उद्धव ठाकरे की राजनीति बीते पांच साल में ही बड़े ही खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है. आगे का रास्ता बीएमसी चुनाव की तरफ जाता है, और आखिरी इम्तिहान भी उसी चुनावी मैदान में होना है. राहत की बात बस इतनी ही है कि उद्धव ठाकरे के लिए रास्ता पूरी तरह बंद नहीं हुआ है.
लेकिन, जिस ढर्रे की राजनीति करते हुए उद्धव ठाकरे आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, वही उनकी बर्बादी का सबब बन पड़ा है. महाराष्ट्र की राजनीति में वो ऐसे मोड़ पर पहुंच चुके हैं, जिसे हर जगह खतरनाक माना जाता है. गनीमत ये है कि सर्वाइवल और बाउंस बैक का मौका जरूर बचा हुआ है - लेकिन सब कुछ बहुत मुश्किल है.
हिंदुत्व की राजनीति एक बड़ा ही प्रचलित शब्द है, घर वापसी. उद्धव ठाकरे ने घर तो नहीं छोड़ा है, लेकिन उनकी नई राजनीतिक राह करीब करीब घर छोड़ने जैसी ही है. महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए उद्धव ठाकरे ने बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस और शरद पवार से हाथ मिला लिया. और, तभी से बीजेपी ने उद्धव ठाकरे की हिंदुत्व की राजनीति पर जोरदार हमला बोल दिया. बरसों से खार खाये बैठे राज ठाकरे भी बीजेपी के साथ उतर आये, और एक दिन एकनाथ शिंदे नाम के शिवसैनिक ने बगावत का बिगुल फूंका और सब कुछ एक झटके में तहस-नहस हो गया.
हाथ पर हाथ धरे बैठे उद्धव ठाकरे मन मसोस कर रह गये. हो सकता है, शरद पवार के खिलाफ बगावत होने पर उद्धव ठाकरे को थोड़ी राहत मिली हो. लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भी दर्द में आराम दिलाया होगा, लेकिन असली जंग तो विधानसभा के चुनाव मैदान में लड़ी जानी थी - और उस जंग में लोगों ने एकनाथ शिंदे वाले सत्ताधारी गठबंधन महायुति को विजेता घोषित कर दिया.
आर या पार की लड़ाई तो खत्म ही हो चुकी है. अब तो उद्धव ठाकरे के लिए सिर्फ करो या मरो का संघर्ष बचा हुआ है - सवाल है कि क्या उद्धव ठाकरे अब तक कारगर रहे नुस्खे को फिर से आजमाना चाहेंगे?
क्या उद्धव ठाकरे फिर से कट्टर हिंदुत्व की राजनीति का रुख करना चाहेंगे? और अगर उद्धव ठाकरे ऐसा चाहें भी, तो कोई गुंजाइश बची है क्या?
उद्धव ठाकरे के लिए यू-टर्न फायदेमंद साबित हो सकता है
मूल स्वभाव हर व्यक्ति के लिए बहुत मायने रखता है. उद्धव ठाकरे का मूल स्वभाव शिवसेना की कट्टर हिंदुत्ववाले पॉलिटिकल एजेंडे को हजम नहीं कर पा रहा था. तभी तो कमान हाथ में आते ही उद्धव ठाकरे ने शिवसेना की उदारवादी छवि गढ़ने की कोशिश शुरू कर दी. कुछ दूर तक उसके साथ आगे भी बढ़े.
कट्टर हिंदुत्व की राजनीति का पसंदीदा न होना ही आगे चलकर उद्धव ठाकरे को कांग्रेस और शरद पवार से हाथ मिलाने के लिए प्रोत्साहित किया होगा. ऐसे में बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे से पीछा छुड़ाने के लिए मुख्यमंत्री पद तो बहाना भर ही लगता है. बीजेपी से उद्धव ठाकरे ने गठबंधन इसलिए तोड़ दिया था, क्योंकि वो ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए राजी नहीं हो रही थी.
ओरिजिनल राजनीतिक लाइन छोड़ने का नुकसान तो होता ही है. लालकृष्ण आडवाणी सबसे बड़े उदाहरण हैं. कभी मणिपुर की आयरन लेडी कही जानेवाली इरोम शर्मिला चानू भी एक मिसाल हैं. आडवाणी पाकिस्तान जाकर अचानक ही जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताने लगे थे, और इरोम शर्मिला ने आंदोलन से यू-टर्न ले लिया तो लोग नाराज हो गये - उद्धव ठाकरे के साथ भी यही तो हुआ है.
ऐसे में अगर उद्धव ठाकरे यू-टर्न लेने का फैसला करना चाहें, तो कोशिश कर ही सकते हैं. एक बार और जनता के बीच जाना होगा. हो सकता है माफी भी मांगनी पड़े - और उद्धव ठाकरे ने ये काम कर लिया, फिर तो संभव है एकनाथ शिंदे से लोग मुंह मोड़ लें. शिवसैनिक भी उद्धव ठाकरे के साथ फिर से खड़े हो जायें.
ये सब आसान तो नहीं, लेकिन नामुमकिन भी नहीं है. जैसे आगे बढ़कर उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में सरकार बनाई, और चलाया भी. बिल्कुल वैसे ही पीछे मुड़कर फिर से अपनों के बीच जा सकते हैं - शर्त सिर्फ ये है कि सुबह के भूले उद्धव ठाकरे को शाम तक लौटने पर लोग माफ कर दें.
उद्धव ठाकरे के लिए आपदा में अवसर जैसा मौका है
उद्धव ठाकरे के पास नये सिरे से पुराने प्रयोग का एक मौका तो है ही. लेकिन, सब कुछ सोच समझकर और योजनाबद्ध तरीके से करना होगा. मिशन के लिए वक्त तो है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं. जो भी करना है, बीएमसी चुनाव तक ही कर सकते हैं.
उद्धव ठाकरे को ऐसे किसी संकोच में पड़ने की भी जरूरत नहीं है कि जिन लोगों ने मुश्किल वक्त में साथ दिया, उनका साथ कैसे छोड़ें. ये तो है ही कि कांग्रेस और शरद पवार के बूते ही उद्धव ठाकरे ने बीजेपी नेतृत्व को चैलेंज किया था, लेकिन ताजा विधानसभा चुनाव से पहले महाविकास अघाड़ी के नेताओं ने उद्धव ठाकरे के साथ जो किया, वो भी भूलने वाला तो है नहीं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी हों, या शरद पवार दोनो में से किसी ने भी उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद का चेहरा तो बनाया नहीं, और महाविकास अघाड़ी की हार के बाद ये भी साफ हो गया है कि कौन कितने पानी में है. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें तो शरद पवार के हिस्से में 10 और कांग्रेस को 16 सीटें मिली हैं, जबकि उद्धव ठाकरे ने सबसे ज्यादा 20 विधानसभा सीटें जीती है.
ऐसी सूरत में अगर उद्धव ठाकरे नये सिरे से प्रयास करें, और महाराष्ट्र के लोगों के बीच जाकर उनसे बात करें, और कहें कि वो पहले की तरह ही उनके साथ हैं - कुछ न कुछ प्रभाव तो पड़ ही सकता है.
महाराष्ट्र की राजनीति में एक दौर भी देखा गया है जब शिवसेना अपने दबदबे के लिए मशहूर थी. शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे कभी चुनाव नहीं लड़े थे, लेकिन 1995 में जब शिवसेना-बीजेपी गठबंधन सरकार बनी थी, तो चर्चा यही थी कि सत्ता का रिमोट कंट्रोल बाल ठाकरे के पास रहती है. ऐसी ही बात तब भी होती रही जब उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने थे, जिसका रिमोट शरद पवार के हाथ में माना जा रहा था.
आपको याद होगा. मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकर के खिलाफ राज ठाकरे जब मुहिम चला रहे थे तो शिवसैनिक उद्धव ठाकरे से नाराज बताये जा रहे थे. मीडिया से बातचीत में शिवसैनिकों का कहना था कि राज ठाकरे जो कर रहे हैं, वो बाल ठाकरे की लाइन है, लेकिन उद्धव ठाकरे विचारधारा लांघकर ऐसी जगह पहुंच गये हैं जहां उनको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है.
जरा सोचिये कट्टर हिंदुत्व की राजनीति के मुद्दे पर शिवसैनिक राज ठाकरे के साथ खड़े होने को तैयार हो सकते हैं तो उद्धव ठाकरे के लौटने पर वैसा नहीं कर सकते - और बीएमसी का चुनाव तो शिवसैनिकों के रुख पर ही निर्भर करता है. अगर वे एकनाथ शिंदे के साथ रहे तो उनकी बल्ले-बल्ले होगी, अगर उद्धव ठाकरे के साथ हो गये तो वो भी खूंटा गाड़ सकते हैं.
बस एक ही मुश्किल है, राजनीतिक आपदा में अवसर ढूंढ पाना भी सबके वश की बात नहीं होती है - फिर भी फैसला तो उद्धव ठाकरे को ही करना है.
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