धूमिल की एक कविता काफी मशहूर है, मोचीराम. कविता की एक लाइन है, '...मेरे लिए न कोई छोटा है, न बड़ा है... मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है, जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है.' धूमिल ने ये बड़े ही निर्विकार भाव से कहा है. जो कहा है वो शाश्वत सत्य है - और जो कुछ संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है, वो?
मोहन भागवत की भाषा वैसे ही है जैसी परिवार के मुखिया की होती है. जिसमें सबको सन्मति दे भगवान का भाव रहता है. जैसे पहले से ही इंसाफ की भावना हो - कानून सबके लिए बराबर है. बाकी समझाइश ये हो सकती है कि जो जैसा करेगा, बिलकुल वैसा ही पाएगा. संघ प्रमुख असल में संरक्षक की भूमिका में ही होता है. किसी एक से खास अपनत्व हो सकता है, लेकिन परिवार के सभी सदस्य बराबर हैं.
संघ प्रमुख ने झारखंड के दुमका से जो संदेश दिया है, वो बीजेपी के हर नेता के लिए है. वो नेता बड़ा है या छोटा, फर्क नहीं पड़ता. लेकिन उस नेता के लिए जरूर है, जो संघ की नजर में, संघ के सामने मरम्मत के लिए खड़ा है.
संघ प्रमुख ने चुन चुन कर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है, जिसके खास राजनीतिक मायने हैं. मायने अपने अपने हिसाब से समझे और समझाये भी जा सकते हैं. मोहन भागवत ने अपनी बात कह दी है. कांग्रेस उसे अपने हिसाब से समझा रही है. बाकी लोग अपने अपने हिसाब से समझ भी सकते हैं, समझा भी सकते हैं.
मोहन भागवत के निशाने पर जो भी है, वो कोई नया व्यक्ति या कई सारे लोग नहीं हैं, वे वही सब हैं जिनके लिए हाल ही में कहा था, 'जो मर्यादा बनाये रखता है वह अपना काम करता है , लेकिन अनासक्त रहता है... उसमें कोई अहंकार नहीं होता है कि मैंने ये किया... केवल ऐसे व्यक्ति को ही सेवक कहलाने का अधिकार है.
संघ प्रमुख का संदेश क्या है
संघ प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं, 'प्रगति का कोई अंत नहीं है... लोग सुपरमैन बनना चाहते हैं, लेकिन वह यहीं नहीं रुकते... फिर वह देवता बनना चाहते हैं... फिर भगवान, लेकिन भगवान कहते हैं कि वे विश्वरूप हैं... कोई नहीं जानता कि इससे बड़ा कुछ है भी या नहीं... विकास का कोई अंत नहीं है... हमें यह सोचना चाहिए कि हमेशा और अधिक की गुंजाइश होती है... यह समझना चाहिए... हमें हमेशा और अधिक के लिए प्रयास करना चाहिये.'
संघ प्रमुख ने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया है, जिसे लपक लेना विपक्ष के लिए आसान है. मुश्किल तो बीजेपी के लिए भी नहीं है, लेकिन गहन आत्ममंथन करने की जरूरत तो है ही. संघ भी लगता है, यही चाहता है.
आरएसएस प्रमुख बयान पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश का फौरी रिएक्शन सोशल साइट X पर आया है. जयराम रमेश कहते हैं, 'मुझे यकीन है कि स्वयंभू नॉन-बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री को इस ताजा अग्नि मिसाइल की खबर मिल गई होगी... जिसे नागपुर ने झारखंड से लोक कल्याण मार्ग को निशाना बनाकर दागा है.'
लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक इंटरव्यू को लेकर कांग्रेस अभी तक हमलावर है, और जयराम रमेश की प्रतिक्रिया में उसी बात का हवाला है, जब मोदी ने कहा था, 'जब मैं अपने अनुभवों को देखता हूं, तो मुझे यकीन हो जाता है कि मुझे भगवान ने भेजा है... यह ताकत मेरे शरीर से नहीं है, यह मुझे भगवान ने दी है... इसलिए भगवान ने मुझे ऐसा करने की क्षमता, शक्ति, शुद्ध हृदय और प्रेरणा भी दी है... मैं भगवान द्वारा भेजा गया एक इंस्ट्रूमेंट मात्र हूं.'
कांग्रेस की नजर में संघ प्रमुख की ये बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर कही गई हैं, लेकिन हाल फिलहाल जो कुछ बीजेपी में चल रहा है, उस प्रसंग में देखें तो एक से ज्यादा नेता इस नसीहत के दायरे में आते हैं. सिर्फ दिल्ली नहीं, उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक. उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक.
और ऐसा भी नहीं कि संघ की तरफ से कोई पहली बार ऐसी हिदायत भरी सलाह सुनने को मिल रही हो. लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन के बाद से ऐसी नसीहत संघ और उससे जुड़े पत्र-पत्रिकाओं की तरफ से भी लगातार आ रही है. अगर संघ का मुखपत्र ऑर्गेनाइजर बीजेपी की हार के लिए नेताओं के 'अति-आत्मविश्वास' की तरफ इशारा कर रहा है, तो मराठी पत्रिका विवेक भी तो यही बताने की कोशिश कर रहा है कि एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में बीजेपी का गठबंधन करना ठीक नहीं था.
लोकसभा चुनाव नतीजों को लेकर ऑर्गनाइजर ने लिखा था, 2024 के आम चुनावों के नतीजे अति आत्मविश्वास वाले बीजेपी कार्यकर्ताओं और कई नेताओं के लिए रियलिटी चेक के रूप में आये हैं... प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का 400+ का नारा भाजपा के लिए एक लक्ष्य था... लक्ष्य मैदान पर कड़ी मेहनत से हासिल होते हैं, सोशल मीडिया पर पोस्टर और सेल्फी शेयर करने से नहीं.
एक ही संदेश सभी के लिए काफी है
संघ की बीजेपी नेताओं से नाराजगी की एक बड़ी वजह तो जेपी नड्डा का वो बयान था, जिसमें वो ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि बीजेपी को संघ की जरूरत नहीं रही - संघ ने जेपी नड्डा के बयान में अहंकार को महसूस किया, और चुनावों के बीच ही बीजेपी को उसके हाल पर छोड़ दिया. नतीजा सामने आ गया.
प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण के ठीक बाद भी मोहन भागवत ने निर्विकार भाव से ही कहा था, समाज ने अपना मत दे दिया, उसके अनुसार सब होगा... क्यों, कैसे, इसमें हम लोग नहीं पड़ते... हम लोकमत परिष्कार का अपना कर्तव्य करते रहते हैं.
1. लेकिन नागपुर में एक कार्यक्रम में मोहन भागवत जब कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे, तो ऐसा लगा जैसे वो जेपी नड्डा से ही मुखातिब हों. मोहन भागवत का कहना था, 'एक सच्चा सेवक काम करते समय मर्यादा बनाये रखता है... जो मर्यादा बनाये रखता है वह अपना काम करता है, लेकिन अनासक्त रहता है... उसमें कोई अहंकार नहीं होता है कि मैंने ये किया... केवल ऐसे व्यक्ति को ही सेवक कहलाने का अधिकार है.'
जाहिर है, मोहन भागवत ने अपनी तरफ से बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को तभी नसीहत दे डाली थी. ये भी हो सकता है कि जेपी नड्डा के साथ साथ ये नसीहत हर उस नेता के लिए हो जो इस पैमाने के दायरे में आता हो.
2. अभी अभी यूपी बीजेपी में जो हलचल मची है, नसीहत तो संघ की तरफ से वहां भी बनती है. केशव प्रसाद मौर्य ने कोई नई बात नहीं कही है कि संगठन, सरकार से बड़ा होता है. नई बात ये है कि निशाने पर कौन है. ये भी वैसे ही है जैसे कहा जाता है कि कब्रिस्तान बनना चाहिये तो श्मशान भी बनना चाहिये - असल मकसद तो ये है कि मैसेज सही जगह पहुंचता है कि नहीं.
लेकिन केशव प्रसाद मौर्य को शांत हो जाना पड़ता है. क्योंकि जेपी नड्डा भी को भी संघ की बात समझ में आ चुकी है, और योगी आदित्यनाथ की वो बात भी, जिसमें यूपी में बीजेपी की हार की वजह वो 'अति-आत्मविश्वास' से भर जाना बताते हैं - ऑर्गेनाइजर भी तो यही बोल रहा है.
लेकिन क्या योगी आदित्यनाथ के लिए मोहन भागवत की बातों में कोई सलाहियत नहीं है? बिलकुल है. 'अहंकार' और 'अति-आत्मविश्वास' से लेकर 'सुपरमैन' न बनने की समझाइश है. निश्चित तौर पर ऐसी ही समझाइश वसुंधरा राजे जैसे नेताओं के लिए भी है. ऐसी समझाइश जिस पर शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता सब कुछ करने के बाद भी बोल देते हैं, जस की तस धर दीनी चदरिया, लेकिन वसुंधरा राजे शक्ति प्रदर्शन करने लगती हैं - और ऐसा होते ही संघ आंख, कान और मुंह तीनो बंद कर लेता है.
3. यूपी जैसी ही फजीहत लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में भी हुई है, और अब तो नौबत ऐसी आ पड़ी है जैसे लगता है बीजेपी, एनसीपी से पीछा छुड़ाने की तरकीबें खोज रही हो - लेकिन ये नौबत आती ही क्यों है?
जिस बिनाह पर बीजेपी, शिवसेना की बगावत को हवा देती है, ठीक वही काम खुद करती है. अगर एनसीपी के साथ गठबंधन को लेकर उद्धव ठाकरे पर हिंदुत्व की लाइन छोड़ने की तोहमत मढ़ी जा सकती है, तो क्या बीजेपी के मामले में कोई अलग सिद्धांत प्रतिपादित होगा?
खबर तो 2019 में भी आई थी, जब संघ प्रमुख से मिलने नागपुर पहुंचे देवेंद्र फडणवीस को मोहन भागवत ने खुद तोड़फोड़ न करने की सलाह दी थी. संघ प्रमुख का कहना था कि अगर शिवसेना बीजेपी से अलग होती है, तो होने दिया जाये, लेकिन बीजेपी की तरह से ऐसा कोई मैसेज नहीं जाना चाहिये कि वो तोड़फोड़ कर रही है.
संघ प्रमुख की सलाह का माखौल उड़ाते हुए देवेंद्र फडणवीस ने रात भर की तैयारी के बाद सुबह ही सुबह मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी. मुमकिन था संघ ये बर्दाश्त भी कर लेता, लेकिन बाद में शिवसेना के साथ जो हुआ, वो क्या था. क्या संघ की उसमें सहमति थी?
संघ की नजर में यूपी में योगी आदित्यनाथ भी बिलकुल वैसे ही सहयोगी हैं जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना रही है. दोनो में कॉमन बात यही है कि पॉलिटिकल लाइन एक ही है - और मोहन भागवत की ताजा नसीहत भी ऐसी ही है.
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