Opinion - मोदी-जिनपिंग मुलाकात तो ठीक लेकिन चीन की चालबाजियों से बचके!

लेखक: गौतम बंबावाले
ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान एक प्रेस वार्ता में विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने घोषणा की कि भारत और चीन पूर्वी लद्दाख में LAC पर गश्त पैटर्न पर एक समझौते पर पहुंच गए हैं। इसके तुरंत बाद, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सुनिश्चित

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लेखक: गौतम बंबावाले
ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान एक प्रेस वार्ता में विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने घोषणा की कि भारत और चीन पूर्वी लद्दाख में LAC पर गश्त पैटर्न पर एक समझौते पर पहुंच गए हैं। इसके तुरंत बाद, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सुनिश्चित किया कि भारत-चीन सीमा के इस हिस्से में गश्त गलवान से पहले की अवधि में वापस आ जाएगी। अगले दिन चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने पुष्टि की कि दोनों सरकारें पूर्वी लद्दाख में अपने मुद्दों को हल करने में सक्षम हैं। एलएसी पर जारी गतिरोध कम करने को लेकर इस विकास का भारत में कई लोगों ने स्वागत किया है।
अंग्रेजी में कहावत है- डेविल इज इन द डीटेल्स। डीटेल में जाने पर ही समस्या का पता चलता है। दुर्भाग्य से, इस समय गश्त पर समझौते के काम करने के तरीके के बारे में बहुत कम संकेत हैं। कोई यह समझ सकता है कि ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें हर सरकार ने करने का वादा किया है और जिन्हें इस प्रक्रिया में अगले चरण से पहले दूसरे पक्ष द्वारा सत्यापित किया जाएगा।

भारत और चीन की सेनाओं और सरकारों के बीच विश्वास के निम्न स्तर के साथ, यह कदमों की एक धीमी, कठिन और श्रमसाध्य श्रृंखला होगी।

इसे लागू करने में कई सप्ताह भी लग सकते हैं। यदि यह प्रक्रिया पूर्वी लद्दाख में यथास्थिति की बहाली की ओर ले जाती है, जैसा कि पीएलए द्वारा 2020 की गर्मियों में अपनी हरकतों को अंजाम देने से पहले था, तो परिणाम भारत के लिए अच्छे होंगे। इससे कम कुछ भी उतने ही सवाल खड़े करेगा जितने गश्त समझौते पर पहुंचने से पहले पूछे जा रहे थे। अगर भारत सरकार संसद के साथ-साथ आम जनता को भी विश्वास में लेती है तो यह दूरदर्शी कदम होगा। भारत जैसे लोकतंत्र के लिए यह हमेशा सबसे अच्छा रास्ता होता है, खासकर चीन के साथ उसके संबंधों में।

भारत-चीन सीमा पर शांति और सौहार्द बनाए रखना हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। दोनों देशों की सरकारों ने इस लक्ष्य पर कड़ी मेहनत की थी और 1990 और 2000 के दशक में हुए कई समझौते इस इच्छा के प्रमाण हैं। यह दृष्टिकोण 2020 की गर्मियों में काफी बदल गया जब चीन की पीएलए ने पूर्वी लद्दाख में सैन्य कार्रवाई की। इस एक कदम ने दोनों देशों के बीच की गतिशीलता को बदल दिया है और पिछले संतुलन को बहाल करने के लिए बहुत सारे पारस्परिक प्रयास करने होंगे।

कई आम भारतीय सोचेंगे कि पूर्वी लद्दाख में इस सीमा मुद्दे के सुलझ जाने के बाद हम चीन के साथ पहले की तरह ही व्यवहार कर सकते हैं। आखिर, क्या विदेश मंत्री ने खुद नहीं कहा था कि जब तक सीमा पर शांति नहीं होगी, तब तक चीन के साथ संबंधों में सामान्यता नहीं आ सकती?

अब जब समस्या सुलझ गई है, तो क्या भारत और चीन के बीच संबंध 2019 जैसे नहीं होने चाहिए? दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं है। हम 2020 से 2024 के बीच पिछले साढ़े चार वर्षों में चीन के साथ अपने अनुभव को नजरअंदाज नहीं कर सकते। चीन की हरकतों के कारण दोनों सरकारों के बीच विश्वास गंभीर रूप से कम हुआ है। इसे एक बार में एक कदम आगे बढ़ाकर ही फिर से बनाया जा सकता है। पूर्वी लद्दाख से पहले जो विश्वास का स्तर था, उसे वापस पाने में कई साल लगेंगे।

दुर्भाग्य से, भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में चीन से भारत में अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के बारे में अपनी घुमावदार बातों से लोगों को भ्रमित कर दिया। निश्चित रूप से, हमारे वित्त मंत्रालय के ऐसे वरिष्ठ अधिकारी को सरकार में हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञों से यह पूछना चाहिए था कि क्या इस विचार को आधिकारिक दस्तावेज में इतने स्पष्ट रूप से व्यक्त करना उचित था। निश्चित रूप से, एक संपूर्ण-सरकार दृष्टिकोण बेहतर होता। ऐसा करना बिल्कुल गलत था क्योंकि इससे चीन को स्पष्ट रूप से संदेश गया कि हमारी सरकार चीनी निवेश के मामले में दो हिस्सों में बंटी हुई है। इस तरह के संकेत ने दिल्ली में चीनी राजदूत और उनके कर्मचारियों को इन विभाजनों का फायदा उठाने और यह सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया कि भारत चीन के पक्ष में निर्णय ले।

यह मानते हुए कि पूर्वी लद्दाख में गश्त समझौता निर्विवाद है और यथास्थिति की वापसी का संकेत देता है, भारत की तरफ से लिए गए पिछले कुछ फैसले जैसे कि चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाना या चीनी फर्मों को 5G और 6G के हमारे विकास में भाग लेने की अनुमति नहीं देना, पर नरमी बरतने का कोई सवाल ही नहीं उठता। हुवावे और जेडटीई को भारत के विकासशील दूरसंचार इंफ्रास्ट्रक्चर से बाहर रखा ही जाना चाहिए।

इसी तरह, जहां तक चीनी फर्मों द्वारा एफडीआई का सवाल है, प्रेस नोट 3 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऐसा हो सकता है, लेकिन इसका मूल्यांकन केस-दर-केस आधार पर किया जाएगा। अगर हमने समयबद्ध तरीके से ऐसा करने के लिए पहले से ही शासन संरचनाएं स्थापित नहीं की हैं, तो हमें इसे अभी स्थापित कर लेना चाहिए। भारत में चीनी कंपनियों द्वारा निवेश के लिए मुफ्त लाइसेंस नहीं दिया जा सकता है। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिए से भी देखा जाना चाहिए। भारत की जनता स्पष्ट रूप से यह समझने के लिए पर्याप्त परिपक्व है कि गलवान नदी में बहुत पानी बह चुका है। 2020 के बाद के हाल के अतीत को न तो भुलाया जा सकता है और न ही भुलाने की कोशिश की जा सकती है। चीन के साथ भारत के संबंधों को सुधारा जा सकता है, लेकिन केवल धीरे-धीरे और दोनों पक्षों के प्रयास से।

इस बीच, भारत चीन जैसे देश के साथ आगे बढ़ने के तरीके को लेकर सतर्क और सावधान रहेगा। हर कार्रवाई की बारीकी से जांच और विश्लेषण किया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई तत्काल समाधान नहीं है। चीन के साथ अचानक हमेशा की तरह व्यापार नहीं हो सकता।

(लेखक चीन और पाकिस्तान में भारत के राजनयिक रह चुके हैं)

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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