व्यंग्यः गांधी का ज्ञान, निबंध का रट्टा और बडे़ नेता बनने का सॉलिड फार्मूला!

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एक नेता थे!
बचपन से ही लाभ-हानि, जरा-मरण, यश-अपयश आदि की मुकम्मल दिव्य दृष्टि संपन्न...
एक समस्या थी?अंग्रेजी में उनका हाथ तंग था. बड़ा परेशान रहते थे बेचारे. बचपन में उनकी परीक्षाओं में एक परचा आता था. अंग्रेजी का. उनकी रूह कांपती थी इससे. पास होने के लाले थे. एक बार उन्हें एक पुराने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने गांधी जी के कामों के बारे में बताया. अंग्रेजों के कैसे छक्के छुड़ाए उसकी जानकारी दी. कैसे व्यवस्था बदल असंभव को संभव कर दिखाया. आंखें फैल गई नेताजी की. विचार में पड़ गए. साले अंग्रेज और अंग्रेजी क्या अंतर. सो नेताजी ने अंग्रेजी के खिलाफ गांधीजी पर भरोसा करने की ठानली. किसी से गांधीजी पर निबंध लिखवाया.

‘महात्मा गांधी वॉज द ग्रेटमैन आफ इंडिया, ही वॉज द ग्रेटेस्ट लीडर आफ द वर्ल्ड, ही वॉज बॉर्न ऑन 1869 एट पोरबंदर स्टेट ऑफ गुजरात, ही वेंट टू इंज्लैंड फॉर बिकेम ए लॉ..’

घर में मैदान में चिल्ला-चिल्ला कर रटने लगे. परचे में बस अंग्रेजी निबंध का सवाल हल करने लगे. न्यूनतम अंक आने लगे. गांधीजी के जीवन और कर्म के बारे में लिख-लिखकर अंग्रेजी को रगेद दिया. छक्के छुड़ा दिए. मास्टर के बाप में दम नहीं होता था अंग्रेजी में फेल कर सकें. बरसों तक निबंध एक ही कलेवर में, एक ही तेवर में, एक ही स्टाइल में लिखते रहे. अनुभवी मास्साब निबंध देखते ही कॉपी पर पास होने लायक नंबर चढ़ा देते. ऐसा जलजला आया कि अंग्रेजी तक इस निबंध के आगे हाथ जोड़कर खड़ी हो गई!

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मास्साबों ने भी हाथ जोड़ लिए!!
पूरी शिक्षा व्यवस्था ही दंडवत हो गई!!!
भैइया कछु ग्रामर और सीख लेते?
थोड़ा अनसीन पैसेज भी दिमाग में भर लेते?
कुछ वॉकेवुलरी भी जान लो.
थोड़ी अंग्रेजी जान लोगे तो मर न जाओगे.

नेताजी ने सब अनुरोधों को लात मार दी. सब अनुनय ठुकरा दिए. अंग्रेजी के खिलाफ हिन्दी पट्टी की लड़ाई पर उसी ग्राउंड में भाषण देने की भी प्रैक्टिस करने लगे.

भाइयो..,

जब तक स्कूलों में टाटपट्टी रहेगी, अंग्रेजी के खिलाफ हिन्दी पट्टी की लड़ाई जारी रहेगी. किसी माई के लाल में दम नहीं है कि हमें परास्त कर सके. अंग्रेजों का नास हो! अंग्रेजी रसातल में जाए! गांधी बब्बा की जय! कोर्स में अंग्रेजी का निबंध रखने वाला अमर रहे!

हमारे देश में हर भाषण देने वाले के पीछे लोग जुटने लगते हैं, तमाशबीन टाइप सो यहां भी जुटने लगे. समर्थकों की संख्या भी बढ़ाने लगी. निबंध के चक्कर में गांधीजी के बारे में मालूमात हो गई. सिद्धांतों के बारे में पता चल गया. रटाई आगे बड़ी मददगार साबित होने लगी. पढ़ा हुआ कभी बेकार नहीं जाता. बस उपयोग में लाने का हुनर आना चाहिए. रटाई उपयोग में आ गई.

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बड़े हुए तो राजनीति को करियर बनाया!

बचपन से ही नेता थे. बनाना ही था. दिव्य दृष्टि थी. दिव्य मेमोरी थी. टंगड़ी भी दिव्य ही थी. गांधी जी के दिखाए रास्ते पर चलने लगे. चलना ही था. सब रट रखा था. आगे जब ब्लॉक से लेकर जिलास्तरीय, राज्यस्तरीय तक उनका कद बढ़ा तो गांधी काम आने लगे. गांधीवाद के सिद्धांतों ने बड़ी मदद की. गांधी जी महान थे. उनकी कथनी-करनी एक थी. राजनीति में पद-पैसा पाने के सख्त खिलाफ थे. देश की सेवा में जेल गए. कष्ट उठाए. यातनाएं सहन कीं. सेवा समझते थे सियासत को... उन्होंने राजनीति के महान सिद्धांतों दिए... टाइप की बातें करने लगे. सब रटा था. रटाई काम आने लगी. राजनीति में शुचिता-नैतिकता टाइप की बातें करने वालों की कतार में दिखाई देने लगे. इन बातों से सियासत में सब डरते हैं. जैसे नंगे से खुदा डरता है, उसी टाइप. लोग बचते गए. हटते गए. जगह देते गए. नेताजी मदमस्त सांड की तरह सिद्धांतों के सींग सबको मारने लगे. काम चलता रहा. कद बढ़ता रहा. देशव्यापी हो गया. सरकार का हिस्सा हो गए. देश चलाने लगे. अब एक दिक्कत आ गई! सिद्धांतों से जुड़ी.

विपक्ष और सड़क पर गांधीजी सरल हैं. जिम्मेदारी आते ही निभाने में कठिन. सो दिक्कत पेश आने लगी. सिद्धांतों की पालना में मुश्किल दिखाई देने लगे. सरकार का हिस्सा बनकर भी भविष्य सुरक्षित नहीं किया तो गांधी टाइप लंगोट ही रह जाएगी. लेकिन अब जिन सिद्धांतों को अपनाकर यहां पहुंचे हैं उन्हें छोड़ने की बेवकूफी भी तो नहीं की जा सकती है. तो क्या करें? प्रश्न विकट था. चिंता गहन थी. दिमाग घूम गया.

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फिर काम आ गई दिव्य दृष्टि!

ऐसे ही टेढ़े बखत के लिए दृष्टि में दिव्यता भरी थी. सुकून आ गया. पढ़ाई बेकार नहीं जाती कभी! बस उपयोग का हुनर आना चाहिए. सिद्धांतों को मॉडर्न टच तो दिया ही जा सकता है. समयानुकूल तो किया ही जा सकता है. व्यावहारिक बनाने के लिए कौन सा डॉक्टर मना कर रहा है. सिद्धांतों पर ही चलेंगे. कलेवर नया रखेंगे.

अब गांधीवादी सिद्धांतों की व्यावहारिकता कुछ यूं हो गई... गांधीजी ने क्या किया था. हम क्या करेंगे कि व्यवस्था निर्धारित कर ली. कुछ इस तरह...

मार्च करना जरूरी है, दांडी की तरह... तो जरूर करेंगे. चाहे स्विट्जरलैंड के किसी होटल से किसी बैंक तक ही न किया जाना हो. भैइया जरूर करेंगे. मार्च का सम्मान होगा. असहयोग करना जरूरी है, जरूर करेंगे. हर सही काम के प्रति यही रुख रखेंगे साला! सही काम, सही व्यवस्था, सही परिणाम दिलाते हैं भला.

क्विट इंडिया आंदोलन चलाना जरूरी है. जरूर चलाएंगे. हर सही अफसर को इस व्यवस्था से क्विट करने पर मजबूर कर डालेंगे. वैसे भी इस टाइप के लोगों का यहां क्या काम? इनकी जगह तो घर में है. वहीं रहें. हम तो भाई पूरे मनोयोग से उनके मूल्यों को आत्मसात करेंगे. हर मामले का सही मूल्य आंकने में कोई कोताही न करेंगे. उन्होंने ट्रस्टीशिप सिद्धांत दिए हम भी अपना ट्रस्ट बनाएंगे. ट्रस्ट बनाकर बंधु-बांधवों का भी भला करेंगे.

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गांधीजी ने खिलाफत की थी. हम भी जरूर करेंगे. विपक्ष की हर बात की खिलाफत करेंगे. सही हो या गलत. खिलाफत होगी. हो के रहेगी. कोई न रोक पाएगा हमें. सरकार सुनने के लिए बनी है क्या? ज्ञान नहीं चाहिए. विपक्ष की काहै सुनें. जब सत्ता में आएं तो कर लें मन की. जब तक हम अपने मन की करेंगे. सो, कर रहे हैं. घर भर रहे हैं. गांधी पर भरोसा है. उनके सिद्धांत रास्ता दिखाते हैं. अंधेरे में टॉर्च टाइप काम कर जाते हैं. उनके दिखाए रास्ते पर चलना है. चल रहे हैं. चलते रहेंगे. कैसी परेशानियां आएं कदम न डिगने देंगे.

सो अब बड़े नेता हैं!

बचपन से ही थे दिव्य दृष्टि संपन्न. और खास ये कि अभी भी गांधी के दिखाए रास्ते पर चलने को हैं तत्पर...

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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