प्रशांत किशोर ने मंडल-कमंडल से आगे बढ़कर दलित राजनीति का रुख क्‍यों किया? | Opinion

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बिहार की राजनीति पर एक वेब सीरीज बनी है, महारानी. महारानी के हर सीजन में कहानी में काफी ट्विस्ट देखने को मिली है - अब तो ऐसा लग रहा है, प्रशांत किशोर ने भी महारानी को बहुत ध्यान से देखा है.

प्रशांत किशोर ने जन सुराज पार्टी के लिए मनोज भारती को नेता चुना है, और ये टाइटल भी महारानी के मुख्य किरदारों वाला ही है. महारानी के मुख्य किरदार हैं - रानी भारती और भीमा भारती.

मुमकिन है, आने वाले दिनों में जन सुराज पार्टी में भी महारानी की ही तरह राजनीतिक के उतार-चढ़ाव और घात-प्रतिघात देखने को मिले.

प्रशांत किशोेर राजनीति में दूसरों के कंधों पर बंदूक रख कर चलाते रहे हैं. अब भी जिस कंधे पर हाथ रखा है, वो भी दूसरे का ही है. लेकिन, निशाना थोड़ा बदल लिया है.

अपने क्लाइंट के लिए वो चाहे जिस आबादी पर फोकस करते रहे हों, अपने लिए बिहार में दलित वोट बैंक को टारगेट कर रहे हैं - और काफी सोच समझ कर अपनी राजनीतिक जमीन हासिल करने के मकसद से मनोज भारती को आगे किया है.

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मनोज भारती दलित समुदाय से आते हैं, और आईएफएस अधिकारी रहे हैं. जन सुराज पार्टी की घोषणा के दौरान प्रशांत किशोर जोर देकर बता रहे थे कि मनोज भारती कई देशों में राजदूत रह चुके हैं, और ‘प्रशांत किशोर से काबिल हैं.’

मनोज भारती, पिछले दो साल से जन सुराज के लिए प्रशांत किशोर के साथ बिहार में सक्रिय हैं, और अगले साल मार्च तक कार्यकारी अध्यक्ष पद पर बने रहेंगे. संगठन चुनाव के बाद नियमित अध्यक्ष बनेंगे. बिहार विधानसभा का चुनाव 2025 के आखिर में होना है.

पहले सवर्ण, फिर OBC - और अब दलित राजनीति

2024 के लोकसभा चुनाव के पहले से ही जातीय राजनीति जोर पकड़ने लगी थी, और बिहार में तो महागठबंधन का मुख्यमंत्री रहते हुए नीतीश कुमार ने तत्कालीन डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के साथ जातिगत जनगणना भी कराई थी.

ये तो आम चुनाव के काफी पहले से ही लगने लगा था कि मंडल बनाम कमंडल को मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है. कुछ हद तक कोशिश कामयाब भी हुई - यूपी और बिहार से आये लोकसभा के नतीजे तो ऐसा ही बताते हैं.

बीजेपी जहां अपने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे के साथ चलने की कोशिश कर रही थी, लालू यादव ने मंडल बनाम कमंडल की राजनीति में उलझाने की कवायद शुरू कर दी - और अब अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव तक उसे ले जाने की तैयारी है.
प्रशांत किशोर अपने से लिए एक गैप देख रहे हैं. .यही वजह है कि बिहार में अब तक हावी रही सवर्ण और OBC राजनीति से आगे बढ़ कर दलित राजनीति का रुख किया है.

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बीते तीन दशक की बात करें तो बिहार में ओबीसी राजनीति हावी रही है. आरजेडी नेता लालू यादव ने 90 के दशक में पिछड़ों की राजनीति से सत्ता हासिल की, और मुस्लिम वोट के साथ गठजोड़ कर करीब डेढ़ दशक तक सत्ता पर काबिज रहे. जेल जाने की नौबत आई तो पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था.

बाद में नीतीश कुमार ने भी उसी जातिगत राजनीति में थोड़ी हेर फेर के साथ अपना सिक्का चलाया. बीजेपी का साथ छोड़कर लालू यादव से भी हाथ मिलाया, सही मौका देखकर छोड़ भी दिया, और अब तक कुर्सी पर बने हुए हैं.

लालू यादव से पहले भी पिछड़े वर्ग के नेता मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन वे सभी सवर्ण राजनीति का ही हिस्सा थे. कर्पूरी ठाकुर हों या भोला पासवान शास्त्री सब के सब सवर्ण राजनीति की बदौलत ही मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाये थे. ध्यान से देखें तो ऐसे नेताओं का कार्यकाल भी कोई लंबा नहीं रहा.

अब जो जातीय राजनीति का असर हुआ है, प्रशांत किशोर ने अपने लिए बढ़िया मौका देखा है. हालांकि, वो इस बात से इनकार करते हैं कि ब्राह्मण होने के कारण उन पर सवाल उठ रहे थे, इसलिए वो मनोज भारती को आगे लाये हैं. अपने बचाव में प्रशांत किशोर कहते हैं, जाति समाज की सच्चाई है… और जो भी नेता होगा, वो भी किसी न किसी जाति से तो होगा ही. प्रशांत किशोर की दलील ठीक हो सकती है, लेकिन ये तो महज एक राजनीतिक बयान ही है.

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लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान बड़े दलित नेता रहे, लेकिन बिहार में वो ज्यादा नहीं चले. बल्कि, बिहार में दलित जनाधार के कारण ही केंद्र की सत्ता में बने रहे.

अब देखना है, प्रशांत किशोर के इस दांव से बिहार की राजनीति में कितना फर्क पड़ेगा? और जातीय जनगणना के बहाने बढ़ाई जा रही कास्ट पॉलिटिक्स पर कितना असर होगा?

बिहार में दलित राजनीति का दबदबा बढ़ाने की तैयारी

बड़ा सवाल ये है कि बिहार में दलित राजनीति कैसी होगी? विशेष परिस्थितियों में जीतनराम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री तो बन गये, लेकिन कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ सके, और फिलहाल बीजेपी की मदद से केंद्र की एनडीए सरकार में मंत्री हैं.

एनडीए में तकरार बढ़ने और अपनी पार्टी में टूट पड़ जाने के बाद चिराग पासवान को भी काफी संघर्ष करना पड़ा.विधानसभा चुनाव में नाकामी हाथ लगने के बाद काफी दिनों तक वो बिहार में ही जमे रहे, लेकिन वो अपने पिता की राह पर चलते हुए केंद्र में मंत्री बन गये हैं.

हाल की ही बात है. लालू यादव और जीतनराम मांझी के बीच जोरदार जुबानी जंग चल रही थी. जिसे जातीय राजनीति के असर के रूप में ही देखा गया. दोनो एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक हो गये थे. एक दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रहे थे. एक दूसरे से पूछ रहे थे, जो बताते हो क्या उसी जाति के हो?

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जब रामविलास पासवान की सबसे ज्यादा सीटें आई थीं, मुस्लिम मुख्यमंत्री का दांव खेला था लेकिन बात नहीं बनी.
ऐसे भी समझ सकते हैं, पासवान जहां पिछड़ गये, प्रशांत किशोर उसे आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं, तो क्या आगे चलकर चिराग पासवान पर भी दांव खेलने का इरादा है क्या?

जातीय जनगणना की राजनीति के बीच ये नया दांव है

बिहार में जातिगत गणना के नतीजे घोषित किये जाने के बाद बीजेपी नेतृत्व की तरफ से काउंटर करने की कोशिशें हुई थीं, ये बात अलग है कि मामला संवेदनशील होने के कारण बीजेपी भी जातिगत गणना की प्रक्रिया से कभी अलग नहीं हो पाई.

जातिगत गणना के बाद प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश में सिर्फ चार जातियां ही हैं - गरीब, महिला, युवा और किसान. विपक्ष के देश में जातीय जनगणना की मांग के बीच बीजेपी को फूंक फूंक कर चलते देखा गया है. बीजेपी बार बार सिर्फ यही सफाई देती है कि वो ऐसी किसी चीज के खिलाफ नहीं है.

जातीय जनगणना की डिमांड करने वालों में राहुल गांधी आगे आगे चल रहे हैं, और मोदी की जाति थ्योरी के काउंटर में पांच न्याय मांगने और दिलाने का वादा करने लगे हैं.

घोर जातीय राजनीतिक माहौल में प्रशांत किशोर ने जो कदम बढ़ाया है, उसका असर होना तय तो है, लेकिन असली फायदा किसे होता है? फायदे में प्रशांत किशोर ही रहते हैं या कोई और राजनीतिक पार्टी?

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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