उपचुनावों का अलग महत्व होता है, लेकिन पांच साल पर होने वाले चुनावों जितनी नहीं. 20 नवंबर को उत्तर प्रदेश की 9 सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं - और जिस तरीके से यूपी में सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने दिन-रात एक किया है, अहमियत आसानी से समझी जा सकती है.
समाजवादी नेता अखिलेश यादव का पीडीए नुस्खा लोकसभा चुनाव में सफल साबित हुआ है, लेकिन ये तो उपचुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि वो महज संयोग था, या वास्तव में राजनीतिक प्रयोग का नतीजा.
और वैसे ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लेटेस्ट स्लोगन 'बंटेंगे तो कटेंगे' का असर तो झारखंड और महाराष्ट्र चुनाव तक देखने को मिला है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या यूपी के उपचुनावों में भी उसका कोई प्रभाव देखने को मिलेगा?
पूरे चुनाव कैंपेन में योगी और अखिलेश दो-दो हाथ करते रहे
उपचुनावों के लिए यूपी कैंपेन में सपा और भाजपा दोनो ही दलों के नेताओं के बीच देश के बंटवारे का जिक्र कई बार आया. योगी आदित्यनाथ ने अलीगढ़ में देश के बंटवारे का जिक्र किया, तो अखिलेश यादव ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में 'आजादी के बाद का सबसे कठिन उपचुनाव' बताया है.
अलीगढ़ की एक सभा में देश के बंटवारे की याद दिलाते हुए योगी आदित्यनाथ ने कहा कि 1906 में देश विभाजन की नींव रखने वाली मुस्लिम लीग की स्थापना अलीगढ़ में ही हुई थी. उनका कहना था कि अलीगढ़ के लोगों ने मुस्लिम लीग की तो नहीं चलने नहीं दी, लेकिन देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने में उनकी मंशा सफल हो गई.
योगी आदित्यनाथ ने कहा, मुस्लिम लीग की स्थापना कराची, इस्लामाबाद या ढाका में नहीं हुई... ये खतरनाक मंशा अभी समाप्त नहीं हुई है... उस समय समाज को बांटने का काम मुस्लिम लीग कर रही थी, वही काम अब समाजवादी पार्टी कर रही है... 1947 में देश के विभाजन में लाखों निर्दोष लोग काटे गये.
चुनाव कैंपेन देखकर तो ऐसा लगता है जैसे उपचुनाव के नतीजे उत्तर प्रदेश में 2027 के विधानसभा चुनाव दशा और दिशा भी तय करने जा रहे हैं. सपा और भाजपा नेताओं के आखिरी कैंपेन पर नजर डालें तो योगी आदित्यनाथ ने पांच दिनों में 15 रैलियां और रोड शो किये, तो अखिलेश यादव ने 14 सार्वजनिक सभाएं और रोड शो किया है.
एक खास बात और चुनाव प्रचार खत्म होने के घंटा भर पहले अखिलेश यादव ने X पर एक लंबी पोस्ट में लिखा है, 'प्रिय उप्रवासियों और मतदाताओं, उत्तर प्रदेश आज़ादी के बाद के सबसे कठिन उपचुनावों का गवाह बनने जा रहा है। ये उपचुनाव नहीं हैं, ये रुख़ चुनाव हैं, जो उप्र के भविष्य का रुख़ तय करेंगे।'
'बंटेंगे तो कटेंगे' का असली इम्तिहान यूपी में
बीजेपी के स्टार कैंपेनर होने के कारण योगी आदित्यनाथ को महाराष्ट्र और झारखंड में भी मोर्चा संभालना पड़ा. शायद इसीलिए यूपी के मुख्यमंत्री ने कैबिनेट साथियों को मोर्चे पर पहले ही तैनात कर दिया था. एक विधानसभा सीट पर तीन-तीन मंत्री, और कमान अपने हाथ में. दोनो ही डिप्टी सीएम योगी आदित्यनाथ की टीम से बाहर थे.
यूपी से इतर, झारखंड में अगर बीजेपी घुसपैठियों के मामले को चुनावी मुद्दा बनाने में सफल रही तो योगी आदित्यनाथ का बहुत बड़ा योगदान रहा. खासकर, उनके नये स्लोगन का. चुनाव कैंपेन शुरू होने से पहले ही योगी आदित्यनाथ ने आगरा में 'बंटेंगे तो कटेंगे' का नारा दिया था - और उसके लिए बांग्लादेश के घटनाक्रम का ही हवाला दिया था.
बेशक योगी आदित्यनाथ के स्लोगन वाले पोस्टर तो यूपी में भी लगे थे, और महाराष्ट्र में भी. लेकिन, योगी आदित्यनाथ के लिए तो सबसे महत्वपूर्ण यूपी के उपचुनाव ही हैं. भले ही महाराष्ट्र में डिप्टी सीएम अजित पवार और कुछ बीजेपी नेताओं ने खुल कर योगी आदित्यनाथ के नारे का विरोध किया, लेकिन असर तो हरियाणा विधानसभा चुनाव में देखा ही जा चुका है.
विरोध की बात करें तो एक बार यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने भी खुद को योगी आदित्यनाथ के नारे से अलग कर लिया था, लेकिन बाद में कहने लगे कि वो योगी आदित्यनाथ के स्लोगन 'बंटेंगे तो कटेंगे' के साथ साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नया नारा 'एक हैं तो सेफ हैं' का भी समर्थन करते हैं.
बीजेपी के हिसाब से महत्वपूर्ण तो महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजे भी होंगे, लेकिन योगी आदित्यनाथ के लिए तो यूपी के उपचुनाव के नतीजे ही ज्यादा मायने रखते हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद योगी आदित्यनाथ के विरोधी कठघरे में खड़ा करने लगे थे, लेकिन बाद में चुप भी हो गये. चुप भले हो गये, लेकिन शोर तो नहीं ही थमा - योगी आदित्यनाथ भी जानते हैं, उपचुनावों के नतीजे सारे सवालों के जवाब होंगे. बशर्ते, आंसर शीट पर सवालों के जवाब सही-सही लिखकर आ रहे हों.
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