबां पर कभी पंजाब की पराली का नाम तक नहीं आया।
रस्मों की कड़ी में रिव्यू मीटिंग, फलां-फलां गतिविधियों पाबंदियां, स्कूल बंद, कॉलेज बंद, ये बंद, वो बंद...बीच-बीच में अदालतों में सुनवाई। ये नहीं किया तो टांग देंगे, वो नहीं किया तो ये कर देंगे, आप नहीं कर रहे तो हम करेंगे टाइप रेटोरिक भी खूब सुनने को मिलेंगे। तब भी कुछ नहीं होगा तो हो सकता है सरकार 'ऑड ईवन' का ब्रह्मास्त्र छोड़ देगी। वो ब्रह्मास्त्र जो कितना कारगर है, इसे लेकर कोई साइंटिफिक डेटा नहीं हो। ये ब्रह्मास्त्र भी चल दिया तो हो सकता है स्मॉग टावर जैसे सफेद हाथी का दांव चला जाए। जोर-शोर से लगाए गए स्मॉग टावर चल भी रहे हैं या नहीं, काम भी कर रहे हैं या नहीं, स्मॉग को हटा भी रहे हैं या नहीं....किसी को इससे क्या मतलब, बस ये सफेद हाथी लग गए तो लग गए। कहने को खूब कदम उठाए जाते हैं लेकिन हवा तो जैसे यमुना का पानी है जिसे साफ करने के लिए वर्षों से पानी की तरह सैकड़ों करोड़ रुपये मालूम नहीं कहां बहा दिए जाते हैं लेकिन पानी है कि साफ ही नहीं होता। ऊपर से राजनीति भी होगी। यूटी की सरकार केंद्र पर तो केंद्र की सरकार यूटी पर ठीकरा फोड़ने की कोशिशें होंगी।
प्रदूषण से लड़ने के नाम पर सरकारें कितनी ईमानदारी से काम कर रही हैं, इसका अंदाजा सिर्फ पराली के मुद्दे से लगाया जा सकता है। पराली जलाने वालों को दंडित करने के बजाय सरकारें खामोश हो जाती हैं कि कहीं 'अन्नदाता' न रुठ जाए। भला कौन प्रदूषण से लड़ने के लिए सियासी नुकसान को न्योता दे। केंद्र सरकार भी पराली जलाने पर जुर्माने की राशि तब बढ़ाती है जब अदालत डंडा करती है। लेकिन जुर्माना लगाएगा कौन? किसानों की भी अपनी मजबूरी है। जब से कंपाइन का दौर आया तबसे ही पराली की समस्या आई। पहले तो धान का डंठल ही नहीं बचा था खेत में, सब पुआल बन जाता था। अब कंपाइन से कटाई के बाद धान का जो डंठल खेत में बच जाता है, किसान आखिर उसका निपटारा कैसे करें? अगली बुवाई के लिए खेत भी तो तैयार करना है। ऐसे में वे खेतों में ही उसे जलाना शुरू कर देते हैं। कड़ाई से वोटों का नुकसान न हो जाए, इस डर से सरकारें भी कार्रवाई की हिम्मत नहीं दिखातीं। लेकिन पराली की समस्या का निदान तो ढूंढना ही होगा। चाहे वो किसानों को पराली के सही से निपटारे के लिए आर्थिक मदद के रूप में हो, उसे खाद में तब्दील करने या पशुओं के चारे में तब्दील करने जैसी किसी तकनीक के जरिए, समाधान तो ढूंढना ही होगा। लेकिन सरकारें उसका कारगर निदान नहीं ढूंढ पा रही। पराली तो पलूशन का सिर्फ एक फैक्टर भर है। अगर ये समस्या नहीं दूर हो पा रही तो प्रदूषण के बाकी फैक्टर पर भला कैसे लगाम लग पाएगी। जहरीली हवां में सांस लेना जैसे लोगों की नियति बन चुकी है।
ठंड के दिनों में दिल्ली-एनसीआर वालों की शायद ये नियति बन गई है। हर साल प्रदूषण से निपटने के नाम पर तमाम कदमों की रस्म अदायगी होती है लेकिन पलूशन है कि घटती नहीं। हां, अगर हवा तेज हो गई तो कुछ दिनों के लिए राहत जरूर मिल जाती है। हर सर्दियों में ये जैसे रस्म हो गया है- पटाखे पर प्रतिबंध से रस्म शुरू हो जाती है। लेकिन पराली जलाने पर रोक नहीं लग पाती। पराली को गलाकर खाद में तब्दील कर किसानों के लिए वरदान वाले कथित 'जादूई घोल' के करोड़ों के विज्ञापन दिखाए जाएंगे लेकिन पराली जलती रहेगी। कथित 'जादूई घोल' की 'जादूई तरकीब' हवा में हवा हुई तो अब विज्ञापन के रूप में उसका शोर नहीं दिखाई देता। ठीक वैसे ही जैसे कभी पंजाब और दिल्ली में जब अलग-अलग पार्टियों की सरकारें थीं तो दिल्ली के सीएम हर प्रेस कॉन्फ्रेंस में, हर बयान में पंजाब की स्टबल बर्निंग को जिम्मेदार ठहराया करते थे। लेकिन जब वहां भी उनकी ही पार्टी की सरकार बन गई तब जुबां पर कभी पंजाब की पराली का नाम तक नहीं आया।
रस्मों की कड़ी में रिव्यू मीटिंग, फलां-फलां गतिविधियों पाबंदियां, स्कूल बंद, कॉलेज बंद, ये बंद, वो बंद...बीच-बीच में अदालतों में सुनवाई। ये नहीं किया तो टांग देंगे, वो नहीं किया तो ये कर देंगे, आप नहीं कर रहे तो हम करेंगे टाइप रेटोरिक भी खूब सुनने को मिलेंगे। तब भी कुछ नहीं होगा तो हो सकता है सरकार 'ऑड ईवन' का ब्रह्मास्त्र छोड़ देगी। वो ब्रह्मास्त्र जो कितना कारगर है, इसे लेकर कोई साइंटिफिक डेटा नहीं हो। ये ब्रह्मास्त्र भी चल दिया तो हो सकता है स्मॉग टावर जैसे सफेद हाथी का दांव चला जाए। जोर-शोर से लगाए गए स्मॉग टावर चल भी रहे हैं या नहीं, काम भी कर रहे हैं या नहीं, स्मॉग को हटा भी रहे हैं या नहीं....किसी को इससे क्या मतलब, बस ये सफेद हाथी लग गए तो लग गए। कहने को खूब कदम उठाए जाते हैं लेकिन हवा तो जैसे यमुना का पानी है जिसे साफ करने के लिए वर्षों से पानी की तरह सैकड़ों करोड़ रुपये मालूम नहीं कहां बहा दिए जाते हैं लेकिन पानी है कि साफ ही नहीं होता। ऊपर से राजनीति भी होगी। यूटी की सरकार केंद्र पर तो केंद्र की सरकार यूटी पर ठीकरा फोड़ने की कोशिशें होंगी।
प्रदूषण से लड़ने के नाम पर सरकारें कितनी ईमानदारी से काम कर रही हैं, इसका अंदाजा सिर्फ पराली के मुद्दे से लगाया जा सकता है। पराली जलाने वालों को दंडित करने के बजाय सरकारें खामोश हो जाती हैं कि कहीं 'अन्नदाता' न रुठ जाए। भला कौन प्रदूषण से लड़ने के लिए सियासी नुकसान को न्योता दे। केंद्र सरकार भी पराली जलाने पर जुर्माने की राशि तब बढ़ाती है जब अदालत डंडा करती है। लेकिन जुर्माना लगाएगा कौन? किसानों की भी अपनी मजबूरी है। जब से कंपाइन का दौर आया तबसे ही पराली की समस्या आई। पहले तो धान का डंठल ही नहीं बचा था खेत में, सब पुआल बन जाता था। अब कंपाइन से कटाई के बाद धान का जो डंठल खेत में बच जाता है, किसान आखिर उसका निपटारा कैसे करें? अगली बुवाई के लिए खेत भी तो तैयार करना है। ऐसे में वे खेतों में ही उसे जलाना शुरू कर देते हैं। कड़ाई से वोटों का नुकसान न हो जाए, इस डर से सरकारें भी कार्रवाई की हिम्मत नहीं दिखातीं। लेकिन पराली की समस्या का निदान तो ढूंढना ही होगा। चाहे वो किसानों को पराली के सही से निपटारे के लिए आर्थिक मदद के रूप में हो, उसे खाद में तब्दील करने या पशुओं के चारे में तब्दील करने जैसी किसी तकनीक के जरिए, समाधान तो ढूंढना ही होगा। लेकिन सरकारें उसका कारगर निदान नहीं ढूंढ पा रही। पराली तो पलूशन का सिर्फ एक फैक्टर भर है। अगर ये समस्या नहीं दूर हो पा रही तो प्रदूषण के बाकी फैक्टर पर भला कैसे लगाम लग पाएगी। जहरीली हवां में सांस लेना जैसे लोगों की नियति बन चुकी है।
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